अपनों से अपनी बात- - वरिष्ठों-विशिष्टों से इस प्रतिकूल वेला में विशेष अपेक्षाएँ

April 1999

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इतिहास की चाल बड़ी विलक्षण है। कभी-कभी ऐसा समय आता है कि तनिक से प्रयास से भी बड़े लाभ उठाने का अवसर लॉटरी खुलने की तरह हाथ लग पड़ता है। कभी ऐसा विलक्षण प्रवाह बहता है कि मानवी प्रयास-पुरुषार्थों का कोई मूल्य-महत्व नहीं रह जाता और परिस्थितियों का तूफानी अंधड़ ही सब कुछ उलट-पुलट कर रख देता है। समय की अपनी अनगढ़ता ऐसी विचित्र होती है, जिसमें ज्वार-भाटे जैसे उफान मनुष्यों की इच्छा और चेष्टा को ताक पर उठाकर रख देते हैं। आज की परिस्थितियों में यदि किसी को कालज्ञान की दूरदर्शिता मिली हो तो उसे यह समझने में तनिक भी कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि व्यक्तिगत भाग्योदय की तथा इतिहास-प्रवाह के अनुकूल होने की दृष्टि से यह समय ऐसा है जो अतिविशिष्ट है एवं इसका लाभ उठाया ही जाना चाहिए। जो इसे चूकेंगे, वे पछतायेंगे। समय मनुष्य की इच्छा या चेष्टा की प्रतीक्षा नहीं करता। वह आता है और बिजली की तरह कौंधकर अपना प्रभाव व प्रकाश दिखाकर चला जाता है। जो उसे पहचानते हैं, वे उसका सदुपयोग कर लेते हैं। दीर्घसूत्री-प्रमादी सदैव घाटे में ही रहते हैं, उन्हें अनंतकाल तक पछताना ही होता है।

साधारण समय और विशेष समय में, साधारण व्यक्ति और विशेष व्यक्ति में एक विशिष्ट अंतर होता है। साधारण की चाल धीमी होती है और विशिष्ट की तत्काल निर्णय लेने से लेकर सुनिश्चित प्रगति की दिशा में कदम उठाने तक की प्रक्रिया से जुड़ी होती है। धीरे-धीरे सोचने-विचारने, अनुकूल अवसर ढूंढ़ने, साथियों की सलाह मशविरा करने की बातें सोचने में ढेरों समय व्यर्थ चला जाता है और जो उत्कृष्टता का पक्षधर उत्साह उठा था, वह समय बीतते-बीतते ठंडा ही नहीं, समाप्त भी हो जाता है। असंख्यों तथाकथित सृजनात्मक दिशा में विचार करने वालों की आदर्शवादी योजनाएँ इसी प्रकार मटियामेट भी हुई हैं। इसके विपरीत जिन-जिन ने भी समय को पहचानने में अपनी तीखी सूझबूझ का परिचय दिया है, विजयश्री उनके हाथ लगी है। वे बिजली की तरह चमकते और तलवार की तरह टूट पड़ने का पुरुषार्थ करते रहे हैं। असमंजस उनके आड़े नहीं आया है। व्यापारी जैसा हानि-लाभ का हिसाब-किताब लगाने पर क्या मिलेगा, यदि यह किया जाए, ऐसी घट-जोड़ की फुरसत न उनके पास होती है, न वे ऐसी नीति को लेकर ही इस धरती पर आते हैं। उन्हें तो उदीयमान साहसियों की ही नीति अपनानी पड़ी है एवं इतिहास साक्षी है कि संसार के सारे महत्वपूर्ण परिवर्तन उसी वज्रप्रहार जैसी भावभरी साहसिकता के साथ ही संपन्न हुए हैं।

