मगध देश के राजा श्रेणिक एक बार भ्रमण हेतु राजप्रसाद से बाहर निकले। उन्होंने देखा कि एक साधु नदी तट पर बैठे पूजा-पाठ में निमग्न हैं। वे साधु महाराज के पास गए और बोले कि आप इतनी अल्पायु में घर से निकल पड़े हैं। आपका चेहरा तप से दीप्तिमान हो रहा है। आप कौन हैं? कहाँ रहते हैं? साधु ने उत्तर दिया-मैं एक अनाथ, असहाय हूँ। किंतु इस उत्तर से राजा संतुष्ट नहीं हुए। उन्होंने पूछा कि मुझ से कुछ न छिपाए। सच-सच बताइए। यदि आप अनाथ भी हैं, तो मैं आपका संरक्षक हूँ। मेरे राज्य में कोई अनाथ और असहाय नहीं है। महात्मा ने कहा राजा भले ही आप विपुल संपत्ति के स्वामी हैं। हाथी, घोड़े, सैनिक, राज्यकोष, राजमहल सब कुछ है, फिर भी आप किसी-न किसी मामले में असहाय और अनाथ हैं ही। किंतु राजा मानने को तैयार न था। तब साधु ने आप-बीती बात कह सुनाई- मैं कौशांबी नगर के नगर सेठ धनराज का पुत्र हूँ। मुझे आँखों के रोग ने घेर लिया। समस्त उपचार कराए गये। वैद्य, राजवैद्य सभी परेशान तथा हैरान थे। धन-संपदा-मित्र, परिवार, सगे-संबंधी मेरे रोग में कोई सहायक न बन सके। ऐश्वर्य कुछ काम न आ सकता तो मुझे मेरे हाल पर छोड़ दिया गया। बस मैं भी प्रभु से प्रार्थना करने लगा। अंततः जिसने मुझे जन्म दिया था, वही भगवान काम आया और मैं रोगमुक्त हो गया। बस तब से ही मैं उसके स्मरण, ध्यान और काम में लगा रहता हूँ। सेवा-पूजा के बाद बचे समय को असक्त, रोगी, असहाय, निर्बलों, अभावग्रस्तों की सेवा में लगाकर व्यतीत करता हूँ। राजा की आँखें खुलीं और सोचने लगा साधु की बात सच है। वह भगवान ही समर्थ हैं-सबकी सहायता कर पाने में।
अप्रैल, 1949 की अखण्ड ज्योति के अग्रलेख के कुछ अंश