मौन साधना की गहराइयों में एक अनुभूति मुखर हो उठी।ईश्वर से प्रतिध्वनि होकर आवाज आई। उसने कहा, “अहो! एक ऐसा प्रेम है जो सभी को अपने में समा लेता है॥, मृत्यु से महान है, जो सीमा नहीं जानता, जो सर्वत्र, जो मृत्यु की उपस्थित में हैं तथा केवल भावसंवेदना है। मैं वही प्रेम हूँ। वह प्रेम जो अनिवर्चनीय मधुरता है, जो सभी वेदनाओं का, सभी भावों का स्वागत करता है।, जो सभी प्रकार की उदासीनता को दूर करता है। मैं वही प्रेम हूँ।”
“अहो! यह एक सर्वग्राही सौंदर्य है। यह सौंदर्य सुगन्धित ऊष्मा तथा अरुणिमसंध्या में स्फुटित होता है। पक्षी के कलरव और बाघ की गर्जना में भी यही विद्यमान है, तूफान और शाँति में यही सौंदर्य विद्यमान है। किन्तु इन सबसे अतीत है। ये सब इनके पहलू है। मैं सौंदर्य हूँ। मैं ही आकर्षण हूँ तथा आनंद भी मेरा ही स्वरूप है।”
‘अहो! एक जीवन है, जो प्रेम है, आनन्द है। मैं वही जीवन हूँ। उस जीवन में मुझे कोई सीमित नहीं कर सकता, परिमित नहीं कर सकता। वही अनन्त जीवन है।, वही शाश्वत जीवन है और वही जीवन मैं ही हूँ। उसका स्वभाव शाँति है और मैं स्वयँ शाँति है -मौन की गहन गहराइयों में उपजी शाँति मैं समग्रता की कहरी कलह नहीं है, त्वरित आवागमन नहीं मैं वही जीवन हूँ। सूर्य और तारे इसे धारण नहीं कर सकते। इस ज्योति से और अधिक प्रकाशवान और कोई ज्योति नहीं है यह स्वयँ ही प्रकाशित है। मैं ही जीवन हूँ तथा तुम मुझमें और मैं तुममें हूँ।”
“मैं सभी भ्रान्तियों के मध्य में एक ही सत्य दिखता है॥ यह दृश्य सत्य में हूँ।काल के गर्भ में उत्पन्न होकर सभी रूपधारियों में मैं ही धारण करता हूँ। मैं काल का भी जन्म स्थान हूँ। इसलिए शाश्वत हूँ तथा जीव, तू वही है जो मुझमें है- वही अंतरात्मा। इसलिए उठो जागो और सभी बंधनों को छिन्न भिन्न कर दो, तुम भी जाग्रत आत्मा हो। उठो! उठो! और जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाय रुको मत। लक्ष्य जो कि प्रेम है, जो मुक्त आत्मा का आनन्द है, शाश्वत ज्ञान है।”