अपने ही विनाश पर तुले हुए हम

December 2002

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इन दिनों रासायनिक हथियारों की चर्चा जोरों पर है। अमेरिका द्वारा वियतनाम पर नापाम बम बरसाये जाने के बाद सबका ध्यान इस ओर विशेष रूप से आकर्षित हुआ। 1980 के दशक में ईराक ने कुर्द अल्पसंख्यकों तथा ईरान पर इनका प्रयोग किया। प्रथम विश्व युद्ध में अश्रु गैस के अलावा जहरीली गैस तथा नापाम बमों का भी प्रयोग किया गया था। इस युद्ध में जर्मनी ने जिस ज्वलनशील प्रक्षेपास्त्र का प्रयोग किया था, नापाम बम उसी का परिवर्तित-संशोधित रूप है। इस प्रकार के 5 लाख टन नापाम बम अब तक विभिन्न देशों पर गिराये गये हैं। समस्त विश्व को हिलाकर रख देने वाले इन रासायनिक हथियारों की संहारक क्षमता से आज समस्त विश्व चिंतित है।

रासायनिक हथियारों का तात्पर्य ऐसे हथियारों से है,जिनमें संहारक पदार्थों के रूप में किसी विषैले रसायन का उपयोग किया गया हो। रासायनिक पदार्थ शरीर पर तीन तरह से अपना प्रभाव डालते हैं। श्वाँस के साथ शरीर में जाकर,खाने-पीने की वस्तुओं में मिलकर,त्वचा में उपस्थित सूक्ष्म रन्ध्रों से होकर शरीर में पहुँचकर। सैनिक दृष्टिकोण से इन तीनों में श्वाँस के साथ शरीर में प्रवेश करके अपना प्रभाव डालने वाले रसायनों का महत्त्व सबसे अधिक हैं क्योंकि इन्हें शरीर में प्रवेश करने के लिए किसी बाह्य साधनों की आवश्यकता नहीं होती। कोई भी रसायन दुश्मन की फौजों पर कितना अधिक घातक प्रभाव डाल पायेगा यह उस रसायन के अणुओं के आकार,स्थानीय जलवायु,वायुदाब तथा वायु में उपस्थित वाष्पकणों की मात्रा पर निर्भर करता है।

प्रथम विश्व युद्ध में रसायन विज्ञान,रसायन इंजीनियरिंग तथा शस्त्र तकनीक को एक साथ मिलाकर आधुनिक रासायनिक आयुधों को जन्म दिया। सन् 1915 से 1918 के बीच कुल मिलाकर विभिन्न प्रकार के लगभग एक लाख तेरह हजार टन रासायनिक पदार्थों का उपयोग किया गया था। उनमें से 46 प्रतिशत जर्मनी, 23 प्रतिशत फ्राँस, 24 प्रतिशत ब्रिटेन, 5.6 प्रतिशत इटली तथा 4 प्रतिशत रूस के हिस्से में आते हैं। इन रसायनों के उपयोग से लगभग एक लाख तीस हजार सैनिक प्रभावित हुए एवं 90 हजार लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा। इसमें रासायनिक हथियारों के रूप में क्लोरीन अथवा फास्जीन से भरे सिलेंडरों तथा आँसू गैस,डाईफस्लजीन तथा मर्स्टड गैस आदि का खुलकर उपयोग किया। सबसे अधिक घातक क्लोरीन, फास्लीन तथा डाईफास्जीन गैसें सिद्ध हुई।

सन् 1915 में जर्मनी की फौजों ने तोप के गोलों के स्थान पर सीधे जहरीले गैसों से भरे हुए सिलेंडरों का उपयोग किया था। क्योंकि गोलों की कमी के कारण जर्मनी की सर्वोच्च कमाँड ने अंततः प्रोफेसर हेबर की सलाह से यह निर्णय लिया। 1917 में जर्मनी ने दुश्मन की फौजों को परेशान करने के लिए छींक लगाने वाले रसायनों का भी उपयोग किया। इनमें डाइक्लोरीफेनिकल आरसीन एवं डाइक्लोरोनिल, सायनों आरसीन प्रमुख थे। इसके जवाब में ब्रिटेन ने एक दूसरे छींक वाले रसायन एडेमसाइट का विकास किया। प्रथम विश्व युद्ध में ही अश्रुजनक रसायनों के रूप में जर्मनी ने डिनाइत्र एवं जिलाइलीन ब्रोमाइड, जबकि फ्राँस ने एक अधिक शक्तिशाली, अश्रुजनक रसायन के रूप में अल्का ब्रोमोबेंजिल सायनाइड का विकास किया।

प्रथम विश्व युद्ध में श्वाँस द्वारा शरीर में प्रवेश करके सैनिकों की जान लेने वाले रसायनों के रूप में क्लोरीन एवं फास्जीन गैसों का नाम उल्लेखनीय है। चूँकि इसका प्रभाव कुछ घण्टों बाद होता था इसलिए जर्मनी ने फास्जीन के स्थान पर डाइफास्जीन का प्रयोग किया। इसके बाद 1916 में फेफड़ों को नुकसान पहुँचाने वाले रसायन के रूप में क्लोरोपिकटीन का विकास किया। यह गैस मास्क को भी बेधने की शक्ति रखती है और फेफड़ों को हानि पहुँचाने के साथ अश्रु भी बहाता है। इस युद्ध में फ्राँस हाइड्रोजन सायनाइड का व्यापक उपयोग करने वाला अकेला देश था। हाइड्रोजन सायनाइड सीधे रक्त पर प्रहार करती है। 1917 में ‘मस्टर्ड गैस ने युद्ध के मैदान में मोर्चा संभाला। यह गैस त्वचा में उपस्थित सूक्ष्म रन्ध्रों के रास्ते से शरीर में प्रवेश करती है। इसीलिए गैस मास्क लगाने अथवा न लगाने से इस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।

