ध्यान क्यों व कैसे किया जाए

April 1999

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

ध्यान न एक कसरत है, न मानसिक व्यायाम। यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है।, जो चित्तवृत्तियों का परिष्कार करते ही सहज ही होने लगती हैं ‘ योगा’ शब्द से जुड़ जाने के कारण एवं उसके बहिरंग पक्ष की ही अधिक चर्चा होती रहने की वजह से ‘ध्यान’ को भी एक एक्सरसाइज बना दिया गया, जिसने बड़ी भ्रांतियां फैलायी हैं ध्यान का अर्थ है-व्यष्टि का समष्टि से समन्वय स्थापित करने हेतु संपादित एक योगाभ्यास। विचारों की सृजनात्मक शक्ति का आश्रय ले, उन्हें बार-बार आमंत्रित कर अपने व्यक्तित्व को उनका स्नान कराके बार-बार उसे सुदृढ़ बनाने का प्रयास ही ध्यान का लक्ष्य होना चाहिए।

ध्यान एक ऐसी विद्या है, जिसकी आवश्यकता हमें दैनंदिन जीवन में पड़ती है, लौकिक भी, आध्यात्मिक क्षेत्र में भी। इसे जितना सशक्त बनाया जा सके उतना ही यह उपयोगी सिद्ध होता है। जिस उद्देश्य के लिए मनुष्य को यह जीवन मिला था- उसे सिद्धि के चरमलक्ष्य तक, पूर्णता तक पहुँचाने के लिए ही ध्यान जरूरी हैं जीवन का लक्ष्य पूर्णता-ईश्वरीय स्तर की ही हो सकती है। भगवान का स्वरूप, गुण- कर्म, स्वभाव कैसा है- हम इसके जैसे बनें, इसकी ध्यान प्रतिमा विनिर्मित की जाती और फिर इसके साथ समीपता, एकता, तादात्म्य स्थापित करते हुए उसी स्तर का बनने के लिए वैसे ही विचार आमंत्रित कर, क्रियारूप में उतारने का प्रयास किया जाता हैं ध्यान प्रक्रिया का प्रारम्भ भटकाव के स्वेच्छाचार से मन को हटाकर एक नियत निर्धारित दिशा में लगाने के अभ्यास से होता हैं इसके लिए कोई प्रतीक चाहिए। साकार ध्यान इसीलिए सभी प्रारंभिक साधकों के लिए श्रेष्ठ हैं, क्योंकि उसमें सहारा मिल जाता है- चंचल-स्वेच्छाचारी मन को भटकाव से रोकने के लिए। विगत अंक में इसी शीर्षक से दिए लेख में ध्यान की कई विधियों की, साकार ध्यान कैसे किया जाए, इस संबंध में विशेष चर्चा की गई थी। उस क्रम में सूर्य, दीपक, हिमालय, इष्ट का ध्यान, दर्पण साधना एवं सोऽहम् साधना के विषय में विस्तार से बताया गया था। उसी क्रम को यहाँ आगे बढ़ाया जा रहा है।

सूर्य के ध्यान को इस संधि वेला में विशिष्ट महत्व दिया गया है, विशेषतः इसलिए कि गायत्री का देवता सविता है एवं युगशक्ति गायत्री ही सद्बुद्धि के अवतरण के माध्यम से नवयुग की प्रतिष्ठापना करेगी। उदीयमान स्वर्णिम सूर्य का ध्यान युगतीर्थ शांतिकुंज हरिद्वार में परमपूज्य गुरुदेव के निर्देशों के माध्यम से प्रतिदिन प्रातः काल संपन्न होता हैं इससे भावचेतना को सौरचेतना के आध्यात्मिक तेज के साथ जो कि अतिमानसिक ज्योति है- एकाकार होने का अवसर मिलता है। बुद्धि को प्रखर बनाने- मेधावान बनो के लिए यह एक सर्वश्रेष्ठ ध्यान हैं अंतर्त्राटक - बहिर्त्राटक के साइकल्स के माध्यम से बिन्दुयोग की साधना जलते दीपक के माध्यम से की जा सकती हैं यह ध्यान मध्याह्न वेला में- युगतीर्थ में संपन्न होता हैं दीपक की ज्योति आज्ञाचक्र को एवं उसके माध्यम से सारे सूक्ष्म जगत को प्रकाशवान, ऊर्जावान बना रही है, बार-बार यह ध्यान किए जाने से अनेकानेक ऋद्धि-सिद्धियों के द्वारा खुलते चले जाते हैं हिमालय जीता-जागता चैतन्यसत्ता का पुँज हैं हिमालय से आने वाली शक्ति धाराएँ शरीर के कण-कण को ऊर्जावान व तपते मन को शाँत बना रही हैं, ऐसा ध्यान बार-बार करने से ऋषियों की चेतना से तादात्म्य होने का अवसर मिलता हैं इनके नए विचार सृष्टि के गर्भ से जन्म लेकर चिंतन पटल पर आते हैं।

