संसार में सबसे गौरवास्पद वस्तु ‘बुद्धि’ है। बुद्धिबल की अधिकता से ही मनुष्य का बड़प्पन कूता जाता है। जब हम अपने प्राचीन इतिहास पर दृष्टिपात करते हैं तो हमें विद्यावानों की ईमानदारी की निर्मल झाँकी दिखती है। जो जितना ही ज्ञानसंपन्न बना है, वह उतना ही त्यागी भी बना है। ठीक है, जो वृक्ष फलों से जितना लदता है, वह उतना ही झुक जाता है। विद्या के भार से झुके हुए ब्राह्मण लोकसेवा के लिए अपना मस्तक झुका देते हैं और एक अकिंचन किंकर की तरह समाजहित के लिए जीवन व्यतीत करते हैं। ऋषियों का मुनियों, ब्राह्मणों का, ज्ञानियों का, विवेकवानों का जीवन सदा ही त्यागमय होता है। संग्रह को पाप समझना, केवल उतनी ही चीजें रखना जो तात्कालिक आवश्यकता के लिए बहुत जरूरी है, उनकी नीति रही है। पीपल वृक्ष के छोटे फलों को खाकर गुजारा करने वाले ऋषि का नाम पिप्पलाद पड़ जाता है। खेतों में गिरे दाने-कण-कण को बीनकर काम चलाने वाले महर्षि को ‘कणाद’ कहकर पुकारते हैं। एक बड़े साम्राज्य के महामंत्री होने पर भी महर्षि चाणक्य अपनी कुटिया में ही निवास करते हैं और ब्राह्मणोचित सादगी के साथ त्यागपूर्ण जीवन बिताते हैं।
विद्यावानों-ब्राह्मणों ने सदा से अपने लिए अपनी शक्तियों का न्यूनतम भाग खर्च किया है और शेष योग्यताओं को, बचे हुए सारे समय को जनता के लिए, देश के लिए समाज के लिए, धर्म के लिए, परमात्मा के लिए लगाया है। तभी तो यह भारतभूमि देवभूमि बन सकी थी। तभी तो वैदिक संस्कृति की ध्वजा आकाश में फहराती थी। तभी तो चक्रवर्ती आर्य साम्राज्य था, तभी तो हमारे घरों पर सोने के कलश रखे रहते थे और मोतियों के चौक पुरते थे। ब्राह्मणों के तप-त्याग का फल सारा राष्ट्र भोगता था।
उस स्वर्णयुग की धुरी थी-विद्यावान-विवेकवान ब्राह्मण। अमुक वंश में जन्म लेने मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं होता। हाँ, ब्राह्मण वही है, जिसके पास विद्या-बुद्धि की पूँजी है। तथाकथित विद्या के धनी आज कम नहीं हैं। हमारे कॉलेज, यूनीवर्सिटियां प्रतिवर्ष सहस्रों स्नातक तैयार करती है। सामाजिक-धार्मिक संस्थाओं व निजी अध्यवसाय प्रयत्नों से भी कितने ही मनुष्य बुद्धिबल प्राप्त करते हैं, परंतु विद्या के बदले प्राप्त हुआ मर्यादित धन, उन अमर्यादित तृष्णाओं और बढ़ी हुई आवश्यकताओं के मुकाबले में कम ही पड़ता है और वे अपने को गरीब अनुभव करते हैं। एक विडंबना यह भी कि जो अपनी प्रचंड तर्कशक्ति से लोगों को प्रभावित कर सकते थे, वे वकील बनकर गवाहों को मुवक्किलों को झूठे बयान लिखाने में अपनी चतुरता खर्च कर रहे हैं। जो डॉक्टर निरोग रहने के नियमों पर चलने के लिए रोगी को तैयार कर सकते थे, वे कहाँ आज अपने दायित्व पूरे कर पाते हैं? आज गुरु तो समाप्त हो गए, वेतनभोगी मास्टर रह गए हैं, जिनके स्टूडेण्ट उनके सामने ही मुँहजोरी करते रहते हैं। आयोद धौम्य जैसे गुरु ही नहीं तो गुरु की आज्ञा-पालन के लिए प्राणों की बाजी लगा देने वाले आरुणि और उपमन्यु जैसे छात्र कहाँ से आएँ?
दान पर जीवननिर्वाह करने वाले व्यक्तियों में से ऐसे लोकसेवक उँगली पर गिनने लायक मिलेंगे, जो दान प्राप्त करने के फलस्वरूप स्वभावतः कंधे पर आने वाली लोकसेवा की जिम्मेदारी को पूरा करते हैं। मुफ्त का माल और बिना का माल और बिना सेवा के सम्मान प्राप्त करने के फलस्वरूप उनमें नानाप्रकार के दोष-दुर्गुण उत्पन्न हो चल हैं। आलस्य, ठगी, याचकता की निर्लज्जता, अहंकार, मिथ्या-विश्वासों का प्रसार करके अपने लाभ की वृद्धि करना, नैतिकता का पतन, हीनता की भावना, दुर्व्यसन, दम्भ-पाखंड आदि से वे दिन-दिन अधिक ग्रस्त होते चले जा रहे हैं। ये दूसरों की पैतृकता को, मनुष्यता को ऊँचा उठाने में किस प्रकार समर्थ हो सकते हैं?
प्रलोभन से बचकर गुजारे मात्र से काम चलाना और शेष समय तथाशक्तियों को जनता-जनार्दन की सेवा में समर्पित कर देना, यही ब्राह्मणत्व का सच्चा आदर्श है। यह त्याग ही सच्चा तप है। तपस्वी ब्राह्मणों की इसी तपश्चर्या के फलस्वरूप सारा देश, सारा समाज सुख-संपन्नता का लाभ उठाता था जिनके हृदय में दया है, ब्राह्मणोचित तप-त्याग की भावना है, वही सच्चे अर्थों में ब्राह्मण हैं। ऐसे ब्राह्मणों को गायत्री का एकमात्र संदेश यही है कि-”बुद्धि संसार का सर्वश्रेष्ठ तत्व है। वह तुम्हारे पास ईश्वरीय अमानत के रूप में है। उसे शक्ति भर प्रयत्न के साथ जनता-जनार्दन में वितरण करो। तुच्छ स्वार्थों से ऊपर उठो, अपने कर्त्तव्यों का पालन करो, अज्ञान-दुःख से संतप्तों को दुखी बनाने के लिए सद्ज्ञान रूपी अमृत का वितरण करो।’