परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी- - परिष्कृत मनःस्थिति ही स्वर्ग है

April 1999

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(उत्तरार्द्ध)

एक बार भगवान बुद्ध से पूछा गया कि आपको तो मरने के बाद स्वर्ग मिलेगा? उन्होंने कहा-नहीं, मैं तो स्वर्ग जाने का अधिकारी तब होऊँगा, जब हर व्यक्ति स्वर्ग जाने का अधिकारी होगा, सब को सुख व शांति मिलेगी, सब सुखी होंगे, तब तक मैं अपनी बारी काटकर दूसरे व्यक्तियों को क्यू में लगाता रहूँगा। सबके बाद में ‘मैं’ अंतिम व्यक्ति होऊँगा और स्वर्ग जाने की ख्वाहिश करूंगा। जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक मैं लोगों को आगे बढ़ाता हुआ चला जाऊँगा। मित्रो! बुद्ध की वह मनोभूमि, ऋषि-मुनियों की वह मनोभूमि, जिसमें उन्होंने कहा है-

नत्वहम् कामये राज्यं न सौख्यं न पुनर्भवं। क्मये दुखतप्तानाँ प्राणिनाम आर्तनाषनम्॥

तात्पर्य यह कि प्राणियों का आर्त और प्राणियों का दुख निवारण करने के लिए यदि हमें मौका मिल जाता है तो यह हमारे लिए वरदान है और यही हमारा सौभाग्य है।

एक बार कुँती से भगवान कृष्ण ने कहा कि हे कुँती! वरदान माँग। मैं अब जा रहा हूँ। मैं तो भगवान हूँ, तू जानती है क्या? कुँती ने कहा-मैं जानती हूँ कि आप भगवान हैं। मैं आपसे एक ही वरदान माँगती हूँ कि मुझे कष्टसाध्य जीवन दें, गरीब लोगों वाला जीवन जिऊँ ताकि मैं जान सकूँ कि गरीबी क्या होती है? उनकी कठिनाइयाँ क्या होती हैं? उनके कष्ट क्या होते हैं? यह सब मैं समझ सकूँ, ताकि उनकी सहायता कर सकूँ।

मित्रो! स्वर्ग, मनुष्य के देखने और सोचने के ढंग में-तरीके में है। यह किसी जगह विषष का नाम नहीं है। कम-से-कम स्वर्गलोक के उस जगह का पता लगा लिया गया है। चंद्रमा के बारे में जानकारी प्राप्त कर ली गयी है कि कभी-कभी वह इतना गरम हो जाता है कि अगर कोई धातु रख दी जाय तो वह भी पिघल जाएगी। रात में चंद्रमा इतना अधिक ठंडा हो जाता है कि यदि कोई चीज रख दी जाय तो वह बर्फ बनकर जम जाएगी। ऐसा गरीब चंद्रमा-जहाँ न पानी है, न हवा, वहाँ अगर आपको भेज दिया जाय तो आप कहेंगे कि गुरुजी आपने हमें कहाँ भेज दिया। हमें वापस बुला लीजिए। लोग चंद्रमा पर गये हैं, लेकिन किसी की हिम्मत नहीं पड़ी कि वहाँ ठहर सकें। वे केवल चंद मिनट चक्कर काटकर वापस आ गये हैं। इसी तरह शुक्रग्रह का पता लगा लिया गया है कि वहाँ कोयले का भंडार है। कार्बन गैस भरी पड़ी है। वहाँ आप बिल्कुल जिंदा नहीं रह सकते, वहाँ आपका दम घुट जायेगा।

