आत्महत्या (Kahani)

April 1999

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महर्षि रमण के आश्रम के समीपवर्ती गाँव में एक अध्यापक रहते थे। एक बार अपने कौटुम्बिक जीवन से अत्याधिक क्षुब्ध होकर आत्महत्या करने की बात सोचने लगे। किसी निर्णय पर पहुँचने से पहले उन्होंने महर्षि की सम्मति जाननी चाही और पहुँच गए उनके आश्रम। महर्षि रमण आश्रमवासियों के भोजन के लिए पत्तलें बना रहे थे। दिव्यद्रष्टा ऋषि ने अध्यापक महोदय के आने का अभिप्राय समझ लिया था। प्रणाम करने के उपराँत अध्यापक बोले-भगवन्! आप इन पत्तलों को इतने परिश्रम के साथ बना रहे हैं और आश्रमवासी इनमें खाना खाकर फेंक देंगे।

महर्षि मुसकराते हुये बोले-सो तो ठीक है, वस्तु का पूर्ण उपयोग हो जाने पर उसे फेंक देना बुरा नहीं, बुरा तो तब है जब उसे अच्छी अवस्था में ही खराब करके फेंक दिया जाए। अध्यापक महोदय को महर्षि का मर्मस्पर्शी अभिप्राय समझ में आ गया और उन्होंने आत्महत्या करने का इरादा छोड़ दिया।

धनपति का जितना धन बढ़ता जाता, वह उतना ही अधिक कंजूस होता। उसकी कंजूसी में परिवार के लोग भी सहयोग करते। धनपति का इकलौता बेटा बीमार पड़ा, तो वैद्य-डॉक्टरों पर उसके रोग का कोई निदान न हो सका। गाँव के समझदार लोगों ने सेठ को सलाह दी कि वह दान-पुण्य करें, तो शायद लड़का ठीक हो जाए। गाँव के पुरोहित ने उसे गुप्तदान करने की बात कही। जिससे प्रदर्शन भी न हो और अहं को भी प्रोत्साहन न मिले। सेठजी की पत्नी ने गाँव की बूढ़ी ब्राह्मणी को अनाज में कुछ सोना छिपाकर दे दिया। ब्राह्मणी सहज भाव से पोटली बाँधकर घर को जाने लगी। इतने में सेठ ने सोचा कि अब दान तो हो ही गया। उसने अपना नौकर भेजकर वह अनाज दूगनी राशि देकर खरीद लेने को कहा।

बेचारी बुढ़िया को क्या पता था कि इसमें अनाज में कुछ स्वर्ण मुद्राएँ भी हो सकती हैं। उसने दूने पैसों के लालच में वह अनाज नौकर के हाथों बेच दिया, नौकर ने सेठ के पास जाकर जमा करा दिया। इस तरह दान की औपचारिकता कंजूस धनपति द्वारा पूरी कर दी गई। कृपणता यदि वृत्ति में बनी रहेगी, तो किसी भले कृत्य के लिए उत्साह बन पड़ना संभव नहीं है।


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