एक गाँव में एक नास्तिक रहता था ओर एक महान आस्तिक भी। सारा गाँव उससे परेशान था, क्योंकि वह नास्तिक अपने तर्क प्रस्तुत करता कि ईश्वर नहीं है।, तो लोग कहते यह ठीक है लेकिन आस्तिक उसके तर्कों की धज्जियाँ उड़ाकर रख देता और ऐसे ऐसे तर्क, तथ्य, प्रमाण प्रस्तुत करता कि जिससे लगता कि कण कण में भगवान व्याप्त है। उनके बिना पत्ता भी नहीं हिलता। गांव के लोग कहते कि यह भी ठीक है। किसी एक निश्चय पर पहुँचने के लिए गाँव के लोगों ने दोनों में वाद विवाद प्रतियोगिता का आयोजन किया। वाद -विवाद, खंडन–मंडन रात भर चला।एक दूसरे ने बढ़–चढ़कर तर्क प्रस्तुत किये। परिणाम बड़ा चमत्कारी निकला। सुबह होते होते घोर नास्तिक आस्तिक हो चुका था। किन्तु गाँव वालों की परेशानी ज्यों की त्यों बनी रही। संसार में न जाने कब से ईश्वर के संबंध में परस्पर विरोधी बातें कही जाती रही है। लोग वाद विवाद शास्त्रार्थ के वितंडावाद में उलझे रहते है। किन्तु विवेकशील, बुद्धिमान ओर चतुर वे है, जो इस प्रकार के बहस विवादों में नहीं उलझते और सतत् रचनात्मक चिंतन और कार्यों में लगे रहते है।
कुछ समय पहले वृन्दावन एक परमसिद्ध महात्मा थे। नाम तो उनका था-महात्मा रामदास, परन्तु वे लकड़ी की लँगोटी धारण करते थे। इसी कारण काठिया बाबा के नाम से प्रसिद्ध थे।
काठिया बाबा ने अपनी सफलता का वर्णन इन शब्दों में किया-विद्या पाने के बाद मैं गुरु के पास से अपने घर वापस आया तब सर्वप्रथम मुझे गायत्री मंत्र सिद्ध करने की इच्छा हुई। हमारे बगीचे के पास एक वट का वृक्ष था। उसी के नीचे शापोद्धार कवच आदि विधि विधान के साथ गायत्री मंत्र का जप, अनुष्ठान आरम्भ किया। 75 हजार मंत्र जप करने के बाद आकाशवाणी हुई-बेटा! शेष जप ज्वालामुखी जाकर कर तुझे सिद्धि मिलेगी। आकाशवाणी के स्वाभाविक ही मुझ पर उल्लास उमड़ा। आनन्दित भाव से मैं ज्वालामुखी की ओर चला, साथ में मेरा समवय भतीजा था। हमारे यहाँ से ज्वालामुखी 35 -40 मील दूर थी। मार्ग में मुझे एक तेज पुँज महात्मा मिले। उनके प्रति मेरे मन में आकर्षण हुआ और मैंने उनसे वैराग्य की दीक्षा ली, दीक्षा लेने से मेरे भतीजे ने मना किया, मैंने उसकी नहीं मानी। तब वह लौटकर गाँव गया और पिता जी को ले आया। मुझे संन्यासी देखकर पिता जी दुखी हुए। वे मुझे पुनः संसारी बनने का आग्रह करने लगे। डराया भी, जब उनके सारे प्रयास विफल हो गये तब वे मुझे मेरे गुरु से कहकर गाँव ले गये। वहाँ वृक्ष के नीचे मैंने आसन लगाया और साधना शुरू की। रात्रि में आकाश मण्डल को भेदकर गायत्री देवी प्रकट हुई और बोली वत्स! मैं तुझ पर प्रसन्न हूँ वर माँग। मैंने साष्टाँग प्रणाम कर कहा माँ! मैं तेरा वैराग्य ले चुका हूँ, अब कोई कामना नहीं। बस आप प्रसन्न रहे यही विनम्र प्रार्थना है ‘एवमस्तु ‘कहकर देवी अंतर्ध्यान हो गयी। गायत्री की सिद्धि प्राप्त कर लेने पर काठिया बाबा को कुछ पाना बाकी न रहा वे आप्तकाम हो गये, उन्हें दूर दृष्टि प्राप्त हो गयी थी। द्रव्य का अभाव उनके यहाँ कभी नहीं रहा। उनकी लकड़ी की लँगोटी को देख कर सभी लोग आश्चर्य में डूब जाते थे। सेवक लोग समझते थे कि बाबा जी ने सोने की मोहरें इकट्ठी की है, उन्हें छिपाने के लिए यह लकड़ी की लँगोटी बनवायी है।लोभ लालच में पड़कर उनके सेवकों ने उन्हें तीन बार दो -दो तोला जहर दिया, तब भी उन पर विशेष असर उस जहर का न हुआ। तब लोगों ने उनकी शक्ति का अनुभव किया। उनका आत्मतेज प्रचण्ड था, उनके सामने पहुँचने वाला अभिभूत हो जाता था।