जा पर कृपा तुम्हारी होई, ता पर कृपा करें सब कोई -

December 2002

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मथुरा की दूसरी यात्रा

हिमालय जाते हुए वापस आने के बाद श्रीराम ने अपनी मरजी से आंवलखेड़ा की सीमा भी नहीं लाँघी थी। ननिहाल गए थे, लेकिन वह भी पिता के साथ और पूरे परिवार के साथ लौटना हुआ था। मथुरा ने श्रीराम को आकर्षित किया था। पिता के श्राद्ध कर्म के बाद एक दिन श्रीराम ने ताईजी से कहा, “माँ, अगर मैं आपको वचन दूँ कि वापस आ जाऊँगा, तो क्या आप मुझे मथुरा जाने की अनुमति देंगी?” जिस तरह अनुमति माँगी गई थी, उसने नहीं होने का सवाल ही नहीं था। पूछा कि कितने दिन में वापस लौटोगे, तो बोले यही कोई आठ-दस दिन में। ताईजी ने सहर्ष अनुमति दी। उस समय यातायात के पर्याप्त साधन नहीं थे। आंवलखेड़ा से मथुरा आने-जाने में ही तीन-चार दिन लग जाते। फिर बारह वर्ष की अबोध उम्र। एक बार तो मन हुआ कि मना कर दें, लेकिन बेटे का मन टूट जाएगा। ताईजी ने किसी को साथ ले जाने लिए कहा, लेकिन श्रीराम अकेले जाना चाहते थे। उन्होंने वैसा ही व्यक्त किया और अनुमति मिल गई। अगले दिन तीन-चार जोड़ी कपड़े और ओढ़ने-बिछाने के लिए दरी, चादर के अलावा आने-जाने, रहने आदि के लिए खरच का इंतजाम कर दिया।

गाड़ी, घोड़े और रेल से यात्रा करते हुए श्रीराम दूसरे दिन मथुरा पहुँचे। वहाँ कुछ रिश्तेदार रहते थे, लेकिन उनके घर न जाकर श्याम जी की बगीची में पड़ाव डाला। द्वारकाधीश के दर्शन कर विश्राम घाट आदि जगह होते हुए वे वृंदावन मार्ग पर स्थित एक बगीची में आ गए। छोटा-सा कुआँ जिसे वहाँ कुइया कहा जाता था, नहाने और विश्राम करने की सुविधा के साथ पास ही बने दो-चार खुले-खुले के कमरे वाली बगीचियाँ मथुरा-वृंदावन के रास्ते में थी। ब्रज क्षेत्र में इस तरह की बगीचियों की भरमार रही है। संपन्न लोग यहाँ शाम का समय बिताया करते थे। इन जगहों पर कुछ पेड़ और फूलों के पौधे भी लगे होते थे। सब मिलकर मनोरम वातावरण बना देते। कुइया के पास किसी देवी-देवता की मूर्ति भी होती है। मूर्ति प्रायः हनुमान की हुआ करती, लेकिन कही-कहीं राधा-कृष्ण, दुर्गा या किन्हीं संत-महात्माओं की भी होती। श्रीराम जिस बगीची में ठहरे, वहाँ कोई देवी प्रतिमा लगी थी। पूछा कि किस देवी की है, तो नियमित आने-जाने वाले भी स्पष्ट जवाब नहीं दे पाए। कोई दुर्गा की तो कई लक्ष्मी या राधा और सीता की बताकर रह गए, लेकिन वह प्रतिमा श्रीराम को बहुत भाई।