द्वितीय विश्व युद्ध में जर्मनी के युद्ध बंदी शिविरों में 45 लाख यहूदी युद्ध बंदी सैनिकों को गैस चेंबरों में बंद करके कार्बन मोनो आक्साइड एवं हाइड्रोजन सायनाइड जैसी गैसें भरकर मार डाला गया। इसके अतिरिक्त वनस्पति विरोधी रसायनों का भी उपयोग किया गया, जिसके कारण उपजाऊ भूमि बंजर धरती के रूप में परिवर्तित हो गई। ऐसा सर्वप्रथम अमेरिका वियतनाम युद्ध में हुआ था। अमेरिकी प्रतिरक्षा सूत्रों के अनुसार इस युद्ध में 1972-79 के मध्य दक्षिणी वियतनाम के कुल 27 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में वनस्पति विरोधी रसायनों का उपयोग किया गया था। इसमें से बीस हजार वर्ग किलोमीटर के पेड़-पौधों की पत्तियाँ नष्ट हो गई थीं। सिर्फ ठूँठ ही बच गये। अगले 20 वर्ष के लिए वे पुष्पित पल्लवित न हो सके, यह ऐसा खतरनाक रसायन था। तीन हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में खड़ी फसलों को नष्ट करने के लिए 2-4 डी, 4-5 डी कैको डायलिक एसिड तथा विकलें रैम खतरनाक रसायनों का प्रयोग किया गया। भले ही इन रसायनों का उपयोग पेड़-पौधों की पत्तियों को नष्ट कर देना था जिससे शत्रु सैनिकों को छिपने के लिए स्थान न मिल सके किन्तु वहाँ की बंजर भूमि अभी भी द्वितीय विश्व युद्ध एवं मनुष्य की क्रूरता की याद दिलाता है।

आधुनिक रासायनिक आयुधों के रूप में स्नायु गैसों का विकास हुआ है। जिसका श्रेय जर्मनी की रासायनिक कम्पनी आई.जी.फारबेन और वैज्ञानिक डॉ. जेरार्ड श्रेडर को जाता है। जिनको कीटनाशी दवा खोजते समय स्नायु गैस के सूत्र मिल गये। इसकी संहारक क्षमता में लम्बे समय तक कोई कमी नहीं आती तथा इसका प्रभाव भी तुरन्त होता है। स्नायु गैस का अर्थ है ऐसी गैस जिसका प्रभाव हमारे स्नायुतंत्र अर्थात् तंत्रिका तंत्र पर होता है। पहली स्नायु गैस का विकास द्वितीय विश्व युद्ध में हुआ जिसका नाम सैनिक भाषा में टैबून था। बाद में उससे भी खतरनाक सरीन एवं सामन नाम की स्नायु गैस का भी विकास हुआ। अमेरिका में विकसित वी.एक्स तथा रूस के वी.आर. 55 का जखीरा भी संकटों को आमंत्रित कर रहा है। इसके प्रयोग से मात्र सैनिक ही नहीं उस क्षेत्र के जीव-जन्तु ,कीड़े-मकोड़े,पशु-पक्षी भी प्रभावित होते हैं। लूले-लँगड़े, अन्धे,लकवा से ग्रस्त, बहरे जैसे लोगों की अधिकता इसका परिचायक है। उस क्षेत्र में अकारण ऐसे ही बच्चे जन्म लेते हैं।

प्रथम विश्व युद्ध रासायनिक आयुधों की विनाश लीला को देखकर उसके बाद से ही विश्व के अधिकाँश देशों ने हथियारों के निर्माण तथा युद्धों पर रोक लगाने के प्रयास प्रारंभ कर दिये थे। द्वितीय विश्व युद्ध में हिरोशिमा और नागासाकी शहरों पर परमाणु बमों की विनाशलीला के पश्चात इन प्रयासों में विशेष तेजी आ गई थी। संयुक्त राष्ट्र संघ का जन्म इन्हीं प्रयासों की देन है। जिसके फलस्वरूप रासायनिक हथियारों के उपयोग को बंद करने के लिए कई नैतिक एवं कानूनी प्रतिबंध भी लगाये गये।

युद्धों में रासायनिक आयुधों के बढ़ते उपयोग और प्रतिवर्ष नये-नये तथा एक से बढ़कर एक संहारक शक्ति वाले रासायनिक आयुधों की खोज से आज सारा विश्व चिंतित है। इस चिंता का सबसे बड़ा कारण यह है कि इन आयुधों की मार केवल युद्ध क्षेत्र तक तथा युद्ध के समय तक ही सीमित नहीं रहती। वायु के साथ-साथ ये जहरीली गैसें युद्ध क्षेत्र से बहुत दूर तक पहुँचती है और अनेक निरीह असैनिक भी इसमें मारे जाते हैं। वनस्पति विरोधी रसायनों का उपयोग उस क्षेत्र की जमीन को अनुपजाऊ बना देता है तथा वातावरण में उपस्थित अनेक लाभदायक जीवाणु नष्ट हो जाते हैं। अतः रासायनिक हथियारों का प्रयोग युद्ध भूमि में करने की योजना बनाने वाले वैज्ञानिकों,राजनेताओं एवं विधि वेत्ताओं को एक बार पुनः सोचना चाहिए कि कहीं हम स्वयं अपने पैरों पर तो कुल्हाड़ी नहीं चला रहे हैं। बेहतरी मानवीय गरिमा को पहचानने और उसके अनुरूप नीतियाँ बनाने में है।


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