कुछ लोगों का विश्वास है कि भगवान के पास जाने से स्वर्ग मिलता है। क्या वास्तव में स्वर्ग है? किसी ने देखा है स्वर्ग को? किसी ने देखा हो या नहीं, लेकिन मित्रों! मैंने स्वर्ग को देखा है और मैं चाहता हूँ कि आपको भी स्वर्ग दिखाऊँ। भगवान के पास जाने से दो चीजें मिलती हैं-पहला-’स्वर्ग’, दूसरा-’मुक्ति’। परंतु स्वर्ग केवल देखने वाले तरीके का नाम है। आप चाहें तो अपने में स्वर्ग का प्रयोग कर सकते हैं आप कृपा करके उन लोगों का एहसान देखना व मानना शुरू कीजिए, जिनके बोझ से आपका शरीर लदा हुआ है। आप कृपा करके उस बूढ़ी माँ को देखिये। वह कृपा की देवी है, दया की देवी है, जिसने नौ महीने आपको अपने पेट में रखा, रक्त निचोड़ा, अपनी हड्डी गला दीं। अपना सारा-का-सारा माँस निचोड़ करके हमारा एक पिंड बनाया। जब यह पिंड असहाय था तब और जमीन पर आने के बाद भी वह अपने लाल रक्त को सफेद दूध के रूप में पिलाती रही।

जब कोई व्यक्ति किसी को पचास सी.सी. खून दान दे देता है, तो जन्म भर एहसान करता है और कहता है-जब मरने के लिए बैठे थे तब हमने आपको खून दिया था, बचाने के लिए। लेकिन मित्रों! जिसने हजारों सी.सी. रक्त आपको दूध के रूप में पिला दिया हो, उसके एहसान का क्या ठिकाना? काश! कभी आपने उस माँ को एहसान की दृष्टि से देखा होता तो आपको मालूम होता कि देवता और कहीं नहीं हैं, कहीं बाहर जाने की जरूरत नहीं है, देवता ‘माँ’ के रूप में आपके घर में ही है। क्या शारदा, सरस्वती को जानने की जरूरत है या लक्ष्मी को देखने के लिए आपको मुम्बई जाने की जरूरत है? नहीं, ‘माँ के रूप में’ लक्ष्मी आपके घर में बैठी हुई है। जहाँ आज हर आदमी मुआवजा चाहता है, बदला चाहता है वहाँ त्याग की देवी, तपश्चर्या की देवी, अनुदान की देवी-आपकी धर्मपत्नी अपने माता-पिता, भाई-बहिन, कुटुम्ब-परिवार को छोड़कर आती है और आपकी सेवा में दिन-रात लगी रहती है। आप जिस तरीके से उसे रखते रहे, वह उसी तरीके से रही और जीवनभर अपना सारा श्रम निचोड़ती रही। धर्मपत्नी अपना रूप और यौवन, अपनी भावनाएँ आपके ऊपर निचोड़ती रहती है, परंतु बदले में आपसे कुछ नहीं चाहती।

साथियों! त्याग और बलिदान का देवता आपके घर में बैठा है। उस त्याग और वरदान के देवता का नाम है-भगतसिंह। उस देवता का नाम है-महर्षि दधिचि। मित्रो! हमने महर्षि दधिचि के रूप में अपनी पत्नी को देखा है, जिन्होंने अपने जीवन का उत्सर्ग कर दिया मकसद के ऊपर। आपकी आँखों में ‘यदि कृतज्ञता के भाव आयें’, तब आपको यह करना होगा कि नारी के उत्थान के लिए आपको आगे आना होगा। आप जाते तो गायत्री माता के मंदिर में हैं, लेकिन औरत को लातों से मारते हैं। जब वह बेचारी दर्द व शर्म के मारे चिल्लाती है, तब आप उसके मुँह में कपड़ा ठूँस देते हैं। तब वह सिसक-सिसक कर रोती है। धिक्कार है ऐसे लोगों पर, जो ऐसे कुकर्म करते हैं। मन में यह भावना लेकर चले थे गायत्री माता को प्रसन्न करने, उनसे वरदान माँगने चले थे, ऐसे दुष्ट, पिशाच, नीच लोगों को धिक्कार है। ऐसे ही पापी लोग नरक में जाते हैं। ऐसे लोग जहाँ कहीं भी जाएँगे, नरक बना देंगे, घर में भी, बाहर भी वे लोग नरक बना देंगे। घर-बाहर, पृथ्वी-आकाश सारी जगह नरक बना देंगे। घर-बाहर, पृथ्वी-आकाश सारी जगह नरक ही विद्यमान रहेगा उनके लिए।