करीब एक सप्ताह तक श्रीराम वही रहे। सुबह नहा-धोकर निकल जाते और तीसरे प्रहर लौटते। मथुरा-वृंदावन में जगह-जगह भंडारे चलते। कुछ नहीं करते हुए भी वहाँ आराम से गुजर हो सकती है। आज इस आश्रम में, तो कल उस आश्रम में। भंडारा खाकर आज भी कई लोग गुजारा चला लेते है। श्रीराम इन आश्रमों में तो जाते थे, लेकिन भोजन-प्रसाद में उन्होंने कभी रुचि नहीं ली। घर से चलते हुए माँ ने जो सत्तू और भूना हुआ दलिया बाँधा था, उसी का आहार करते। बदलाव के लिए द्वारकाधीश मंदिर के पास बनी फूलचंद पेड़े वाले की दुकान या चौक से कुछ हलका-फुलका खाद्य खरीद लेते थे। बाकी समय भ्रमण में व्यतीत करते।

बाबा से साक्षात्कार

भ्रमण में मंदिर आदि स्थानों पर तो एकाध बात ही गए। कुँज, आश्रम और यमुना के किनारे ही उनका समय ज्यादा बीता। लग रहा था जैसे कुछ खोज रहे है। बगीची में जितनी देर रहते, देवी-प्रतिमा पर बार-बार ध्यान देते। उठकर उसे देखने जाते। जो भी आता उससे पूछते, यह किनकी प्रतिमा है? एक दिन विलक्षण ढंग से उनके प्रश्न कर उत्तर मिला। हुआ यह कि कोई संत बगीची में आए। नाम था उनका बाबा रामदास। लेकिन लोग उन्हें काठिया बाबा कहते थे। उन्होंने कौपीन की जगह लकड़ी का बनाया लंगोट जैसा आवरण पहन रखा था। बाबा ने उसे खास ढंग से तैयार कराया था कि वह कमर में अटका रहता था और जरूरत पड़ने पर उतारा या ढीला भी किया जा सकता था। काठ की कौपीन पहनने के कारण ही लोग उन्हें काठिया बाबा कहते थे।

काठिया बाबा वृंदावन में रहते थे, लेकिन अपना कोई आश्रम नहीं बनाया था। उस दिन सुबह पाँच बजे वे बगीची में आ गए और ‘जय अंबे’ का उद्घोष किया। कुइया पर स्नान कर वे पास ही स्थित भगवती के दर्शन के लिए गए। देर तक बैठे रहे। पूजा-पाठ कुछ करते दिखाई नहीं दिए। स्पष्ट वे ध्यान कर रहे थे। श्रीराम उन्हें कुतूहल से देख रहे थे। ध्यान करके उठे, तो लपककर उनके चरण छूने लगे। काठिया बाबा ‘ना बाबा ना’ कहते हुए दस कदम पीछे हट गए। फिर सहज होकर बोले, “कहाँ से आए हो?” श्रीराम ने अपना सामान्य परिचय दिया। बाबा ने पूछा, “कहाँ जाना है?” श्रीराम ने उत्तर दिया, “गंतव्य तो सभी का एक है, लेकिन जाना कैसे है, यह पता नहीं है।” सुनकर काठिया बाबा के चेहरे पर प्रसन्नता फूट पड़ी। कहने लगे, लेकिन तुम तो अपनी दिशा में ठीक जा रहे हो। कैसे कहते हो मार्ग नहीं मालूम?

काठिया बाबा ने बताया अपने बारे में

दोनों में चर्चा छिड़ गई। देर तक बातचीत चलती रही। काठिया बाबा ने अपनी साधना और अब तक की यात्रा के बारे में विस्तार से बताया। उन्हीं बाबा से यह समाधान हुआ कि देवी प्रतिमा गायत्री की है। यहाँ कभी एक आश्रम हुआ करता था। तीन-चार सौ साल पहले एक संन्यासी के सान्निध्य में बीस-पच्चीस साधक हमेशा रहते थे। वे गायत्री जप करते और वेद-शास्त्रों के अध्ययन में निरत रहते। बाबा ने ही बताया कि सैकड़ों साल पहले इस स्थान पर भगवान प्रवचन भी हुआ करते थे। अपने बारे में बाबा ने जो बताया, उसके अनुसार उनके मन में सहज ही प्रेरणा उठी कि गायत्री मंत्र का जप अधिक परिमाण में किया जाए। यज्ञोपवीत के समय मंत्र दीक्षा लेने ही रखी थी, साधना शुरू हुई।

