सिद्धियों चरम आयाम तक पहुँचाने वाली अनाहत साधना

April 1999

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चक्र जागरण क्रम में ‘अनाहत चक्र’ का तीसरा स्थान है। अनाहत का अर्थ ‘बिना आहत या आघात’ होता है। चूँकि यह बिना आघात या घर्षण किये उत्पन्न होने वाली ध्वनि का केंद्र है, अस्तु इसे अनाहत चक्र कहते हैं। इसकी कायिक अवस्थिति वक्षस्थल के ठीक पीछे मेरुदंड में है। इसका क्षेत्र हृदय है। इस हृदय को सीने में लप-डप करने वाला शारीरिक हृदय नहीं समझना चाहिए। यहाँ इसका अर्थ आध्यात्मिक हृदय से है, जो उदर के ठीक ऊपर दोनों ओर की पसलियों के संधिस्थल पर स्थित है।

साधना ग्रंथों में इस चक्र के कई रंग अरुण, नीला, बंधुका के फूल की तरह बताये गए हैं। इसके बारह दल हैं। प्रत्येक में ‘कं’ से लेकर ‘ठं’ तक बारह अक्षर सिंदूरी वर्ण में अंकित हैं। इसका भीतरी भाग, जो प्रायः चक्र का यंत्र कहलाता है, षट्कोणीय है। गुह्य विज्ञान के अनुसार इसकी संरचना उलटे-सीधे दो त्रिकोणों के मिलन से होती है। यह शिव और शक्ति का तथा सीधा ‘शिव’ का प्रतिनिधित्व करता है। इसका वाहन हिरन है। बीज मंत्र ‘यं’ है। इसके देव ‘ईषा’ हैं तथा देवी ‘काकिनी’, जो पीतवर्णी हैं। इनके तीन आँखें तथा चार हाथ हैं। ये सौभाग्य तथा आनंद का प्रतीक हैं। चक्र का तत्व वायु हैं, जो यंत्र के षट्कोणीय क्षेत्र द्वारा निरूपित होता है।

कमल के केन्द्र में एक अन्य छोटा त्रिभुज है। यह जीवात्मा का प्रतीक है। इसमें एक अखंड-ज्योति का निवास है। कतिपय ताँत्रिक ग्रंथों में त्रिकोण के भीतर एक स्वर्ण रंग का शिवलिंग अवस्थित बताया गया है। इसे ‘बाना लिंग’ कहते हैं। अनाहत चक्र में कल्पवृक्ष है। यह वक्र के द्वादश दल वाले कमल के नीचे एक अन्य रक्तवर्णी कमल के भीतर है। साधना-विज्ञान के आचार्यों का मत है कि शक्तिसंस्थान में स्थित उक्त कल्पतरु का ही ध्यान करना चाहिए। इससे साधक की कामनाएँ पूर्ण होती हैं।

इस संस्थान का लोक ‘महः’ है, तन्मात्रा ‘स्पर्श’, ज्ञानेंद्रिय ‘त्वचा’ तथा कर्मेंद्रिय ‘हाथ’ है। प्रत्येक चक्र के मस्तिष्क के तत्संबंधी केंद्र भी सक्रिय हो उठते हैं। किसी व्यक्ति का अनाहत चक्र जब क्रियाशील बनता है तो प्रकार की अतींद्रिय विभूतियों के अतिरिक्त साधक में विज्ञान, कला, संगीत, लेखन, कविता जैसी कितनी ही रचनात्मक प्रवृत्तियाँ परिलक्षित होने लगती हैं। यह इस चक्र के भौतिक गुण हैं। इनकी अतींद्रिय विशेषताएं वे हैं, जिनके अंतर्गत योगाभ्यासी दिव्य-क्षमताएँ अर्जित करता है। अनाहत चक्र के जागरण से व्यक्ति का जब उक्त मस्तिष्कीय केंद्र उद्दीप्त होता है, तो एक दिव्यप्रेम का उन्मेष होता है, जो उसमें परदुखकातरता, परमार्थपरायणता, करुणा उदारता जैसे गुणों के विकास में सहायक होता है। इसके कारण वह विराट ब्रह्म से इस कदर स्नेह करने लगता है, मानो वह उसके शरीर का अभिन्न अंग हो, उसका कष्ट उसके मन-प्राण को बुरी तरह झकझोरता है। इसके लिए वह सहयोग-सहकार करने के लिए सदा तत्पर रहता है। यों तो ऐसे सेवाभावी दुनिया में अनेक मिल जाएँगे, दोनों के कार्यों में एकरूपता और समानता भी खूब दिखलाई पड़ती है, इतने पर भी उनके भावों में जमीन-आसमान जितना अंतर होता है। आध्यात्मिक करुणा से उपजा सहयोग किसी प्रकार के प्रतिदान की अपेक्षा नहीं रखता, जबकि मानवी सहृदयता से बन पड़ा सहकार सदैव अपने पीछे प्रतिदान की एक हलकी