मित्रो! जो आँखें दुष्टता को देखती रहती हैं, दोष-दुर्गुणों को देखती हैं। जिनके भीतर कभी कोई संवेदना का भाव उत्पन्न नहीं होता। सारे जीवन में त्याग और सेवा के कृतज्ञता के भाव जब तक मनुष्य के जीवन में न आयें, तब तक स्वर्ग नहीं प्राप्त होता है। स्वर्ग अर्थात् कृतज्ञता के भाव। ये भाव जब जब हमारी आँखों व दिल में आ जाते हैं, तब हमें छोटी-छोटी चीजें देवता के रूप में दिखायी देती हैं। दूसरे लोग हमारे ऊपर हँसा करते हैं, कहते हैं ये हैं हिंदू। ये क्या पूजते हैं? पत्थर। ये क्या पूजते हैं? पीपल। ये क्या पूजते हैं? घूरा। बेवकूफ वे लोग हैं, नहीं, हम लोग उनसे ज्यादा बुद्धिमान हैं। महत्वपूर्ण यह है कि जिस जानदार या बेजान चीज ने हमारे ऊपर एहसान किया है, उनके चरणों पर हमारा मस्तक झुका रहता है। अगर वह बेजान है तो उससे हमें क्या मतलब। क्यों कि बेजान चक्की ही हमें अनाज पीस-पीसकर खिलाती है। जिस अन्न को हम ऐसे खा नहीं सकते थे, चबा नहीं सकते थे। उसको पीसकर हमारे खाने लायक बनाया। हमारे लिए पौष्टिक अन्न बनाया, जिसने हमारा पेट भरा? देवता चक्की नहीं, तो कौन है? जिसने बिना पारिश्रमिक माँगे अपना श्रम जारी रखा। हम उसकी पूजा न करें तो किसकी पूजा करें। वह पत्थर है अवश्य, लेकिन इनसानों से तो पत्थर अच्छा है। उन देवताओं से तो पत्थर अच्छा है, जो देवता बकरा खाने के बाद, भैंसा खाने के बाद इनसान की सहायता करने को तैयार हों। ऐसे दुष्ट कसाई देवताओं से अच्छा तो पत्थर देवता है, जो हमारे चक्की पीसने के काम में आ जाता है।

घूरा-जो कूड़ा का ढेर भरा हुआ पड़ा रहता है। जिसने गंदगी एक स्थान पर एकत्र कर ली और अपने आप को गला दिया। गलाने के बाद अपने आप को खाद बना डाला, जो कि खेतों में डाली जाती है। जिससे कि अन्न की पैदावार चावल, गेहूं, मक्का, जौ, फल, सब्जी आदि अधिक मात्रा में होते हैं अगर हम घूरे की पूजा नहीं करेंगे, तो किसकी पूजा करेंगे। ये बेजान घूरा है, बेजान चक्की है, पर हम तो बेजान नहीं हैं, हमें तो जान है। हर जानदार का फर्ज होता है कि जिन लोगों से हम सहायता लेते हैं और जिन लोगों की सेवाएँ प्राप्त की, उन सबके प्रति कृतज्ञता के भाव रखें। कृतज्ञता का भाव रखना मित्रों;केवल वैचारिक रूप से नहीं हो सकता। जिसके प्रति कृतज्ञता के भाव हैं, उसके प्रति कुछ प्रतिक्रिया-प्रतिध्वनि होती है। जैसे कुएं में जो आवाज देते हैं, उसकी प्रतिध्वनि होती है और वही आवाज गूँजकर हमें पुनः सुनायी देती है। यहाँ मथुरा में एक प्रसिद्ध जगह है। जिसे पोतराकुण्ड कहते हैं। यहाँ पंडे लोग अपने यजमानों को ले जाते हैं। वहाँ उनसे कहलवाते हैं कि- ‘यशोदा तेरा लाला जागै कि सोवै।’ इसमें अंतिम शब्द’ सौवे’ है। तालाब बहुत बड़ा है जिसमें से आवाज आती है ‘सोवै’। अगर ऐसे कह दे तो एक सेकेंड बाद जागै शब्द की प्रतिध्वनि आयेगी।