बाबा का जन्म कहाँ हुआ या उनके परिवार में कौन है? इस बारे में कुछ नहीं बताया। संन्यासी के लिए अपने पूर्व आश्रम का परिचय देना वर्जित है। साधक जब संन्यास लेता है, तो प्रतीकात्मक रूप से उसकी अंत्येष्टि भी कर दी जाती है, विधिवत् उसकी अर्थी सजाई जाती है, उसे चिता पर लिटाया जाता है और आग लगाने के बाद वापस उतार लिया जाता है। इन क्रियाओं का उद्देश्य यह बोध जगाना है कि अब नया जन्म हो रहा है। पिछले या अब तक के लौकिक जीवन को भूल जाना ही श्रेयस्कर है। वह जीवन समाप्त हुआ। मृत्यु जिस तरह समूचा व्यक्तित्व, पहचान और उपलब्धियाँ छीन लेती है, उसी तरह अब तक का जीवन भी तिरोहित हुआ।

काठिया बाबा ने इतना ही बताया कि विद्या पढ़ते थे। बाद में घर वापस आए, तो इच्छा क्षण-प्रतिक्षण बलवती होने लगी कि गायत्री अनुष्ठान किया जाए। घर के पास ही एक बगीचा था। बगीचे में एक बड़ा वटवृक्ष था। उसके नीचे आसन जमाने की ठानी और कवच आदि विधि-विधान के साथ अनुष्ठान आरंभ कर दिया। विधि-विधान गुरु के घर में भलीभाँति सीखा हुआ था। कोई कठिनाई नहीं हुई।

अनुष्ठान का एक भाग पूरा होते-होते प्रेरणा उठी कि शेष जप ज्वालामुखी जाकर पूरा किया जाए। प्रेरणा का स्वरूप ऐसा था, जैसे कोई सामने खड़ा होकर कह रहा हो या वटवृक्ष से आवाज आ रही हो। पूर्व आश्रम में बाबा का जहाँ निवास था, वहाँ से ज्वालामुखी लगभग सत्तर किलोमीटर दूर था। वटवृक्ष के नीचे से उठकर बाबाजी घर नहीं गए। सीधे ज्वालामुखी की ओर रवाना हो गए। बाबा के साथ उनका एक भतीजा भी जप-तप किया करता था। वह भी पीछे-पीछे चल दिया। दोनों अविराम चलते रहे। रास्ते में एक महात्मा के दर्शन हुए। किसी भूमिका या परिचय का आदान-प्रदान किए बिना उन्होंने पूछा, वैराग्य लोगे? काठिया बाबा ने भी आगा-पीछा नहीं सोचा और कह दिया, हाँ। वैराग्य की तैयारी चलने लगी, भतीजे ने रोका। रोया और हठ भी किया कि संन्यासी मत बनो। कोई असर नहीं हुआ। वह उलटे पाँव दौड़ा गया और अपने दादाजी को बुला लाया।

काठिया बाबा के पिताजी आए, तब तक देर हो गई थी। उनके हस्तक्षेप जैसी स्थिति नहीं रह पाई थी। पिताजी ने आकर देखा, तो बेटा संन्यासी हो चुका था। वे दुःखी हुए। पुत्र को मनाने लगे। घर वापस चलने के लिए कहा। बेटे ने कहा कि वैराग्य धारण किया जा चुका है। इस आश्रम से वापसी नहीं होती। पिताजी ने समझाया कि किसने देखा? मुँडन ही तो हुआ है। गाँव चलकर कोई दूसरी वजह बता देंगे। किसने देखा है कि संन्यासी हो गए। काठिया बाबा पर जरा भी असर नहीं हुआ। नए आश्रम के अनुसार उन्होंने पिता को पहचानने से भी मना कर दिया। थक-हारकर वे वापस चले गए।

