नीर-क्षीर विवेक की अनिवार्यता

December 2002

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जड़-चेतन के मिलन से बने इस विश्व में गुण दोष दोनों ही हैं। कहीं देवत्व है, कहीं असुरता। देवत्व का पोषण, अभिवर्धन और सम्मान किया जाना चाहिए, साथ ही असुरता की दुरभिसन्धियों, कुटिल-नीतियों से तथा होने वाले आक्रमण से अपना बचाव भी करना चाहिए।

देवत्व से भरे पूरे सज्जन पुरुष अपने आदर्श और व्यवहार पर स्थिर रहते हैं। सज्जनता की रीति-नीति से कभी विलग नहीं होते हैं। उनमें पारस्परिक टकराहट भी नहीं होती। यदि कोई स्वयं उनसे टकरा भी जाय तो टूटते नहीं। अपनी दिव्य सत्ता को अक्षुण्ण रखते हैं। किसी भी अनात्म तत्त्व के समक्ष उनका आत्मसमर्पण नहीं होता।

आसुरी प्रवृत्ति से ग्रसित दुर्जनों की रीति इससे बिलकुल विरोधी स्थिति होती है। ये सदा ही दूसरों से टकराने के लिए उतावले रहते हैं। इस टकराहट में दूसरों को कोई हानि भले ही न हो, पर टकराते-टकराते स्वयं तो नष्ट हो ही जाते हैं।

यह देवत्व और असुरत्व मात्र मनुष्यों तक ही सीमित हो- ऐसा नहीं है। विश्व ब्रह्मांड के कण-कण में यह व्याप्त है। दैवी गुण प्रधान सज्जन पुरुषों की तरह परमाणु की मूलसत्ता होती है। यह अपनी विशेषताओं को नष्ट नहीं होने देती।

ये परमाणु सृजन के काम में जुटे रहते हैं। वे एकत्रित होते-जुड़ते और हिल-मिलकर रहते हैं। उनकी संगठन और सृजन की भावना ही विभिन्न पदार्थों का निर्माण करती है। नींव के पत्थरों की तरह अदृश्य और अविदित रहकर वे सृजन के कार्य में अथक रूप से जुटे हैं। इस समूचे विश्व में जो कुछ भी सौंदर्य, सुषमा गोचर होती है। वह इन्हीं छोटे-छोटे परमाणुओं के परमार्थिक क्रिया-कलाप का ही सुखद परिणाम है।

ये नन्हें-नन्हें परमाणु एकाकी नहीं हैं। इनके भीतर और भी छोटा परिवार है। इसमें अच्छे-बुरे दोनों तत्त्वों का निर्वाह होता है। इसमें निहित इलेक्ट्रान-प्रोटान में पृथकतावादी नीति नहीं होती। इनकी परस्पर टक्कर टकराहट नहीं होती। इसे तो आपस में गले मिलने, अभिन्नता स्थापित करने की संज्ञा दी जा सकती है। इसके परिणाम स्वरूप वे परस्पर मिलकर अन्तःक्रिया द्वारा नवीन क्रिया में परिवर्तित हो जाते हैं।

परमाणु विद्या विशारदों ने इस परिवार के अब तक लगभग बीस सदस्य खोजे हैं, इलेक्ट्रान, प्रोटान के अतिरिक्त न्यूट्रॉन, पॉजीट्रान, मेसान, न्यूमेसान, पाई मेसान, के मेसान, हाइपरान, ड्यूट्रान, न्यूट्रिनो जैसे इन कणों से सारा विश्व विनिर्मित हुआ है। इन्हें विश्व भवन की ईंटें कहा जा सकता है।

इसी दैवी परमाणु चेतना में एक विरोधी असुर तत्त्व भी मौजूद है। समय-समय पर यही गिरगिट की तरह नाना प्रकार के रंग बदलता है। टूटता फूटता है और विग्रह विद्वेष उत्पन्न करता है। कुचक्रों का यही शिकार होता है और अन्ततः विनाश और दुर्गति भी इसी की होती है। इस संसार में मात्र देवत्त्व ही नहीं असुरत्व भी है। सम्भवतः इसी का परिचय देने के लिए यह प्रतिकण विद्यमान है।

परमाणु के प्रत्येक मूलकण के साथ एक प्रतिकण मौजूद रहता है। जैसे- इलेक्ट्रान का प्रतिकण पॉजीट्रान, प्रोटान का एण्टीप्रोटान, न्यूट्रॉन का एण्टी न्यूट्रॉन, न्यूट्रिनो का एण्टी न्यूट्रिनो है। यह सभी प्रतिकण अल्पजीवी होते हैं। ये जब अपने समान सामान्य कण से टकराते हैं तो दोनों एक दूसरे से भिड़ जाते हैं और भयंकर विस्फोट उत्पन्न होता है। इसी से विकिरण उत्पन्न होता है और भयानक ऊर्जा फैलती है।