मित्रो! कृतज्ञता के भाव जो हमारे अंतरंग में जाकर के टकराते हैं, तो इस शरीर रूपी गुँबद से एक भाव उत्पन्न होता है, एक कल्पना उत्पन्न होती है, एक आकांक्षा होती है कि जिन लोगों ने हमें अनुदान दिये हैं, हमारी सेवा-सहायता की है, उन लोगों के प्रति हमारा कोई फर्ज नहीं है क्या? क्या उनके ऋणों से मुक्ति नहीं पायी जा सकती है? मनुष्य के मन में जिस दिन ये भाव उत्पन्न होते हैं, उस दिन उसे चारों ओर देवता दिखायी देते हैं। एक देवता वह अध्यापक दिखायी पड़ता है, जिसने प्राइमरी स्कूल में पढ़ाया था। जो रोज मुर्गा बनाता था और मार लगाता था, अगर मारता नहीं तो आज हम और आप गाय, भैंस, बैल चरा रहे होते। मारा तो क्या हुआ, मुर्गा बनाया तो क्या हुआ, पढ़ाया भी इसी तरीके से कि अच्छी डिवीजन आती रही और पास होता गया। धन्यवाद है उस गुरु को जिसने हमें पढ़ाया। कैसा प्यार भरा गुरु था वह जिसकी वजह से हमारे जीवन का सबसे स्वर्णिम समय बीता। छोटे-छोटे बालक, छोटे-छोटे स्कूलों में लम्बी-लम्बी जिंदगियाँ व्यतीत की, पर वैसा निर्मल और निश्चल प्रेम कहीं देखा हमने?

हमने आपको कोकाकोला पिला दिया और पान भी खिलाये, लेकिन इस खिलाने-पिलाने के पीछे भी एक चाल थी। आपकी बेटी की शादी है-साड़ी खरीद ले जाइये। कितने दाम की साड़ी है? अरे दाम का क्या सोचना, दाम तो बाद में भी मिल जाएँगे। आप साड़ी ले जाइये, अजी हमारे और आपके पिताजी दोस्त थे। कोकाकोला पिलाया था तब आपने मेरी जेब काट ली थी। हमने मित्रताएँ तो कर लीं, लेकिन स्वार्थ, छल-कपट और कामनाओं से भरी हुई। शतरंज की बिसात के तरीके से हमारी मित्रताएँ बनी रहीं। जब हमारा काम पूरा हुआ तो हमने इस तरीके से आंखें फेर लीं, जैसे पिंजरे से निकलने के बाद तोता फेर लेता है। मित्रता का अर्थ हमारे जीवन से चला गया और अन्तःकरण तलाश करता फिर रहा है कि हमें कोई मित्र मिल जाये। परंतु मित्र कहाँ से मिले? मित्र के बिना, सखा के बिना, साथी के बिना जीवन एकाकी प्रेत-पिशाच-सा मरघट में अकेले-अकेले बैठे रहते हैं, जिनका अपना कोई भी नहीं।