जहाँ संन्यास लिया था, वही वटवृक्ष के नीचे काठिया बाबा ने आसन लगाया। देर गत तक ध्यान करते रहे। आधी रात बीत गई। कुछ देर सो गए और सुबह उठकर फिर जप-ध्यान में लग गए। ध्यान-समाधि के इसी क्रम में भगवती का साक्षात्कार हुआ। काठिया बाबा ने बताया कि माँ ने वरदान माँगने के लिए कहा। अपनी कोई कामना शेष नहीं रह गई थी। कह दिया कि वैराग्य ले चुका हूँ, अब कोई कामना शेष नहीं रही। इसका उदय ही न हो, ऐसा आशीर्वाद दीजिए। काठिया बाबा को कई तरह की सिद्धियाँ प्राप्त थी। वे जो कह देते, वही हो जाता था। आर्त्तभाव से उनकी शरण गए लोगों को उन्होंने कई बार कष्टों से छुटकारा दिलाया।

विलक्षण बगीची व गायत्री विग्रह

काठिया बाबा ने बगीची में ठहरे श्री राम को उस स्थान के संबंध में विलक्षण बातें बताई। उनमें एक तो यही थी कि त्रेता युग में इस जगह दुर्वासा मुनि ने गायत्री साधना की थी। कंस का वध करने के लिए जाते हुए श्रीकृष्ण और बलराम ने यहाँ संध्या वंदन किया था। समय समय पर हुए या अनुष्ठानों के बारे में भी बताया और अपने साथ चलने के लिए कहा। श्री राम उनके साथ चल दिए। बगीची से करीब तीन किलोमीटर दूर एक टीले के पास जाकर वे रुक गए। टीले के पास इन दिनोँ मथुरा में एक कॉलेज चल रहा है। वयोवृद्ध लोग इस टीले को गायत्री टीले के नाम से जानते है।

बाबा श्री राम को टीले के ऊपर ले गए। वहाँ एक कुटिया में वयोवृद्ध संत लेटे हुए थे। दोनों ने उन्हें प्रणाम किया। इन संत का नाम बूटी सिद्ध महाराज था। तीस चालीस वर्ष से उन्होंने मौन व्रत लिया हुआ था। किसी से बोलते नहीं थे। जरूरत होती, तो इशारों से बात कर लेते। कभी कभार लिखकर भी अपनी बात कह देते। वे अलवर के रहने वाले थे और दसियों साल से यहाँ आकर रहते थे। काठिया बाबा ने ही बूटी सिद्ध महाराज के बारे में बताया कि उन्होंने एक करोड़ जप किया है। निष्ठापूर्वक किए गए जप से उन्हें गायत्री का अनुग्रह मिला और आत्मसाक्षात्कार हो गया।

सिद्धि के बाद उन्होंने टीले पर गायत्री की एक प्रतिमा स्थापित की और मथुरा के चतुर्वेदी ब्राह्मणों का भंडारा किया। कुटिया में गायत्री की स्थापना के बाद वह अपने ढंग से भव्य और अद्वितीय आयोजन था। इसके लिए आवश्यक साधनों की व्यवस्था कहाँ से हुई? इस बारे में बूटी सिद्ध बाबा के अलावा किसी को कुछ नहीं मालूम। लोगों का मानना है कि बूटी बाबा के पास कोई विलक्षण यंत्र है। उसकी आराधना करते ही साधन अपने आप प्रकट हो जाते हैं। बाबा के पास दुखी, संतप्त और रोगी लोग भी आया करते थे वे कुछ कहते तो नहीं थे, हाथ उठाकर सिर्फ आशीर्वाद देते थे। उनके हाथ का उठना ही संकट का निवारण होना माना लिया जाता था और कई लोगों के संकट सचमुच दूर हो भी जाते थे।