इष्ट का ध्यान गुरुसत्ता के रूप में किया जा सकता है एवं अपनी आराध्य भगवत् सत्ता का भी। भगवान गुणों का आदर्शों का समुच्चय है। भगवान के गुणों को धारण कर हम भी ईंधन के आग में डाले जाने की तरह वैसे ही प्रखर-ज्योतिवान बनते चले जा रहे हैं- वे ही गुण हमारे अन्दर आते जा रहे हैं- यह भावना प्रतिपल प्रबल बनायी जाती हैं जिसका जो इष्ट हो, वह उसका ध्यान कर सकता हैं सत्प्रवृत्तियों को ही प्रतीक के रूप में ईश्वरीय प्रतिमा या चित्रों के रूप में उनके स्मारक या चिन्हों के रूप में निरूपित किया गया है। इसीलिए जब इष्ट का ध्यान किया जाता है, तो इन सत्प्रवृत्तियों पर ही ध्यान केंद्रित किया जाता हैं दर्पण साधना वस्तुतः आत्मबोध की साधना है। दर्पण में जब भी दृश्यमान हैं वह तो मात्र हाड़-माँस का पिंड हैं, जिसे एक दिन भस्मीभूत बन जाना है। फिर इसे सजाने का इतना प्रयास क्यों? सुंदर, आकर्षक तो भीत वालों को जिन्हें विचारणा- आकांक्षाओं का केंद्र मन एवं भावसंवेदना की गंगोत्री अंतःकरण कहते हैं, बनाया जाना चाहिए उनके लिए कभी प्रयास होता नहीं इसीलिए मात्र शरीर तक मनुष्य सीमित होकर रह जाता है। कारण व सूक्ष्मशरीर के परिष्कार के लिए दर्पण- साधना श्रेष्ठतम हैं, क्योंकि यह सीधे वेदाँत के सच्चिदानंदोऽहम् की अवधारणा तक साधक को ले जाती है। सोऽहम् का साधना जिसमें श्वास पर नियमन किया जाता है एवं अजपा जप भी साथ चलता है, एक प्रकार के अद्वैत की ही साधना हैं इन सभी साधनाओं के सत्परिणाम अनेक रूपों में साधक को मिलते हैं।

साधना की और भी कई विधियाँ हैं जिसमें एक महत्वपूर्ण नादयोग शब्दब्रह्म की इस साधना में भाँति-भाँति के वाद्ययंत्रों, धुनों, रागों, मंत्रों के माध्यम से अपने कर्णेन्द्रियों के द्वारा मन को तन्मय-तल्लीन करने का अभ्यास किया जाता हैं सितार, वीणा, बाँसुरी की धुन पर बजे रागों के विशिष्ट प्रभाव मनः संस्थान एवं सूक्ष्म चक्र उपत्यिकाओं पर पड़ते हैं ऋषिगणों ने प्रातः से रात्रि तक एवं रात्रि से प्रातः तक प्रत्येक प्रहर के लिए विभिन्न रागों का प्रावधान रखा हैं जो राग उस वेला के लिए निर्धारित है उसका अभ्यास करने पर ध्यान न केवल लाभ देता है, तुरंत लग भी जाता हैं उच्चरित मंत्रों, घंटे, घड़ियाल की ध्वनियों, समुद्री लहरों के थपेड़ों पर भी ध्यान लगाया जा सकता है। इंद्रिय माध्यम बन जाती है चित्तवृत्तियों के निरोध की। धीरे-धीरे यह सध जाने पर मौन एकाँत में बैठने पर बाहर का शोर कम अपने अन्दर के राग रागिनियों के स्वर सुनाई पड़ने लगे हैं नवद्धारों की इस देह में रक्तवाही संस्थान से लेकर अन्यान्य संस्थानों में जो चौबीस घंटे क्रिया−कलाप चल रहे हैं, उनसे उत्पन्न स्वर दिव्य ध्वनियों के रूप में अंतःइंद्रियों को सुनाई देने लगते हैं क्रमशः परिमार्जन-परिष्कार होते -होते यह स्थिति आती है कि अनहदनाद भी अंदर से सुनाई देने लगता हैं, कभी मंदिर की घंटियाँ घाटियों में हो रही गुँजन, प्रणवनाद-(कार आदि से लेकर ऋषिगणों द्वारा किया गया सामगान मंत्रोच्चार भी सुनाई पड़ने लगता है। यह सूक्ष्मतम की पकड़ की सिद्धि तक पहुँचने वाला ध्यान एकाग्रता की चरम पराकाष्ठा पर सिद्ध हो पाता हैं।

