धर्म है मानव जाति के अस्तित्व का मूलभूत आधार

April 1999

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विश्व में अनेकों धर्म-संप्रदाय प्रचलित है। हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, ताओ, कन्फ्यूशियस, जैन, बौद्ध, यहूदी आदि विभिन्न नामों से प्रचलित इन धर्म-संप्रदायों पर दृष्टिपात करने से यही पता चलता है। कि उनके बाह्य स्वरूप एवं क्रिया-कृत्यों में जमीन आसमान जितना अंतर है। क्रिया-कृत्यों में यह अंतर होना उचित है, उनकी छाप उन पर पड़ना स्वाभाविक है। मनीषी, अवतारी, महामानवों ने देश, काल व परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए श्रेष्ठता-संवर्द्धन एवं निकृष्टता-निवारण के लिए, जो सिद्धाँत एवं आचार-शास्त्र विनिर्मित किये, कालाँतर में वे ही धर्म-संप्रदायों के नाम से जाने-पहचाने लगे। इस कारण उनके बाह्य कलेवर में विविधता होना स्वाभाविक है। फिर भी जहाँ तक मौलिक सिद्धाँतों की बात है, वह सभी धर्मों में एक ही है। सभी ने एक चेतनासत्ता के साथ तादात्म्य स्थापित करना मानव का अंतिम लक्ष्य स्वीकार किया है। यह वह सार्वभौम तत्व है, जो मानव समुदाय ही नहीं, समस्त प्राणियों को एकता के सूत्र में पिरोये हुए है।

सभी धर्मों का एक ही उद्देश्य है-पशुता पर नियंत्रण और देवत्व का विकास। यदि नीर-क्षीर विवेक-बुद्धि को अपनाया जाए, तो धार्मिक विभेदों के बीच एकता का यह सारतत्व पर्याप्त मात्रा में मिलेगा। धार्मिक, साँस्कृतिक एवं आध्यात्मिक सिद्धाँतों का निर्माण उच्च उद्देश्यों को लेकर ही किया गया है। यद्यपि देश काल-परिस्थिति के अनुसार उनमें कुछ ऐसे कारण हो सकते हैं, जिन्हें आज की परिस्थितियों में अनुपयुक्त समझा जाता है। ऐसी स्थिति में कई विधि-निषेध परिवर्तनीय बन जाते हैं।

समय-समय पर प्रत्येक देश में ऐसे संत-सुधारक, अध्यात्मवेत्ता, महामनीषी हुए हैं, जिन्होंने प्राचीन मौलिक, आदर्शमूलक उद्देश्यों-जो परिस्थिति में परिवर्तन आने से जनमानस के उत्पीड़न का कारण बन गए या अवाँछनीय प्रतीयमान हो रहे थे, उसे दूर करने के लिए लंबे समय तक संघर्ष किया। वे धर्म-विद्रोही नहीं, अपितु धर्मसुधारक थे। संस्थापित रूढ़िवादी धर्माध्यक्षों ने संकीर्ण स्वार्थपरता के वशीभूत हो इन्हें धर्मद्रोही बताकर इनकी प्रताड़ना करने में भी कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखा है। बुद्ध, ईसा, महावीर, पैगंबर मोहम्मद, आचार्य शंकर, कबीर, मीरा, तुलसी, अल गझाली, र्जन संत-एकहार्ट, एविला की संत टेरेजा, ज्योर्ज फोक्स, फ्राँस के बरनाडिटी आदि को कितने कष्ट झेलने पड़े हैं, सर्वविदित है। त्याग, तपश्चर्या,बलिदान, सेवा-परोपकार की कष्टसाध्य प्रक्रिया को अपनाने में ऐसे महापुरुष आनंद संतोष व गर्व का अनुभव करते हैं। यह समष्टिमन का परिचायक है। सुगठित चरित्रनिष्ठा, मनस्विता, दूरदर्शिता, प्रगतिशीलता, तत्परता एवं साहसिकता, सुव्यवस्था के रूप में समष्टिमन की प्रौढ़ता का ही दिग्दर्शन होता है।