संतों के आशीष

धौलपुर ओर अलवर रियासत के राजा उनके पास आया करते थे। बूटी बाबा स्वयं कही नहीं जाते थे। एकांत सेवन के लिए जाना होता, तो कुटिया के पास बनी गुफा में चले जाते थे। काठिया बाबा ने बूटी सिडडडड महाराज ने श्रीराम का परिचय कराया। उनकी साधना और निष्ठा से बूटी सिद्ध बाबा अभिभूत हो उठे। दोनों हाथ उठाकर आशीष दिया और फिर गले से भी लगा लिया। काठिया बाबा इसके बाद अपनी राह चले गए और श्रीराम वापस बगीची में आ गए। इस भेंट के कुछ दिन बाद बूटी सिद्ध बाबा ने अपना शरीर छोड़ दिया।

इस बगीची में ही किसी श्रद्धालु से सुना था कि वृंदावन में यमुना के पार एक संत आए है। वे यमुना और गंगा का किनारा छोड़कर कहीं नहीं जाते। किनारे पर एक मचान बनाकर रहते है। वहीं बैठकर लोगों से बातें करते है। कभी-कभार मचान के पास जमीन पर बनी झोपड़ी में भी रहते है। साधना-उपासना के बाद थोड़ा-बहुत समय बचता है, वह जनसंपर्क में लगाते है। उन सब के बारे में और लोगों से तरह-तरह की बातें सुनी। उन्हें भूख-प्यास नहीं लगती। कभी किसी ने कुछ आहार लेते नहीं देखा। उन्हें शौच आदि के लिए भी नहीं जाना पड़ता। भूख-प्यास पर विजय प्राप्त कर लेने से काफी समय बच जाता है। उस समय का उपयोग ध्यान-धारणा में करते है।

उन संत की आयु के बारे में भी विचित्र बातें कही जाती थी। कोई कहता कि वे दो सौ वर्ष के है, किसी के अनुसार छह-सात सौ साल के है। हमारे बाबा या परबाबा ने भी उन्हें इसी अवस्था में देखा था। शरीर और स्वास्थ्य के अनुसार वे तीस-पैंतीस साल से ज्यादा के नहीं लगते थे। लोगों का कहना था कि योग की सिद्धियों के आधार पर वे अपने आपको इस योग्य बनाए रखते है। यह भी कि वे जब चाहे अपना कायाकल्प कर लेते है। उसी शरीर को नया कर लेते है या चाहे तो पुराने शरीर का त्याग कर वैसे ही रूप-रंग का नया शरीर रच लेते है। श्रीराम इन बातों को कुतूहल के साथ सुनते। सुनकर कोई प्रतिक्रिया नहीं करते। उनके मन में सिर्फ उत्सुकता जगी और वृंदावन की राह पकड़ी। गरमी का मौसम था, यमुना तब आज की तरह सूखी नहीं थी। काफी पानी बहता था। इन दिनों मई, जून के महीनों में इतनी सूख जाती है कि उसे पैदल चलकर पार किया जा सकता है, लेकिन तब बहुत पानी बहा करता था। (क्रमशः)

त्रेता में भगवान राम के साथ निषादराज का भी अवतरण हुआ था। जनजाति वर्ग के, दूसरों को नाव से नदी पार कराने वाले निषादराज ने वनवासी श्रीराम, माँ सीता व लक्ष्मण जी को पैर पखारने के बाद नदी पार कराई थी। भगवान राम ने अंत तक अपनी मित्रता निभाई एवं अपने सखा को जिन्हें उनने गले लगाकर सम्मानित किया था, अपने राज्याभिषेक के समय पुनः याद किया। ऐसे ही इस युग के एक निषादराज स्तर के भक्त की कथा-गाथा यह है। यह भक्त मल्लाह तो नहीं था, पर घनघोर जंगलों में रहने वाला निमाड का एक आदिवासी था। इसने भी इस युग के श्रीराम परमपूज्य गुरुदेव की प्रज्ञावतार की सत्ता का सान्निध्य पाया एवं उनकी अनंत कृपा उस पर बरसी।

