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April 1999

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बुझता हुआ दीपक पूरी लौ उठाता है। रात्रि के अंतिम चरण में अँधेरा सबसे अधिक गहरा होता है। हारता जुआरी दूना दुस्साहस दिखाता है। ‘मरता क्या न करता’ वाली उथ्कत ऐसे ही समय पर चरितार्थ होती है। वैसा ही इन दिनों ीी हो रहा है। नीति और अनीति के बीच इन दिनों घमासान युद्ध हो रहा है। कुहराम और धकापेल का ऐसा माहौल है, जिसमें सूझ नहीं पड़ता कि आखिर हो क्या रहा है? इस आँखमिचौनी में, धूप-छाँव में किसे पता चल रहा है कि हो क्या रहा है? कौन जीता और हार कौन रहा है? इतने पर भी जो अदृश्य को देख सकते हैं, वे सुनिश्चित आधारों के सहारे विश्वास करते हैं कि सृजन ही जीतेगा। विजय सत्य की ही होनी है। उज्ज्वल भविष्य का दिनमान उदय होकर ही रहना है और आँखों को धोखे में डालने वाला तम सुनिश्चित रूप से मिटना है।-

पं. श्रीराम शर्मा आचार्य (वांग्मय ग्रंथ क्र. 29, पृष्ठ, 1.98)


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