आकाँक्षा संजोये रहता है। सेठ-साहूकारों द्वारा किये जाने वाले दान-धर्म में इसी की प्रतिच्छाया विद्यमान होती है। उनका यह कार्य निःस्वार्थ नहीं होता। वे दान के बदले में पुण्य कमाने की इच्छा रखते हैं। यदि किसी कंगाल को अन्न-वस्त्र का दान करते हैं, जिसे देखकर उनका अंतःकरण पीड़ित होता और छटपटाता है, अपितु इसलिए कि वे अपने दुष्कर्मों के कुफल को इससे पाटना चाहते हैं। यह भाव आध्यात्मिक नहीं, साँसारिक है। इसे निःस्वार्थ प्रेम नहीं कह सकते। इसको स्वार्थपूर्ण सहकार कहना पड़ेगा। भले ही स्वार्थ कितना ही उच्चस्तरीय क्यों न हो, वह कहलायेगा साँसारिक ही, किंतु जब अनाहतचक्र का जागरण होता है, तो इस स्तर की संवेदना विकसित होती है, जहाँ स्वार्थ घुलकर दिव्यकरुणा में रूपांतरित हो जाता है। जब इस स्तर की करुणा से काई क्रिया संपन्न होती है, तो इसको निर्विकार, निरपेक्ष एवं आध्यात्मिक कहना पड़ेगा। महात्मा बुद्ध का करुणाभाव इसी स्तर का था।

साधना-विज्ञान के मर्मज्ञों का कथन है कि अनाहत-चक्र को ध्यान-साधना के अतिरिक्त साहित्य, संगीत जैसी भौतिक विधाओं द्वारा भी प्रभावित-उत्तेजित किया जा सकता है, तो साधक में एक नये विचार और दृष्टिकोण का प्रसव होता है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति की चिंतनप्रणाली और कार्यशैली पूरी तरह परिवर्तित हो जाती है। साधक के लिए यह चेतना के एक नये तल में अवस्थान है।

अनाहत-चक्र को भक्तियोग द्वारा भी सक्रिय किया जा सकता है। यह चक्र-जागरण का सबसे सरल और निर्दोष तरीका है। इसमें भक्ति गुरु के प्रति भी हो सकती है अथवा अपने इष्ट आराध्य के प्रति भी। दोनों ही विधियाँ अहंभाव के विनाश में सहायक हैं। जब इनके द्वारा अहमान्यता का पूर्णतया नाश होता है, तभी वास्तविक भक्ति और प्रेम का उदय होता है। इसे दूसरे प्रकार से यों भी कहा जा सकता है। इसे दूसरे प्रकार से यों भी कहा जा सकता है कि जब व्यक्ति अनाहत-चक्र में स्थित होता है, तो उसका स्वार्थ और अहंकार इस स्तर की चेतना द्वारा प्रेम और भक्ति में परिवर्तित हो जाता है। इसीलिए इस चक्र का जागरण केवल व्यक्तिगत उत्कर्ष के लिए ही नहीं, परिवार एवं समाज से जुड़े उसके विकास की दृष्टि से भी अति महत्वपूर्ण है। इससे परिवार में एकता, समता और संतुलन के भाव-विकास में काफी योगदान मिला है। नारी इस उद्भव की धुरी है। उसमें भावसंवेदनाएँ अत्यन्त बढ़ी-चढ़ी होती हैं, इसीलिए अनाहत-चक्र का जागरण उसमें शीघ्रतापूर्वक होता है। नर में चूँकि वह कोमलता नहीं होती और भाव- संवेदनाओं पर विवेक-बुद्धि हावी होती हैं, कारण कि उनके लिए इसका विकास अपेक्षाकृत अधिक सरल और सहज होता है, जबकि स्त्रियों के लिए यह अनुकूल स्थिति अनाहत-चक्र के साथ बनती है, अस्तु उन्हें इसी के लिए प्रेरित-प्रोत्साहित किया जाता है।