अपनी बीमारी का इलाज कराने यह आदिवासी भाई अपने गाँव से प्रायः 7 किलोमीटर दूर सालीकलाँ पहुँचा। वहाँ संयोग से वह जिन चिकित्सक डॉ. सिकरवार के पास गया, वे परमपूज्य गुरुदेव के शिष्य थे। क्लीनिक में गुरुदेव-माताजी रूपी ऋषियुग्म के फोटो लगे थे। युवक आदिवासी इन्हें देख अपनी बीमारी की बात भूल गया व डॉक्टर साहब से पूछने लगा कि ये दोनों कौन हैं? परिचय कराने पर वह बोला कि मैं बड़ी उलझन में पड़ा हूँ। रोज स्वप्न में देखता हूँ कि दो पीपल के पत्ते मेरे सामने से उड़ते आ रहे हैं। उनमें मुझे श्रीराम व सीता के दर्शन हो रहे हैं। थोड़ी देर में यह दृश्य बदल जाता है व इसके बदले मुझे इन बाबाजी व माताजी के दर्शन होने लगते हैं। जब मैंने उनके चेहरे पर ध्यान देकर सोचा, तो वे मुस्कराने लगे। बोले, डेमनिया, तुम्हें मेरा काम करना है। अपनी जाति का उद्धार करना है। तुम कई जन्मों से हमसे जुड़े हो। एक बार हमारे पास आ जाओ। अब मुझे समझ में नहीं आता कि इनसे मिलने कहाँ जाऊँ?

डॉ. सिकरवार ने यह सब जानने के बाद कहा, इनसे मिलने चलोगे। डेमनिया ने आर्थिक कमी एवं यात्रा रूट की अनभिज्ञता की बात कही, तो डॉ. सिकरवार ने कहा कि यात्रा खरच मैं वहन करूंगा। पहले तुम ठीक हो जाओ। दवा दी गई एवं यात्रा कर दोनों गुरुधाम पहुँचे।

कुछ देर प्रतीक्षा के बाद गुरुदेव का ऊपर से बुलावा आ गया। ऐसा लगा कि वे पहले से ही प्रतीक्षा कर रहे थे। गुरुवर ने डेमनिया को छाती से लगा लिया व कहा कि तुम मेरे निषादराज हो। रामावतार के समय की मित्रता अब भी निभाओगे ना? डेमनिया की आँखों से अश्रुधारा बहने लगी। गला रुँध गया। कहने लगा कि आज मेरा जीवन धन्य हो गया है। मेरा तन-मन सब आपको चरणों में अर्पित है। आप जो कहेंगे, वही करूंगा। यह वर्ष था 1971 का। उसी साल शक्तिपीठों के निर्माण की घोषणा हुई थी व पूज्यवर का मन था कि आदिवासी क्षेत्र में भी एक पीठ बननी चाहिए। वे डेमनिया भाई से बोले, तुम अपने यहाँ भी एक शक्तिपीठ बनाओ। हमारा तुम्हारे घर आने का मन है। जब पीठ बन जाएगी, तब हम प्राण-प्रतिष्ठा समारोह में आएँगे। तुम्हारी पीठ से आदिवासी क्षेत्र के उद्धार की कई योजनाएँ चलाने का मन है।

डेमनिया असमंजस में पड़ गया कि यह सब कैसे संभव होगा। जो अपने परिवार के रहने के लिए मकान भी नहीं बना पाया हो, वह भला शक्तिपीठ जैसा भव्य निर्माण कैसे बना पाएगा? उसके असमंजस को भगवान ने ताड़ लिया। भक्त को आश्वस्त करते हुए वे बोले कि तुम मात्र शुरुआत कर देना, शेष काम पूरा हो जाएगा, तुम चिंता लेशमात्र भी न करना। प्रभु के आश्वासन को सुनकर डेमनिया ने वही संकल्प लिया कि मैं अपनी पाँच एकड़ भूमि इस कार्य के लिए दूँगा एवं निर्माण हेतु स्वनिर्मित ईंटें लगवा दूँगा।