मित्रों! शिकार खेलने वाले जंगल-जंगल घूमते रहते हैं। जंगलों में रहने वाले जानते हैं कि एक्कड़ नाम का एक जानवर होता है। जो झुण्ड में से निकलकर अलग चला जाता है, वह एक्कड़ कहलाता है। एक्कड़ जानवर को हमेशा तलाश करता रहा। झुण्ड से बाहर कभी हिरन रहने लगता है, तो वह बड़ा ही खूँखार हो जाता है। जहाँ भी मौका मिलता है, सींग घुसेड़ देता है किसी भी जानवर में। एक्कड़ बड़ा ही भयानक होता है बड़ा ही खूँखार होता है, ऐसे ही अचानक हमला बोलता है। जंगल के सभी लोग जानते हैं कि इससे कैसे बचना चाहिए। इसी तरह जो व्यक्ति एक्कड़ के तरीके से रहते हैं, वे किसी को अपना सखा बना रहे हैं, किसी को मित्र बना रहे हैं, परंतु वस्तुतः उनका प्रेमी कोई भी नहीं। सब उनके लिए शतरंज की मोहरों के तरीके से हैं। जिनको यहाँ से उठाकर वहाँ रख देते हैं, जिससे गोटी लाल हो जाती है। अगर बात बन जाती है तो ठीक, अगर नहीं बनी तो उसको छोड़ देते हैं और दूसरी गोटी फिट करने की तिकड़म भिड़ाते रहते हैं।

मित्रों! हम याद करते हैं बचपन के उन लोगों की, जो कि ज्वार की रोटी लेकर आते थे और हम गेहूँ की रोटी ले जाया करते थे और आपस में मिल-बाँटकर खाते थे। ब्राह्मण, बनिया और नाई सभी साथ बैठे हुए खाते थे। तब न तो किसी को जाति का ध्यान था, न ही ऊँच-नीच का, कि कौन ब्राह्मण है, कौन बनिया है और कौन नाई है? बड़े हो गये तो जाति-बिरादरी के हमारे सामाजिक बंधनों से हमारा जीवन नष्ट-भ्रष्ट हो गया। बचपन में हमने नाई के लड़के के साथ जो रोटियाँ खायी थीं, याद आता है वह निश्चल प्रेम, कृतज्ञता का भावभरा जीवन। मित्रो, आकाँक्षा उत्पन्न होती है और निश्चल प्रेम याद आता है। मन करता है कि वैसा ही प्रेम भरा जीवन दुबारा मिल जाये। ऐसा मालूम होता है कि यह खूबसूरत दुनिया जो न जाने कितने हीरे-जवाहरातों से बनायी गयी है। छोटे बालक और अध्यापक जब याद आते है;जब हमको अपनी माँ याद आती है, जो हमको गोद में लिए फिरा करती थी, तब मालूम पड़ता है कि दुनिया कितनी खूबसूरत, प्यार से, आनन्द और उल्लास से भरी हुई है। हमको जब समाज का ज्ञान आता है तो मालूम पड़ता है कि न जाने हम कितने लोगों से शिक्षण पाते हुए चले गये। इतने लोग अपना ज्ञान हमारे पास रख गये।

मित्रों! आप एक गीता खरीद करके ले आते हैं, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण की लीला का ज्ञान, जो अर्जुन को मिला था, पढ़ते हैं। धन्य है वह गीता, धन्य हैं-प्रेस वाले, धन्य है वह छापाखाना वाला धन्य है वह कागज बनाने वाला टाटा मिल, जो कागज के रिम बनाता हुआ चला गया। धन्य है वह, जिसने छापने की मशीनें बनायी, जिससे हमें ढाई आने की गीता पढ़ने को मिल गयी। धन्यवाद उन सब लोगों को जिनने इतना बेहतरीन काम किया, जिसकी वजह से गीता जैसी पवित्र व धार्मिक पुस्तक पढ़ने को मिल गयी। गहराई से सोचता हूँ तो पता चलता है कि दुनिया में कितने बेहतरीन और खूबसूरत लोग रहते हैं हमको इन सबसे एक ही बात समझ में आती है कि दुनिया में चारों तरफ प्रेम और सौहार्द्र बिखरा हुआ है। मित्रो, यही अमृत है और इसकी लहरों में आप उड़ते हुए और सरकते हुए चल सकते हैं। स्वर्ग है मक्के की रोटी में, स्वर्ग है फटे कपड़ों में, स्वर्ग है गरीबी में। रेशमी वस्त्र तो अंगारे के समान लगते हैं। मिठाइयाँ जो आप मजे से स्वाद ले लेकर खाते हैं, उसमें जहर भरा हुआ है-पोटेशियम सायनाइड भरा हुआ है, जो कि आपका पेट फाड़ देगा। इसलिए आपने जो आकाँक्षा भौतिकता के रूप में गाड़ रखी है कि मकान आपको मिल जाएगा, चीजें आपको मिल जाएँगी तो आपको सुख-शांति मिल जाएगी-व्यर्थ है।