तंत्रग्रंथों में ऐसा उल्लेख मिलता है कि अनाहत स्तर पर पहुँचकर व्यक्ति की संपूर्ण मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। इस भावना के मूल में एक कल्पवृक्ष है, जो सारी इच्छा-आकाँक्षाओं को पूरा करता है। यह वास्तव में परिष्कृत चेतना का आलंकारिक वर्णन है। इस दशा में मनोकामनाएँ पूरी हो जाती है, पर कल्पनाएं भी अधूरी नहीं रहतीं। यदि वे अपरिष्कृत स्तर की ओछी हुई, तो विनाश के सरंजाम जुटा रहा है। इसलिए अनाहत स्तर की चेतना को कल्पतरु द्वारा निरूपित किया गया है और यह समझाने की कोशिश की गई है कि इस अवस्था में भावनाएँ यदि संयमित नहीं हुई तो वह उत्थान के साथ-साथ पतन की भी निमित्त बन सकती हैं।

कथा है कि एक बार एक राहगीर किसी पेड़ के नीचे विश्राम कर रहा था। वह अत्यंत थका और प्यासा था, सोचने लगा आस-पास कोई शीतल निर्झर होता, तो उसकी प्यास बुझ सकती थी। इतना सोचते ही पीछे से उसे कल-कल ध्वनि सुनाई पड़ी। वह चौंका, झरना देख प्रफुल्लित हुआ और अपनी प्यास बुझाई। अब उसे भूख सताने लगी। कुछ खाने की इच्छा हुई, तो सामने भोजन आ गया। भोजन कर लेने के पश्चात् दिनभर की थकान के कारण नींद आने लगी। वह सोना चाह रहा था, तभी देखा कि वहाँ आरामदायक बिस्तर लग गया है। उसमें वह सो गया। शाम को जब सोकर उठा, तो अँधेरा घिर चुका था। उसे भय सताने लगा कि कहीं कोई शेर न आ जाए और उसे खा न जाए। ऐसा ही हुआ शेर प्रकट हुआ। और उसे अपना ग्रास बना लिया।

प्रस्तुत आख्यान साधक जीवन पर शत-प्रतिशत घटित होता है। यह इस बात के लिए सचेत करता है कि साधना की उच्चस्तरीय अवस्था में भावनाओं पर नियंत्रण और अंकुश न रहा, तो साधक के लिए यह अत्यंत दुखदायी और हानिकारक सिद्ध हो सकता है। यदि अनाहत स्तर पर चेतना पूर्णरूपेण विकसित हो जाए; भय, आशंका सताती रहें, तो वैसी ही प्रतिकूल परिस्थितियाँ बनती चली जायेंगी, जैसी कि उसने कल्पना की थी। ऐसी दशा में साधक का पतन सुनिश्चित है। यदि ऐसा हुआ, तो चेतना पुनः अनाहत से स्वाधिष्ठान जैसे निम्नस्तरों की ओर वापस चली जाएगी। अनाहत जैसे उच्च केंद्रों से एक बार यदि चेतना का अधःपतन हुआ, तो दूसरी बार उसका उठना बहुत मुश्किल है। इसीलिए अनाहत का वाहन हिरन है, ताकि साधक चौकन्ने हिरन की-सी सतर्कता बरते और हर क्रिया-प्रतिक्रिया के प्रति सावधान रहे।