सुप्रसिद्ध विद्वान आदम क्ले ने अपनी कृति ‘मिस्टिक एण्ड मिलिटंट’ में कहा है कि धर्म व अध्यात्म निष्क्रियता नहीं सिखाता और न जो कुछ हो रहा है उसे देखते, सहते और करते रहने की प्रेरणा देता है। शाँति का अर्थ चुप बैठे रहना नहीं है। कर्तव्य और प्रगति की ओर से मुँह मोड़ लेने का अध्यात्मदर्शन के साथ संबंध जोड़ना ब्रह्मविद्या के महानतत्व पर लाँछन लगाना है। भेड़ें मिमियाती भर हैं, असत्य नहीं बोलतीं। खरगोश किसी की हिंसा नहीं करते, पर उन्हें न तो सत्यवादी कहते हैं और न अहिंसा-साधक। अंधे, बहरे, गूँगे न अशुभ देखते हैं, न अशुभ सुनते हैं, पर उन्हें ‘मुनि’ नहीं कहा जाता। गहन निद्रा की स्थिति में अशुभ क्रिया नहीं होती, तो क्या उसे पुण्यार्जन का समय कहा जा सकता है? वस्तुतः धर्म व अध्यात्म की प्रेरणा लौकिक और पारलौकिक सुख-सिद्धि के लिए कठोर श्रम एवं मनोयोग को नियोजित करना है। अशुभ आचारों को निरस्त करने के लिए घोर पुरुषार्थ करना पड़ता है। धार्मिकता-आध्यात्मिकता को उसी से जुड़ा हुआ मानना चाहिए। मानवी इतिहास इस बात का साक्षी है कि समय-समय पर सामने आने वाली विकृतियों, अवाँछनीयताओं का सामना करने और उन्हें निरस्त करने के लिए आवश्यक सूझ-बूझ का परिचय दिया जाता रहा है।

कार्लजुँग का कहना है कि जब तक धर्म के शुद्ध और अशुद्ध पक्षों का वर्गीकरण नहीं किया जाएगा, तब तक उसके पक्ष और विपक्ष में बहुत कुछ कहा जाता रहेगा। उसकी संतुलित विवेचना भी न हो सकेगी और न इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकेगा कि धर्म की उपयोगिता में कितना तथ्य है। यही कारण है कि कार्लमार्क्स जैसे विद्वान धर्म को ‘भावुकता का ज्वार’ मात्र समझ बैठते हैं। मनोवेत्ता फ्रायड ने भी अपनी पुस्तक ‘दफ्तर धर्म अवाँछनीय है। उसने तो यहाँ तक कहा है कि धर्म एक प्रकार की व्यापक दिमागी बीमारी है। वस्तुतः यह भूल इसीलिए हुई है कि धर्म की अनुभूति का आधार मात्र भावना नहीं, वह प्रज्ञा है जिसमें भावना एवं विवेक दोनों का ही अद्भुत सम्मिश्रण है। प्रज्ञा भावुकता नहीं है।

मूर्धन्य मनोवेत्ता विलियमजैम्स के अनुसार उलटे-सीधे कर्मकाँडों तथा प्रथा-प्रचलनों को अलग रखकर देखा जाए, तो धर्म विशुद्ध रूप से नीतिशास्त्र है। उसमें समाहित नागरिकशास्त्र और है। उसमें समाहित नागरिकशास्त्र और समाजशास्त्र के अस्तित्व को इनकार करना ऐसा है जैसे सीप-घोंघों को समुद्र-संपदा मान बैठना भूल है। आगे वे कहते हैं कि धर्म के मूल तत्वों को भूलकर जो स्थानीय ढोंगियों में खो जाते हैं, वह ही धर्म बदनाम करते है। पूर्वजों के कुछ आचरण और निर्देश अपने समय में ठीक समझे और कहे जाते हों, पर बदली हुई परिस्थितियों में उनका यथावत बने रहना विवेकसम्मत नहीं है। वास्तव में धर्म का मूलतत्व, दर्शन ही है। उसके आचरण में अंतर होते रहते हैं। यदि तत्व को भुलाकर किसी समय के धर्माचरण को ही मुख्य मान लिया जाए अथवा अमुक धर्मप्रवर्तक की उक्तियाँ अथवा गति-विधियों को सनातन मान लिया जाए, तो फिर धर्म प्रतिगामी ही बन जाएगा और कालाँतर में विकृत होकर विग्रह ही उत्पन्न करेगा।