ये विरोधी कण आते कहाँ से हैं? क्यों अवरोध उत्पन्न करते हैं? कुछ समझ में नहीं आता। विज्ञानवेत्ताओं का अनुमान है कि इस ब्रह्मांड में शायद कोई अन्य विश्व ऐसा है, जिसे सर्वथा विपरीत प्रतिविश्व कहा जा सके। उसकी संरचना इन विपरीत प्रकृति के प्रतिकणों से हुई होगी। वहाँ सब कुछ यहाँ से उलटा ही होगा। इस लोक में सारा पदार्थ एण्टी मैटर होगा। वहाँ के नाभिक- एण्टी प्रोट्रॉन और एण्टी न्यूट्रॉन के बने होंगे। उन प्रतिनाभिकों के इर्द-गिर्द इलेक्ट्रान के स्थान पर पॉजीट्रान भ्रमण करते हैं। वहीं से यह प्रतिकणों का प्रवाह धरती पर आता होगा और यह कि अणु रचना के साथ उसका सम्मिश्रण यह परस्पर विरोधी स्थिति उत्पन्न करता होगा। यह प्रतिविश्व कहाँ है? यह तो अभी तक नहीं ढूंढ़ा जा सका। पर उसका अस्तित्त्व एक प्रकार से तो मान लिया गया है।

इस तरह यह स्पष्ट हो जाता है कि कण-कण में परस्पर विरोधी तत्त्व विद्यमान हैं। कुछ गुणमय हैं। कुछ दोषमय। गोस्वामी तुलसीदास ने इसी को जड़ चेतन गुण दोष मय, विश्व कीन्ह करतार। सन्त हंस गुण गहहि पय परिहरिवारि विकार॥ इस गुणदोषमय विश्व में किसे स्वीकारें, किसे छोड़ें? कौन उपयोगी है, कौन निरुपयोगी। इसका निर्धारण बाह्य कलेवर, उसकी चमक-दमक से होना असम्भव है। इसके लिए नीर-क्षीर को पृथक करने में समर्थ विवेक की आवश्यकता है।

यह विवेक परमात्मा ने मनुष्य को विरासत में सौंपा है। जिसके द्वारा वह अपनी विकासयात्रा सुगमता से पूरी कर सकता है। इसका अंजन लगाने से वह दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है- जिससे यात्रापथ के अवरोध समझ में आ जाते हैं। सम्भव है यह अवरोध आकार प्रकार की दृष्टि से लुभावने दिखे, पर यथार्थ में होते अवरोध ही हैं। इनसे बचना ही उत्तम है। अन्यथा मंजिल पा सकना दुष्कर ही नहीं असम्भव भी होगा। इनको त्याज्य मान त्याग करने में ही कल्याण है।

परमात्मा ने गुण-दोषमय विश्व की इस प्रकार की अद्भुत संरचना सम्भवतः मनुष्य के विवेक परीक्षण के लिए ही की है। सामान्यतया देखा यही जाता है कि हम इस परीक्षण में अनुत्तीर्ण घोषित हो जाते हैं। कारण कि विवेक की जगह चालाकी, धूर्तता अपनाने लगते हैं। परिणाम स्वरूप गुण दोषों का विवेचन तो बन नहीं पड़ता। गुणों की जगह दोष ही संग्रहित करते जाते हैं। हमारी स्थिति दुर्योधन की तरह बन पड़ती है। जो युधिष्ठिर की राजसभा में जल के स्थान थल और थल के स्थान पर जल के विभ्रम में आकर जगह-जगह ठोकर खाता और गिरता फिरा। उसकी जग हँसाई भी खूब हुई। इसमें उसने अपनी गलती तो स्वीकार नहीं की उल्टे तथ्य समझाने पर महाभारत रचा डाली।

इसी तरह हम भी संसार की चकाचौंध के सम्मोहन जाल में फँसकर, गुण-दोषों का विभेद करने में समर्थ न हो पाते हैं। इस तरह लगातार दोषों को ही इकट्ठा करते रहने के कारण- व्यक्तित्व भी असुरता से भरने लगता है। परिणाम यही होता है संसार हमारे ऊपर हँसता है। यदि कोई इस औचित्य अनौचित्य का भेद समझाने आता है, तो उसकी विवेक युक्त बातों को सम्मोहित-विभ्रमित बुद्धि स्वीकारती नहीं, उल्टे- क्रोधित हो, लड़ाई-झगड़ा करने हेतु प्रेरित करती है।

जहाँ प्रगति के सोपानों पर चढ़ते हुए उत्कर्ष की चोटी पर जा पहुँचना चाहिए था। वही अपने स्थान से भी लुढ़कते हुए अवगति के गर्त में गिरते जाते हैं।

ऐसी स्थिति आने ही क्यों दें? परमात्मा की दी अमूल्य मणि विवेक के प्रकाश का प्रयोग कर बाह्य जगत् की यथार्थता ही नहीं अपने अन्तराल की यथार्थता को पहचाने। संसार में जहाँ भी प्रगति के लिए उपयोगी और आवश्यक है, उसी को ग्रहण करे। संत कबीर के शब्दों में- सार-सार को गहि रहैं थोथा देहि उड़ाय की नीति अपनाने में ही कल्याण है।

बुद्धि को विवेकयुक्त बनाएँ तभी नीतिकार की उक्ति- यत् सारभूतं तदुपासितव्यं, हंसो यथा क्षीरमिवाम्बुमिक्षं का भली भाँति पालन कर सकना सम्भव बन पड़ेगा। ऐसा बन पड़ने से असुर सत्ता सम्पन्न दुनिया, जो बाहर भी है, और भीतर भी, की सारी कोशिशें नाकामयाब हो जाएगी। फिर तो दोषपूर्ण असुरता स्पर्श भी न कर पाएगी। प्रगति का पथ-प्रशस्त हो जाएगा। यात्रा सुगम और सहज बन पड़ेगी। इस सुगमता और सहजता के लिए हर किसी को विवेक का इस्तेमाल करने की हंस जैसी रीति-नीति अपनानी चाहिए। इसी में कुशलता और सार्थकता है।


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