इस आयाम में अधिष्ठान करने वाले साधक को संशयात्मक विचारों के प्रति हमेशा जागरूक रहना चाहिए। उसे ऐसे विचार मन में कदापि नहीं लाने चाहिए, जो आसुरी हों। उदाहरण के लिए, यदि किसी को सिरदर्द रहता हो और वह यह सोचने लगे कि उसे ब्रेनट्यूमर हो गया है अथवा पेट दर्द की स्थिति में एपेण्डीसाइटिस या वृक्क की पथरी का अनुमान-आकलन करने लगे, तो उससे गंभीर समस्याएँ पैदा हो सकती हैं तथा उसका उन-उन रोगों से

आक्रांत हो जाना संभव है। इसी प्रकार दूसरों संबंधित दुविधामूलक विचारों के प्रति सावधान रहना चाहिए, यथा-’कहीं ऐसा न हो कि वह व्यक्ति मेरी जान का दुश्मन बन जाए’, ‘उसका लड़का बहुत बीमार है, शायद न बचें’, ‘मेरा मित्र कल श्रीनगर से लौटने वाला था, कहीं ऐसा तो नहीं कि आतंकवाद की चपेट में आ गया हो’, वह बहुत निराश है, डर है कि आत्महत्या न कर बैठे’ आदि-आदि। जागरण के इस काल में किसी भी प्रकार का विचार मन में उठते ही वह फलित होने लगता है। कुँडलिनी जब तक सुप्तावस्था में रहती है, तब तक ऐसे विचार मन में उठते ही फलित होने लगता है। कुँडलिनी जब तक सुप्तावस्था में रहती है तब तक ऐसे विचार शक्तिहीन होते हैं, उसके अनाहत-चक्र तक उत्थित होते ही ये फलदायी बन जाते हैं और मूर्तिमान होने लगते हैं। यही कारण है कि इस अवस्था को तलवार की धार पर चलने के समान बताया गया है, जहाँ तनिक भी असावधानी से कुछ-से-कुछ हो सकता है।

संगति, स्वाध्याय और वातावरण यह तीन साधनाकाल के महत्वपूर्ण पाथेय हैं। यदि ये उच्चस्तरी नहीं हुए, तो साधक का पतन आवष्यींवी है। जब वह अनाहत-चक्र की अवस्था से होकर गुजरता है, तो ऐसे समय में से दृढ़ इच्छाशक्ति एवं विश्वास से भरपूर होना चाहिए तथा अपना अधिकांश समय ऐसे व्यक्तियों, पुस्तकों एवं वातावरण के संपर्क में बिताना चाहिए, जो उसके आत्मविश्वास को विकसित करने अथवा उसे मजबूत बनाने में सहायक हों। मन को इतना बलवान बनाना चाहिए कि वह प्रतिकूल परिस्थितियों में भी चट्टान की तरह अडिग रहे। इन सब कसौटियों में खरा उतरने पर ही साधक इस अवस्था को सफलतापूर्वक पार करता और आगे की प्रगति करता है।

योग के आचार्यों ने अनाहत-स्तर पर पहुँचने के कुछ लक्षण बताये हैं। यदि ये लक्षण साधक के जीवन में परिलक्षित होने लगें तो समझना चाहिए कि योगाभ्यासी अनाहत की भूमिका में प्रतिष्ठित हो चुका है। यदि उसके विचार बहुधा सत्य सिद्ध होने लगें, परिस्थितियां चाहे कितनी ही विपरीत क्यों न हों, तो यह इस बात का प्रमाण है कि अब चिंतन में आमूल-चूल परिवर्तन का अवसर आ गया तथा अगली भूमिका में प्रवेश करने का समय भी। इस दशा में अपनी चिंतन-प्रक्रिया पर गहरी नजर रखने की आवश्यकता है। जब ऐसा अनिवार्य रूप से महसूस होने लगे, तो यह समझ लेना चाहिए कि अनाहत-स्तर की चेतना को वह प्राप्त कर चुका है।