संकल्प फलित हुआ। सुदामा-निषादराज का संस्करण दुहराया गया। डेमनिया के छोटे से त्याग ने एक शक्ति पीठ का निर्माण कर दिया। देखते-देखते जनसहयोग जुटता चला गया एवं एक वर्ष की अवधि में ही सुदूर घने जंगल व पहाड़ियों के बीच प्रथम आदिवासी शक्तिपीठ बन गई। अब भगवान की वायदा निभाने की बारी थी।

परमपूज्य गुरुदेव प्राण प्रतिष्ठा समारोह के दौरे के क्रम में सेंधवा होकर सालीकर्ता पहुँचे। शक्तिपीठ स्थल जहाँ था, वहाँ तक गाड़ी नहीं जा सकती थी। लगभग दो किलोमीटर पैदल का रास्ता था। डेमनिया की झोंपड़ी भी वहीं कुछ दूरी पर थी जहाँ वह परिवार सहित रहता था। गुरुदेव पैदल कीचड़ में, ऊबड़-खाबड़ जमीन में होते हुए शक्तिपीठ पहुँचे। प्राण प्रतिष्ठा उत्सव संपन्न हुआ। पूरे निमाड़ के परिजन पहुँचे थे। तभी तृप्त हो गए। गुरुदेव के भोजन की व्यवस्था परिजनों ने अलग से एक सेठ जी के यहाँ राजमार्ग पर एक पक्के मकान में रखी थी, किन्तु भक्तवत्सल गुरुवर तेज कदम बढ़ाते हुए डेमनिया की झोंपड़ी पर पहुँच गए व कहने लगे कि जो बना है, वही खा लूँगा। बता, क्या बनाया है मेरे लिए। कहाँ खिलाएँ- कहाँ बिठाएँ- किंकर्तव्यविमूढ़ डेमनिया कभी इधर भागे कभी उधर। इतने में डेमनिया की पत्नी चार ज्वार की मोटी रोटी, मूँग की दाल व दही एल्युमीनियम की थाली में परोस लाई। पुरा भोजन गुरुदेव ने चाव से खाया व कहने लगे कि मेरी कई जन्मों की भूख तृप्त हो गई। पिछली बार की तेरे साथ भोजन करने की आकाँक्षा पूरी हो गई। साथ में उनने दो-तीन कौर डेमनिया को भी खिलाए। यह दृश्य देख उपस्थित समुदाय धन्य हो गया। सुना भर है कि सुदामा के चावल व विदुर के केले के छिलके भगवान कृष्ण ने खाए थे, पर इस युग में श्रीराम ने उसी परंपरा को निभाकर यह सिद्ध कर दिया कि दुनिया में कोई ऊँचा-नीचा, बड़ा छोटा नहीं है। भगवान तो भाव के भूखे होते हैं। उन्हें तो बस वही चाहिए। भोजन कर सभी को आशीर्वाद दे गुरुदेव आगे बढ़ गए व भविष्य की ओर संकेत कर गए कि आगे चलकर इस केंद्र का और भी विस्तार होगा।

त्याग समर्पण की गाथा तो कइयों की है। ढेरों व्यक्तियों ने अपने साधन गुरुवर को दिए हैं, पर डेमनिया के त्याग व समर्पण का आज मूल्याँकन करें तो वह करोड़ों स्वर्ण मुद्राओं से भी अधिक है। उस छोटे से शक्तिपीठ से कार्य कर डेमनिया ने सैकड़ों आदिवासी बंधुओं के जीवन को बदल दिया। शराब, भाँग, गाँजा, तंबाकू, बीड़ी आदि व्यसनों को छुड़ाने का उसने अभियान चलाया। पढ़ा-लिखा न होने पर भी वह उन्हीं की भाषा में प्रवचन भी करता है, जो सभी के गले उतरते चले जाते हैं। वह या कर्मकाँड भी संपन्न करा लेता है। उसकी पत्नी, बच्चे, भाई, बहुएँ शांतिकुंज के एक माह के युगशिल्पी सत्रों में भाग ले चुके हैं। पूरा परिवार मिशन के प्रचार प्रसार में अहर्निश लगा हुआ है।

