उस दिन आचार्य सुहस्ती का पदार्पण कौशांबी नगरी में हुआ था। स्थान की कमी के कारण आचार्य का शिष्य-समुदाय भिन्न-भिन्न स्थानों पर रुका। कौशांबी में उस समय भीषण दुष्काल की स्थिति थी। इनसान दाने-दाने के मोहताज हो गए थे। किसी को भी भरपेट भोजन प्राप्त करना दुष्कर हो गया था, परंतु ऐसी स्थिति में भी साधु-संतों के प्रति अत्यधिक भक्ति के कारण लोग अपनी आवश्यकताओं को दबाकर उन्हें यथेष्ट भिक्षा दे दिया करते थे।
कौशांबी पहुँचने के दो-तीन दिन बाद आचार्य सुहस्ती के शिष्य भिक्षा के लिए एक श्रेष्ठी के घर पहुँचे। उनके पीछे-पीछे एक भिखारी भी चल रहा था। उसने साधुजनों के पात्रों में श्रेष्ठी के द्वारा दी गयी स्वादिष्ट भोजन सामग्री को देखा। ये साधु भरपेट भोजन करने के बाद उपाश्रय को लौट रहे थे। अभी भी उनके पास कुछ भोजन साथ था। वह भिखारी भी उनके पीछे-पीछे चलने लगा। उसने इन साधुओं से अपनी क्षुधा की तीव्रता के कारण भोजन माँगा। साधु बोले-”गुरु के आदेश के बिना हम कोई कार्य नहीं कर सकते, अतः हमारे गृहीत आहार में से हम तुमको कुछ नहीं दे सकते।” साधुओं के साथ-साथ वह भिखारी भी उपाश्रय तक पीछे चला गया। आचार्य सुहस्ती से भिखारी हमसे भोजन की याचना करता है।”
महाप्रज्ञा सुहस्ती विशिष्ट ज्ञानी थे। उन्होंने भिखारी पर गहरी नजर डाली व अपने ज्ञानयोग से जाना कि यह दीनहीन दिखने वाला व्यक्ति भावी जन्मों में धर्मप्रधान शासन का अतिशय विस्तार करने वाला होगा और धर्म-संघ को भी अनूठा संबल प्रदान करेगा। अध्यात्मवेत्ता एवं परमकारुणिक आर्य सुहस्ती ने अपने मधुर स्वरों में उपस्थित दयापात्र रंक को संबोधित करते हुए कहा, “मुनि जीवन स्वीकार करने पर तुम्हें हम भोजन दे सकते हैं। साधु द्वारा याचित भोजन में से गृहस्थ को देना मर्यादा विहित नहीं है।”
घोर अन्नाभाव में मृत्यु का आलिंगन करने की अपेक्षा मुनि जीवन की कठोर संयमचर्या का पालन करना उस भिखारी को श्रेयस्कर लगा और वह मुनि बनने के लिए तत्काल संपूर्ण प्रगाढ़ता के साथ सहमत हो गया।
परोपकारपरायण आर्य सुहस्ती ने उसे दीक्षा दे दी। कई दिनों की भूख से बेहाल भिखारी को पहली बार पर्याप्त भोजन मिला था। उसको आहार-मर्यादा का विवेक नहीं रहा। मात्रा का अतिक्रमण करने के कारण जरूरत से अधिक आहार कर लेने के कारण श्वास-वायु का संचार करना कठिन हो गया और वह भिखारी अपने दीक्षा दिन की प्रथम रात्रि में ही काल-धर्म को प्राप्त हो गया। आर्य सुहस्ती ने उसके इस विशिष्ट भविष्य को पहले ही देख लिया था। वह भिखारी बना साधु काल-धर्म को प्राप्त होकर मगध सम्राट अशोक के पौत्र यानि कुणाल पुत्र संप्रति के रूप जन्मा।
राजकुमार संप्रति एक दिन राज-प्रसाद के वातायन में बैठा था। तभी उसने साधु वृंद से परिवृत्त आचार्य सुहस्ती को राजपथ पर चलते देखा। ध्यान से देखने पर आर्य सुहस्ती उसे अपने परिचित से लगे। विशेष ध्यान केंद्रित करने पर उसे अपना पूर्वजन्म स्पष्ट-सा होने लगा। इसी के साथ वह महल से नीचे उतरा और विनयपूर्वक वंदन करते हुए आचार्य से पूछा-”गुरुदेव! आपने मुझे पहचाना।” परमज्ञानी आर्य सुहस्ती ने उसकी ओर कुछ पलों तक गंभीर दृष्टि से देखा और सब कुछ सविस्तार बता दिया।
संप्रति ने प्रणत होकर निवेदन किया, “भगवन्! डस भिखारी के जन्म में यदि आप मुझे शरण में नहीं लेते तो आज मेरी क्या दशा होती? आप मेरे महाउपकारी हैं। पूर्वजन्म में आप मेरे गुरु के रूप में स्वीकार करता हूँ। मुझे आप अपना धर्मपुत्र मानकर कर्तव्यशिक्षा देकर अनुगृहीत करें और प्रसन्नमना मुझे किसी विशिष्ट कार्य का आदेश दें, जिसे संपादित कर मैं उऋण हो सकूँ।
संप्रति के इस कथन पर आचार्य सुहस्ती मुस्कराए, फिर कुछ पलों तक मौन रहने के बाद कहने लगे, “राजकुमार! अब तुमने स्वयं अपने अनुभव से जान लिया है कि धर्मधारणा और आध्यात्मिक उपासना-साधना का क्या महत्व एवं मूल्य है? इसके क्षणिक स्पर्श एवं एक लघु अंश को ग्रहण करके ही तुम भिखारी से राजा बन सके हो। अब तुम चारों ओर धर्म की ज्योति का प्रकाश फैलाओ, ताकि इसकी आभा एवं प्रकाश से सभी के जीवन का अँधेरा दूर हो सके।”
आचार्य सुहस्ती से यह बोधि प्राप्त कर संप्रति सम्यकत्व गुणधारी प्रभावी साधक बना तथा उसने धर्म की अनेकविधि सेवा की।