इस आयाम में पहुँचकर व्यक्ति भाग्य और प्रारब्ध पर विजय प्राप्त कर लेता और जीवन को अपनी इच्छानुसार जी सकता है। यहीं पर उसे अपने अंदर की उस सामर्थ्य का ज्ञान होता है कि अब वह भाग्य के अधीन नहीं, वरन् भाग्य ही उसके अनुगत है और उसे अपने हिसाब से पूरी तरह मोड़ा-मरोड़ा जा सकता है। यह आकाश में कुछ फेंकने की तरह है। यदि किसी पदार्थ को इस गति से इतना ऊँचा फेंका जा सके कि वह धरती की आकर्षण-शक्ति वाली परिधि से बाहर निकल जाए, तो इसे पृथ्वी अपनी चुँबकीय शक्ति के बल पर पुनः वापस नहीं खींच सकेगी। यह ठीक उसी प्रकार की घटना होगी, जैसे किसी रॉकेट को अत्यंत द्रुतवेग से इस प्रकार प्रक्षेपित किया जाता है कि वह अपने इस ग्रह के आकर्षण बल को निरस्त करता हुआ ऊँचा उठे और आगे बढ़ जाए। ऐसे ही अनाहत में चेतना का स्तर इतना ऊँचा उठ जाता है कि साधक को अपने प्रारब्ध के वशवर्ती होकर नहीं जीना पड़ता, अपितु अपनी इच्छानुसार जीवनयापन करने के लिए स्वतंत्र हो जाता है। इस आयाम में साधक योगी बन जाता है, कारण कि तब चेतना पूर्णरूपेण योगमय होती है तथा उसके निर्णय बाहरी दुनिया या विश्वास पर आधारित न होकर पूर्णतया अपनी चेतना-शक्ति पर अवलंबित होते हैं।

चक्रवेधन की साधना करने के लिए अनेक ग्रन्थों में अनेक मार्ग बताये गए हैं। इसी प्रकार गुरु-परम्परा से चली आने वाली साधनाएँ भी विविध प्रकार की हैं। इन सभी मार्गों से उद्देश्य की पूर्ति हो सकती है, सफलता मिल सकती है, पर शर्त यह है कि उसे पूर्ण विश्वास, श्रद्धा, निष्ठा और उचित मार्गदर्शक के संरक्षण में किया जाए।

अन्य साधनाओं की चर्चा और तुलना करके उनकी आलोचना-प्रत्यालोचना करना यहाँ अभिष्ट नहीं है। इन पंक्तियों में एक ऐसी सुगम साधना पाठकों के समक्ष उपस्थित की जा रही है, जिसके द्वारा गायत्री महाशक्ति की साधना से चक्र-जागरण बड़ी सुविधापूर्वक हो सकता है और अन्य साधनाओं में आने वाली असाधारण कठिनाइयों एवं खतरों से स्वतंत्र रहा जा सकता है।

प्रातःकाल शुद्धशरीर और स्वस्थ चित्त से सावधान होकर पद्मासन में बैठें, तत्पश्चात ब्रह्मसंध्या के आरंभिक पंचकर्मों की क्रिया को पवित्रीकरण, आचमन, शिखाबंधन, प्राणायाम एवं न्यास करने के बाद गायत्री के एक सौ आठ मंत्रों की माला जपिए।