प्रस्तुत चर्चा युगसंधि की वेला में जिसे विशेष समय माना गया है, विशिष्ट व्यक्तियों, की विशिष्ट भूमिका को लेकर हो रही है। युग बदल रहा है एवं सारी धरती का भाग्य नए सिरे से लिखा जा रहा है। यदि इसे भली-भाँति समझ लिया गया है तो यह भी कहना और मानना चाहिए कि यह कार्य विशिष्टों-वरिष्ठों की अपनी निजी दिशाधारा बदलने के साथ ही आरीं होगा। इन्हीं को ‘प्रतिभा’ भी कहा गया। प्रतिभाएँ आगे बढ़ती हैं, तो ही अनुयायियों की कतार पीछे चलती है। प्रतिभाओं को दूसरे शब्दों में अंधड़ भी कहा जा सकता है। उनका वेग जिस दिशा में, जिस तेजी से बढ़ता है, उसी अनुपात से तिनकों-पत्तों से लेकर छप्परों और वृक्षों को उड़ते-लुढ़कते, भयंकर उत्पात मचाते देखा जाता है। जब भी जमाना गिरता या उठता है, पतनोन्मुख परिस्थितियाँ पैदा होती हैं विभीषिकाओं का दौर आता है एवं उनसे जूझने हेतु माहौल बनता है, तो सारा दायित्व उस समयविशेष की अग्रगामी प्रतिभाओं के सिर पर ही लदता है। उनका अग्रगमन असंख्यों में प्राण फूँकता है। उनका हाथ-पर-हाथ रखे बैठे रहना, कुछ न कर पाने की विवशता जाहिर करना समय का सबसे बड़ा दुर्भाग्य सिद्ध होता है। वे उठते हैं, तो आँधी के चक्रवाती आँदोलन जन्म लेने लगते हैं-अनेकों का सामान्य समझे जाने वाले व्यक्तियों का मनोबल भी उछलकर उनसे कुछ असामान्य करा लेता है। वे गिरते हैं तो आलों की तरह समूची फसल को सफाचट करके रख देते हैं। जो चुप बैठे रहते हैं, वे न तो शांतिप्रिय ही कहलाते हैं, न निरपेक्ष, न निरासक्त, न योगी। उन्हें आपत्तिकाल की यातनाएँ कभी क्षमा नहीं कर सकतीं।

प्रस्तुत समय आपत्तिकाल के रूप में बताया गया है एवं इसमें आपत्तिधर्म का ही पालन हर वरिष्ठ-विशिष्ट, प्रतिभाशाली वर्ग के द्वारा किया ही जाना चाहिए। वरिष्ठ वे, विशिष्ट वे जो अपनी समस्या का आप समाधान तो कर सकें ही, साथ ही बचे हुए पराक्रम का उपयोग दूसरों को उबारने में कर सकें। उस मांझी की तरह पुरुषार्थ कर सकें, जिसकी मांसपेशियां चप्पू को दोनों हाथों से पकड़ती हैं और नाव पर लदे हुओं को पार उतारने का विश्वासभरा अभयदान देती हैं। नदी के उस पार भीड़ खड़ी है, जिसे माँझी के रूप में एक देवदूत नजर आता है जो तूफान में भी उनको उस

परीक्षा की घड़ियाँ समीप आ पहुँची-सँभलने का अवसर है यह

पार पहुँचाने की सामर्थ्य रखता है। अतः माँझी स्तर की वरिष्ठता को विशिष्ट माना गया है, विशेषतः इस आपत्तिकाल में जहाँ भीड़ को समझ में नहीं आ रहा कि कैसे उस पार पहुँचा जाए।

प्रस्तुत प्रखर साधना वर्ष, जिस विषम वेला में आरंभ हो एक युग-पुरुषार्थ के रूप में सारे भारत व विश्व में संपन्न हो रहा है, वह कितनी असाधारण स्तर की है, इसे समझने में किसी को भी कुछ कठिनाई नहीं होनी चाहिए। प्रस्तुत युगसाधना न केवल दैवीविभीषिकाओं से निपटने के लिए युगऋषि द्वारा प्रस्तुत एक सामूहिक उपचार के रूप में संपन्न हो रही है, इसका एक विशिष्ट लक्ष्य है-वरिष्ठों में, जागृतात्माओं में वासंती पुलकन का संचार कर उनसे कुछ विशिष्ट, विशेषज्ञों के स्तर के कार्य संपन्न करा लेना, ताकि उज्ज्वल भविष्य से भरे इक्कीसवीं सदी (हिंदू पंचाँग के अनुसार युगाब्द बावनवी सदी) के समाज की मजबूत नींव रखी जा सके। अखंड-ज्योति परिजनों का समुदाय-प्रज्ञापरिवार युगसृजन के निमित्त जुटे अग्रगामी मूर्धन्य लोगों का एक सुसंस्कारी परिकर है। उसे युगचुनौती स्वीकार करनी ही होगी। किसी को भी यह सोचने का अवकाश नहीं होना चाहिए कि उसका वैभव कैसे बढ़े-कुटुम्ब कैसे फले-फूले, समृद्धि कैसे आए। आज न पदवीधारी बनने की आवश्यकता है, न बड़े आदमियों में, संपन्नों में गिनती किये जाने वालों की श्रेणी में आने के लिए चित्र-विचित्र उछल-कूद करने की। ओछे-बचकाने लोग ऐसी हरकतें करते तो कोई बात नहीं थीं, पर वरिष्ठों पर हेय स्तर का अवसाद चढ़ दौड़े तो यह तो विशिष्टता पर लगा एक कलंक ही कहा जाएगा।