मनोवेत्ताओं के अनुसार चेतन मन की परतों के नीचे दो और मन हैं-अतींद्रिय मन और समष्टिगत मन-समष्टिगत मन विश्वात्मा कह सकते हैं। चेतन मन के स्वरूप और स्वभाव से सभी लोग परिचित हैं। उसे सुयोग बनाने के लिए अध्ययन, अनुभव, परामर्श आदि को अपनाया जाता है। अचेतन मन की गरिमा और उसमें सन्निहित अकूत संभावनाओं का पता लगाने के लिए मनःशास्त्री जितने गहरे उतरते जाते हैं, उतना ही यह अनुभव करते हैं कि इस रत्नागार में छिपी बहुमूल्य संपदा इतनी अपार और असीम है, जिसकी कल्पना तक करना कठिन हैं।

अतींद्रिय मन वे समस्त संभावनाएं विद्यमान हैं जिनका योगी, तपस्वी तथा सिद्धपुरुषों के चमत्कारों एवं सिद्धि-साधनों के संदर्भ में वर्णन किया जाता है। समष्टिगत मन अर्थात् विश्वात्मा प्राणिमात्र में जो एक ही दिव्य ज्योति विभिन्न रंग-रूपों और आकार-प्रकारों में जल रही है, इसका दर्शन करता है। सामूहिक सद्भावना, प्रेम आदि जैसी उच्च सद्प्रवृत्तियाँ इस स्तर के प्रस्फुरण से विकसित होती है। अतींद्रिय और समष्टि मन की अंतःस्फुरणाओं के प्रभाव से ही धार्मिक व्यक्ति ऋषि, द्रष्टा, तत्वज्ञानी, देवदूत आदि बनता है। समष्टि मन का प्रभाव ही समाजसेवा, लोकमंगल, चरित्र-निर्माण के रूप में देखा जाता है। इसे ही धर्म का सच्चा स्वरूप माना जा सकता है, जिसे कर्तव्य-परायणता के रूप में परिभाषित किया गया है। ऐसी कर्तव्यपरायणता जो मनुष्य को व्यक्तिगत संकीर्ण दायरे से निकालती तथा समष्टि की ओर चलने, उससे बँधने की प्रेरणा देती है। सचमुच ही गंभीरता एवं सूक्ष्मदृष्टि से विचार किया जाए, तो स्पष्ट होगा कि धर्म के मूल में वही प्रेरणाएँ परोक्ष रूप से उद्भासित होती हैं। आचरण की श्रेष्ठता, विचारों की उत्कृष्टता तथा भावनाओं की पवित्रता ही धर्म का व्यावहारिक लक्ष्य है। यही अपनी चरमसीमा पर पहुँचकर उन अलौकिक अनुभूतियों का मार्ग प्रशस्त करता है, जिसे मनोवेत्ता अतींद्रिय मन और समष्टिमन की अचल गहराइयों में झाँकते दृष्टिगोचर होते हैं और तत्ववेत्ता ईश्वरानुभूति के रूप में अंतस्तल में अनुभूत करते हैं।

वस्तुतः अपने विराट स्वरूप में धर्म उतना ही व्यापक है जितना कि यह विश्व। जीवन का कोई भी पक्ष ऐसा नहीं जो धर्म के अंतर्गत न आता हो। ऐसी कोई भी विद्या नहीं है, जहाँ धार्मिकता, कर्तव्यपरायणता उच्चस्तरीय आदर्शवादिता की आवश्यकता न हो। चाहे वह राजतंत्र हो, अर्थतंत्र हो अथवा समाजतंत्र, नीतिमत्ता, कर्तव्यपरायणता, अनुशासन, सहकार के बिना व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक किसी भी जीवन की आधारशिला सुदृढ़ नहीं बनी रह सकती। धर्म को अभी कारण समाज के स्थायित्व की धुरी कहा गया है, जिसके धारण किए जाने से समाज की-सारे समूह की रक्षा होती है, धर्म अपने शाश्वत रूप में हर समय के लिए, हर समाज के लिए अनिवार्य है, प्रगति का मूल आधार है। उसकी अवमानना-उपेक्षा कभी भी नहीं की जानी चाहिए।


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