ब्रह्मसंध्या कर चुकने के बाद मस्तिष्क के मध्यभाग त्रिकुटी (एक रेखा एक कान से दूसरे कान तक खींची जाए और दूसरी रेखा दोनों भौंहों के मध्य में से मस्तिष्क के मध्य तक खींची जाए, तो दोनों का मिलन जहाँ होता है, उस स्थान को ‘त्रिकुटी’ कहते हैं।), में वेदमाता गायत्री का ज्योतिस्वरूप ध्यान करना चाहिए। मन को उसके मध्य में-ज्योतिर्लिंग के मध्य में इस प्रकार अवस्थित करना चाहिए जैसे लुहार अपने लोहे को गर्म करने के लिए भट्टी में डाल देता है और जब वह लाल हो जाता है, तब उसे बाहर निकालकर ठोकता-पीटता और अभीष्ट वस्तु बनाता है। त्रिकुटी स्थित गायत्री ज्योति में मन को कुछ देर तक अवस्थित रखने से मन स्वयं भी तेजस्वरूप हो जाता है, तब उसे आज्ञाचक्र के स्थान में लाना चाहिए। ब्रह्मनाड़ी मेरुदण्ड से आगे बढ़कर त्रिकुटी में होती हुई सहस्रार को गईं है। इस ब्रह्मनाड़ी की पोली नली में दीप्तिमान मन को प्रवेश कराके आज्ञाचक्र में ले जाया जाता है। वहाँ वाँछित समय तक उसे उद्दीप्त-जाग्रत करने के उपराँत क्रमशः नीचे की ओर बढ़ते हुए अनाहत चक्र तक पहुँचना पड़ता है। वही क्रिया पूर्ववत फिर दुहरायी जाती है। आवश्यक अवधि तक वहाँ स्थिरता करने पर वे सब अनुभव होते हैं, जो चक्रों के लक्षणों में वर्णित है। मन को चक्र के दलों का, अक्षरों का? तत्व का, बीज का, देवशक्ति का, यंत्र का, लोक का, वाहन का गुण-रंग अनुभव होता है। आरंभ में अनुभव अधूरे होते हैं। धीरे-धीरे चक्र के कुछ स्पष्ट, कुछ अस्पष्ट और कुछ विकृत अनुभव परिलक्षित होते हैं। क्रमशः वे अधिक स्पष्ट हो जाते हैं। प्रायः एक महीने में चक्रकमल प्रस्फुटित हो जाता है, तब वहाँ से आगे बढ़ना पड़ता है। विधि यही है-मार्ग वही।

अनाहत-चक्र के जागरणकाल में अक्सर ऐसे चिन्ह प्रकट होते हैं, जिनको भ्रमवश रोग का लक्षण मान लिया जाता है, पर वास्तव में यह जागरण की प्रतिक्रिया मात्र होती है, कोई रोग नहीं। ऐसे समय में प्रायः छाती में दर्द हो सकता है एवं हृदय की धड़कन बढ़ सकती है। व्यक्ति की नींद भी घट जाती है; लेकिन वह बीमार अनुभव नहीं करता। उसकी क्रियाशीलता और स्वस्थता बढ़ी-बढ़ी दिखाई पड़ती है। अनेक प्रकार की सूक्ष्म अतींद्रिय ध्वनियाँ इस काल में सुनाई पड़ सकती है।

इस दिव्यजागरण से कितनी ही दिव्यक्षमताएँ साधक में विकसित हो जाती हैं। अतींद्रिय दृष्ट, अतींद्रिय श्रवण, दूसरों के मान के भाव या विचार जान जाना, स्पर्श-चिकित्सा की क्षमता अर्जित कर लेना, मनोगतिज सामर्थ्य आ जाना आदि इस चेतनात्मक आयाम की मुख्य सिद्धियाँ हैं।

अनाहत स्तर की चेतना दूसरों को आहत करने की अनुमति नहीं देती। उसकी यह माँग है कि जिस प्रकार हम स्वयं अनाहत बने रहने की आकाँक्षा पालते हैं, उसी प्रकार दूसरों के संबंध में भी सोचें। अपने गुण, कर्म, स्वभाव का ऐसा विकास करें, जिससे न सिर्फ इस दर्शन को बल मिले, वरन् हम यथार्थ रूप में उस भूमिका में प्रतिष्ठित भी हो सकें। इससे कम में इस तल को साधना संभव नहीं, ऐसा साधना विज्ञान के आचार्यों का मत है।


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