मंजिल जब सामने हो-गुरुसत्ता द्वारा दिखा गया लक्ष्य सामने दिखाई पड़ रहा हो, संधिकाल का युगप्रभात अपने स्वर्णिम आगमन के शुभ संकेत दे रहा हो तो हम सभी का, जो परमपूज्य गुरुदेव द्वारा आरंभ किये गए गायत्री परिवार रूपी काफिले के एक सदस्य हैं, एक ही दायित्व है कि अपनी निष्ठा-अपनी विशिष्टता का गौरव बनाए रखें एवं वही करें जो इस समय की आवश्यकता है। बारहवर्षीय युगसंधि महापुरश्चरण अब अपने अंतिम चरण में आ पहुँचा। जब भी ऐसे शुभकार्य अपने समापन की वेला में पहुँचते हैं, कुछ अभूतपूर्व पुरुषार्थ बड़े विराट व्यापक स्तर पर होना होता है, तब आसुरी सत्ताएँ भी विघ्न डालने में चूकती नहीं। यह युग-युग का इतिहास बताता है कि श्रेष्ठताओं से भरा समय ऐसे ही आसानी से नहीं आ गया। अवतारी महाशक्तियों तक को जब जूझना पड़ा है, अवरोधों से टकराना पड़ा है तो हम तो उस महाकाल की सत्ता के एक अंग-अवयव होने के नाते यह तो अपेक्षा रख ही सकते हैं कि उसका दशांश हमें भी झेलना पड़ सकता है। प्रस्तुत समय कुछ ऐसा ही है, जब मानवी दुर्बुद्धि क्या कुछ कर गुजरेगी, कुछ कहा नहीं जा सकता। अच्छे-अच्छों की ऐसे अवसरों पर बुद्धि पलटती देखी जाती है। भगवान कृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में कहा भी तो है कि मनुष्य अपने मन, वाणी और तन से शास्त्रानुकूल अथवा विपरीत जो कुछ भी कर्म करता है, उसके प्रमुख कारणों में पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मों के संस्कारों का परिपाक ही है, जिसे ‘दैव’ कहते हैं। ऐसे में कर्म सिद्धि तभी प्राप्त हो सकती है जब हम अपने आपको ईश्वरीय सत्ता-गुरुसत्ता के हाथों में निष्कामभाव से सौंप दें। अठारहवें अध्याय में सहजकर्म-नियतकर्म-स्व-धर्म-स्व-भावकर्म की व्याख्या के पश्चात वे अंत में कहते हैं कि “संपूर्ण कर्तव्य कर्मों को त्यागकर केवल मुझ एक सर्वशक्तिमान सर्वाधार परमेश्वर की शरण में आ जा। मैं तुझे संपूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा। तू शोक मत कर।” यदि हम गीता के इस मर्म को समझ सकें तो हमारे मुँह से अर्जुन की तरह निष्कर्ष रूप में एक ही वाक्य निकलेगा-स्थ्तिऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव (मैं संशयरहित होकर वही करूंगा, तो आपकी आज्ञा होगी)।

कोई भी विघ्न, चिंतन की विकृति, महत्वाकाँक्षा, आसुरी सत्ताओं द्वारा फैलाया गया दुष्प्रचार अब हमें लक्ष्य-प्राप्ति से रोक नहीं सकता, यह विश्वास इस साधनावर्ष में प्रतिफल-प्रतिक्षण दृढ़ करते रहा जाना चाहिए। बड़े-बड़े आयोजनों की होड़ समाप्त होने के बाद अब साधना की धुरी पर संगठन को सशक्त बनाने, अपने आपको प्रतिकूल समय के लिए सभी मोर्चों पर तैयार करने के लिए ही यह एक वर्ष की पूरी साधना का क्रम निर्धारित किया गया है। राष्ट्र ही नहीं, विश्व के कोने-कोने में, चप्पे-चप्पे में आस्तिकता के संस्कारों की नर्सरी उगानी-बढ़ानी व संभावित आक्रमणों से उसकी रक्षा करनी है। गायत्री, यज्ञ एवं संस्कारों की त्रिवेणी में

स्नान कर यह विश्व-वसुधा इक्कीसवीं सदी में प्रवेश करे भी तो उज्ज्वल भविष्य का सवेरा निश्चित ही देख सकेगी। इसी के लिए हर कार्यकर्ता को एक ही लक्ष्य दिया गया है, आत्म-साधना जीवनसाधना-अपने आपको एक अनुशासित साधक के रूप में विकसित करना। इतना होने पर कोई भी झंझावात, कालनेमि की माया रूपी आँधी किसी मजबूत वृक्ष को हिला भी नहीं पाएँगी। साधक स्वयं बनना एवं औरों को को बनाना है। औरों को तभी साधना की प्रेरणा दे पाएँगे, जब स्वयं एक निष्ठावान साधक होंगे।