मित्रों! इससे आपके भीतर आकाँक्षाएँ, तृष्णाएँ बढ़ती हुई चली जाती हैं कि अमुक चीज हमारे पास कम है और यह चीज हमको चाहिए। परंतु उनका उपयोग करना हमको कहाँ आता है? फिर भी उसको हम जोड़ना शुरू कर देते हैं। उसे जोड़ते हुए मुसीबतें हमारे पास आती हैं। बच्चे कहते हैं माँ जी हमको यह चीज दोगी? कहती है नहीं। यह तो जमा करके रखा जाएगा। बहुत मुनाफा कमाया जाएगा। हमें वह कहानी याद आती है कि मधुमक्खी शहद जमा करती रही। एक दिन बंदर आया और छत्ता तोड़ करके चला गया। सारा-का-सारा शहद गिर पड़ा और सारी मक्खियाँ उसमें चिपककर मर गयी। हमको जितना लाभ मिलता है, उसका हमको सदुपयोग करना आता है क्या? नहीं, हमको धन का सदुपयोग करना आता नहीं। हमको इतना सुँदरशरीर मिला है, उसका प्रयोग करना, उपयोग करना आता है क्या? नहीं। हमको इतना अच्छा स्वास्थ्य मिला हुआ है, उसका हमने सही उपयोग किया नहीं, फिर हम किस मुँह से ईश्वर के पास माँगने के लिए जाते हैं कि हमारा अच्छा स्वास्थ्य बना दीजिए। आपको जो धन मिला है, उसका क्या आपने सही कामों में उपयोग किया? नहीं। फिर आप किस मुँह से भगवान के पास धन माँगने के लिए जाते हैं।

साथियों, आपको जो बुद्धि मिली है उसका आपने सही इस्तेमाल किया? नहीं फिर आप भगवान से बार-बार क्यों माँगते हैं? आपको इतनी विद्याबुद्धि मिली हुई थी कि आप दुनिया में शांति की धारा बहाते, उसको खूबसूरत बनाते, लेकिन आप तो संग्रह करने में लगे थे। जमा करने की बात सोचते रहे, स्वामी बनने की बात सोचते रहे, लेकिन आपके मन में उपयोग की बातें कहाँ आयीं? यदि उपयोग की बातें आपके मन में आतीं तो आप सोचते कि जितना आपको मिला है वह पर्याप्त है, बहुत है। अगर आप इन सबका अच्छी तरह से प्रयोग कर सके होते तो हम सोचते कि जितना भी आपके पास जो विद्या है, स्वास्थ्य है, जो धन है, इतने से ही सदुपयोग करके आप स्नेह-सौहार्द्र की धाराएँ बहा सकते हैं। फिर आनंद, उल्लास और संतोष आपके चारों ओर उमड़ता हुआ चला जा सकता है। कृतज्ञता आपके मन में उमड़ती हुई चली जा सकती है। पर इस्तेमाल करना हमको कहाँ आया?