डेमनिया अपने जाति बंधुओं में माँसाहार छुड़ाने के लिए ऐसे तर्क देता है कि लोग उसकी बात सुनकर माँस खाना भी छोड़ देते हैं। वह कहता है कि मनुष्य योनि में आने से पहले हम चौरासी लाख योनियों में भटकते हैं। हम जिस मुर्गे या बकरे को मारकर खा रहे हैं, हो सकता है कि उस योनि में हमारा कोई पूर्वज हो। क्या हम अपने पूर्वजों को मारकर खा सकते हैं? यह प्रश्न वह सभी से पूछता है। फिर खुद ही जवाब देता है, कदापि नहीं। इस मार्मिक तर्क को सुन निमाड़ के आदिवासी क्षेत्र के बहुत से व्यक्तियों ने माँसाहार छोड़ दिया है।

यही नहीं, डेमनिया भाई ने बलिप्रथा बंद करा दी एवं शराब का ठेका बंद करा दिया। अब गाँव में आस-पास कही भी देशी शराब कोई नहीं पीता। हाँ गैर आदिवासी तथाकथित प्रगतिशील से उसकी झड़प होती रहती है, जो विदेशी शराब के नाम पर वहाँ नशे का व्यापार फैलाना चाहते रहते हैं, पर अभी भी उसके क्षेत्र में उन्हें सफलता नहीं मिली है।

डेमनिया गाँव का सरपंच भी रहा है। मिशन से जुड़ने के बाद उसकी प्रतिष्ठा भी बढ़ी है साथ ही ईर्ष्यालु भी। एक बार किसी कार्यक्रम को संपन्न कराने वह सपरिवार गाँव से बाहर गए थे, तो किसी ने घर में आग लगा दी। कपास की फसल जो घर में रखी थी, उसे काफी नुकसान पहुँचा। हजारों का नुकसान हुआ, पर डेमनिया पर विदेह की तरह इसका कोई प्रभाव न पड़ा। उसने कहा, जो भी था गायत्री माता व यज्ञ पिता का दिया था। उन्हीं के पास चला गया। हाँ, यह अवश्य हुआ कि जिसने यह काम किया था, उसे प्रभु ने स्वयं दंड दे दिया।

डेमनिया व्यावहारिक अध्यात्मवाद से परिपूर्ण व्यक्तित्व का नाम है। वैसा ही सादा रहन-सहन। ठंड हो या तेज धूप, वह वैसे ही पैदल नंगे पाँव चलता है। पीली धोती, कुरता ही पहनता है। स्वयं अपने खेत में परिश्रम आज भी करता है। उसने जन जागरण हेतु कार्यकर्ताओं की कई टोलियाँ प्रशिक्षित की हैं, जो बैलगाड़ी पदयात्रा द्वारा गिरीवासियों, सुदूर जंगलों तक जाती हैं। प्रलोभनवश जिनने धर्मांतरण कर लिया था, उन भाइयों को भी उसने पुनः यज्ञ पिता-गायत्री माता से जोड़ा है। प्रत्येक ऋषि पंचमी पर सामूहिक यज्ञोपवीत परिवर्तन का आयोजन वह करता है, जिसमें ढेरों आदिवासी भाई बहन एकत्र होते हैं। जिस गाँव में चोरी करके घर चलाने वाले लोग रहते थे, उन्हें भी पट्टा दिलाकर खेती कराके उसने स्वावलंबी बना दिया। भूमि सुधार, उन्नत कृषि, जलागम विकास की योजनाओं को व वृक्षारोपण अभियान को डेमनिया ने गति दी है। इस भक्त के बारे में जितना कहा जाए, कम है। सच है कि गुरुकृपा जिस पर होती है, उस पर सभी अनुदान बरसते हैं। ऐसे हैं हमारे डेमनिया भाई।


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