एक और ध्यान का तरीका है- मस्तक पटल पर भावचित्र के रूप में ओंकार की आकृति बनाना। बार-बार ओंकार की आकृति खींचते-खीचते वही दिखाई देता है और मन का भटकाव रुककर भीतर प्रवेश करने की, अपनी आत्मसत्ता का साक्षात्कार करने की स्थिति आने लगती हैं यह अभ्यास से ही सध पाता हैं, किन्तु प्रयास किये जाने पर पता लगता है कि यह सबसे सरल ध्यान हैं इसी कड़ी के अन्दर प्रवेश कर विभिन्न चक्रों का सुषुम्नानाड़ी के साथ चल रही सूर्य चंद्रनाड़ी का भी ध्यान किया जा सकता है। इसके लिए काल्पनिक चित्र बनाकर आज्ञाचक्र को साधकर वहाँ से अंदर प्रवेश कर क्रमशः नीचे तक यात्रा की जाती हैं एवं विभिन्न चक्रों का, उनके रंगों का ध्यान कर भेदन किया जाता हैं एक समर्थ संरक्षक के मार्गदर्शन में किया गया यह ध्यान साधक को योग की गहराइयों तक ले जाता है।

विभिन्न वर्णों का ध्यान भी मन को साधने व कई प्रकार के मनोविकारों के शमन के लिए ठीक हैं नीले-हलके हरे-गुलाबी रंग का ध्यान मन को जहाँ

शाँत करता है वहाँ पीले रंग का ध्यान उल्लास-वैराग्य की भावना को पुष्पित पल्लवित करता हैं अवसाद ग्रस्त मनः स्थिति में गहरे लाल बैंगनी आदि रंगों का ध्यान कराया जाता है। इससे शीघ्र ही उबरकर आने का अवसर मिलता व उत्साह-प्रफुल्लता का संचार होता है। वर्णों की तरह ही गंधों का भी ध्यान कर मन को एकाग्र किया जा सकता है। सूफी लोबान जलाकर अपने लिंबिक सिस्टम-हिप्पोकेम्पस को जगाते व सीधे दिव्यदर्शन कर सकने की स्थिति में पहुँच जाते हैं। यज्ञ धूम्र से लेकर सभी प्रकार की सुगंधों में बड़ी दिव्यशक्ति है, तुरंत स्नायुकोषों को जगरकी एंडसर्फीन नामक हारमोन्स के उत्सर्जन की साथ ही मनःसंस्थान के जागरण की स्थिति प्राप्त होती है। खेचरी मुद्रा में जीभ तालू से लगाकर भगवान को रसप्रवाह के रूप में अवतरित किया जाता है। भावना की जाती है कि हमारा मस्तिष्क शिव का कैलाश है, विष्णु का क्षीरसागर है, ब्रह्मा का सहस्रदल कमल है। रस रूप में-आनंद रूप में, ईश्वरीय चेतना के प्रवाह की अनुभूति इसी सहस्रार केंद्र से की जा सकती है। इन सबको विस्तार से न देकर यहाँ मात्र इशारा किया गया है। जिन्हें जो ध्यान ठीक लगे, वह इसका विस्तार वाङ्मय के खण्ड ‘4 (साधना पद्धतियों का ज्ञान और विज्ञान) एवं 10 (गायत्री साधना का गुह्य विवेचन) से पढ़कर तदनुसार अभ्यास कर सकते हैं।

एक अंतिम ध्यान युगचेतना से अनुप्राणित हो अखंड दीपक का दर्शन कर, गुरुसत्ता के आशीर्वाद से शक्ति लेकर वापस गंगादर्शन कर लौटने का भी किया जा सकता है। परमपूज्य गुरुदेव ने सूक्ष्मीकरण साधना के पश्चात सभी साधकों को इस ध्यान के विषय में प्रेरित किया था व शक्ति−संचार हेतु इसे सर्वश्रेष्ठ बताया था। जो भी विधि हमें ठीक लगे, हम उसे ग्रहण कर अपने आपको ध्यान का अभ्यास कराएँ, तो निश्चित ही इसके परिणाम आज की विषम विभीषिकाओं से भरी परिस्थितियों में बड़े विलक्षण संभावनाओं से भरे-पूरे हमें हस्तगत होंगे, इसमें कोई संदेह नहीं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118