मित्रों! उस स्वर्ग की कल्पना करना व्यर्थ है, जो कि मरने के बाद मिलता है। क्योंकि आपको यदि स्वर्ग भेज दिया जाए तो थोड़े ही दिनों में आप स्वर्ग को भी नरक बना देंगे। अपने देश के प्रमुख नेता काहिरा मिश्र के एक होटल में ठहराये गये थे। वहाँ का खाना उनको पसंद नहीं आया, तो उन्होंने नौकर से कहा कि स्टोव पर चाय बना दे तथा खाना पका दे। स्टोव के धुएँ से कमरे की एक-दो दीवार काली हो गयीं, तो उस होटल के मैनेजर ने कहा कि आपने हमारे कमरे की दीवारें गंदी कर दीं। उसने लंबा-चौड़ा बिल बनाकर उन नेता जी के पास भेजा और वह बिल उनको चुकाना पड़ा। यदि हम स्वर्ग नाम के स्थान पर जाएँ तो वहाँ भी चारों तरफ गंदगी फैला देंगे और वही जगह थोड़े दिनों बाद नरक जैसी लगेगी। वहाँ कूड़े का ढेर लग जाएगा, लोग गाँजा, चरस-शराब आदि का सेवन भी करेंगे। ये लोग कौन आ गये? ये भक्त आ गये, गायत्री स्तवन करने वाले आ गये। यहाँ लोग मंदिर के पीछे शौचालय की दीवारों पर पेशाब करते हैं। बुरे व गंदे लोग जहाँ भी जाते हैं, वहाँ स्वर्ग को भी नरक बना देते हैं।

कभी-कभी हमें अकेले देहरादून एक्सप्रेस से हरिद्वार जाना पड़ता है। ट्रेन की प्लेटों पर लिखा रहता है ‘बम्बई से देहरादून’ और जब हरिद्वार से मथुरा आना होता है ‘देहरादून से बम्बई’। इसका कारण जब हमने स्टेशन मास्टर से पूछा- तो उन्होंने बताया कि ये इन प्लेटों पर दोनों तरफ लिखा होता है। जब ट्रेन वापस जाती है तो प्लेटें पलट दी जाती हैं। विकृत दृष्टिकोण वाले लोगों को यदि स्वर्ग भेज दिया जाये तो थोड़े ही दिनों में वहाँ की पेंटिंग को भी बदल दिया जाएगा वहाँ का साइनबोर्ड बदल दिया जाएगा कि यह है-नरक । अच्छे दृष्टिकोण वाले लोग चाहे वे गरीबी में रहें, चाहे केवल मक्के की रोटी खाकर जीवित रहें, किसी भी तरीके से रहें, लेकिन वे लोग हर स्थिति में थोड़े ही दिनों में स्वर्ग पैदा कर सकते हैं।

एक संत इमरसन हुए हैं, जिन्होंने अँग्रेजी भाषा में आध्यात्मिक जीवन के ऊपर बहुत-सी किताबें लिखी हैं-उनका एक मंत्र है कि “मुझे नरक में भेज दो मैं उसे स्वर्ग बना दूँगा”। उनकी हर किताब के पहले पन्ने पर यही लिखा रहता है। किताब पहले पन्ने से शुरू होती है और हर किताब के पहले पन्ने पर लिखा है कि स्वर्ग कहीं होता नहीं है, बनाया जाता है, निर्मित किया जाता है। वह मनुष्य की आँखों में रहता है, भावनाओं में रहता है, अंतःकरण में रहता है। आध्यात्मिकता का अंतिम परिणाम यही है। मित्रों! स्वर्ग है-विचार करने का सही तरीका और चीजों का देखने का सही दृष्टिकोण। इसी का अँग्रेजी नाम है-फिलॉसफी और हिंदी में दर्शन। यदि दुनिया को सही ढंग से देखना शुरू करें, नये ढंग के साथ सोचना आरीं करें तो न जाने क्या देखने को मिलेगा और आप आगे बढ़ते हुए, ऊँचे उठते हुए चले जाएँगे। यही है ईश्वर को प्राप्त करने का, रिश्ता मजबूत बनाने का सीधा व सरल मार्ग। आज की बात समाप्त।


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