यह समय गुरुसत्ता के अनुदानों को जी भर कर लूटने का है। इसके लिए तीन शर्तें पूरी कर अपने को प्रमाणिक बना लेना ही हर व्यक्ति का लक्ष्य होना चाहिए। हर कार्यकर्ता के लिए निर्धारित ये तीन मानदण्ड हैं-हम जो भी करें, वह इष्ट को प्रिय लगे, गुरु के प्रति हम पूरी तरह से प्रमाणिक बनें एवं साथी सहचरों में आत्मीयता का संचार उससे हो सके। इष्ट अर्थात् भगवत्सत्ता को वही प्रिय लगता है, जो उनकी शर्तों के अनुसार देवमानव की रीति-नीति अपनाकर चलता है। भगवान को प्रिय है तो हमारे अहं का विसर्जन-आकाँक्षाओं का उसकी इच्छा में विलय परिपूर्ण समर्पण। हम जो भी करें साधक के भाव से-निष्काम कर्म के भाव से समर्पण भाव से करें। साधना की सफलता गायत्री महामंत्र के जप व विस्तार रूपी महापुरुषार्थ की परम सिद्धि-उज्ज्वल भविष्य की प्रार्थना के सब धर्मावलंबियों द्वारा किए जाने से होने जा रहे सत्परिणामों की सुनिश्चितता तभी है, जब हमारे हर पल के चिंतन कर्म में ईश्वरीय सत्ता के प्रति समर्पण भाव होगा। भगवान महाकाल को प्रिय यह है कि हमारा दुष्चिंतन मिटे-दुर्मतिजन्य दुर्गति से हम बचें। जो उन्हें प्रिय हो वही हम करें भी। अचिंत्य चिंतन कदापि न करें।

गुरुसत्ता के प्रति प्रामाणिकता का अर्थ है-हर कसौटी पर स्वयं को कसना। यदि उपयुक्त प्रथमचरण उपासना है तो यह चरण साधना है। हमारी भौतिक महत्वाकांक्षाओं पर रोकथाम-चारों प्रकार के संयमों का परिपालन-जीवन के हर पहलू में गुरुसत्ता का अनुशासन-यही अब हमारा लक्ष्य होना चाहिए। इस क्षेत्र में जितनी रुकावट आएगी-साधनों की होड़ में रोकथाम लगेगी एवं ब्राह्मणोचित जीवन जीने की रीति-नीति जीवन का अंग बन जाएगी, उतना ही हम गुरुसत्ता की दृष्टि में प्रमाणिक बनेंगे। अंतिम चरण है आराधनापरक अर्थात् हम अपनी आत्मीयता के विस्तार से समाज के कितने बड़े परिवार को अपनी कर्मशैली में बाँध पाए हैं, अपने गुरुसत्ता के लक्ष्य के साथ जोड़ सकने में सफल हो पाए हैं। अपना रौब जमाने के स्थान पर हमारी भूमिका ‘तृणादपिषुनिचेन’ तिनके की तरह विनम्र बनने की दिशा में होनी चाहिए। इसके लिए हम जितना अपना प्रेम-आत्मीयता औरों को बाँटेंगे, उतना ही हमारा परिष्कार विस्तृत होता चला जाएगा। पारिवारिकता की अवधारणा जो परमपूज्य गुरुदेव माताजी ने उसे जीवनभर निभाया भी है।

समय विकट है, परिस्थितियाँ विषम हैं, चुनौतियाँ अनेकानेक हैं, विघ्न अनेकों हैं, परंतु यदि हमारा लक्ष्य स्पष्ट है तो आगामी वर्ष के चरमबिंदु तक पहुँचने तक हम तप की आग से निखरकर आए ऋषि की भूमिका में स्वयं को पाएंगे। जैसे-जैसे परीक्षा की घड़ियाँ आती जा रही हैं-देवसत्ताएँ कई प्रकार से हमें परखने का, हमारी प्रामाणिकता को कसौटी पर कसने का प्रयास कर रही हैं। नींव हमारी मजबूत होगी कर्म हमारे सही होंगे, निष्ठा गुरुसत्ता के आदर्शों पर अटूट होगी तो हम डिगेंगे नहीं, निश्चित ही उत्तीर्ण होकर इक्कीसवीं सदी में प्रवेश करेंगे।


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