युगपरिवर्तन की घड़ी तेजी से निकट आती चली जा रही है। यह समय प्रसवपीड़ा के हैं, अग्निपरीक्षा के हैं। इनमें सबसे अधिक परीक्षा उन समर्थ आत्माओं की होगी, जो संस्कार-संपन्न समझी जाती हैं, उन्हें अपना जीवन क्रम ऐसा ढालना होगा, जिसको देखकर दूसरे भी वैसा ही अनुकरण कर सकें। चरित्र की शिक्षा वाणी से नहीं, अपना आदर्श प्रस्तुत करके ही दी जा सकती है। सो जिनमें भी मानवीय गरिमा और दैवी महानता के जितने अंश विद्यमान है, उन्हें उसी अनुपात से अपने दुस्साहसपूर्ण कर्तव्य को विश्वमानव के सम्मुख प्रस्तुत करने के लिए दृढ़तापूर्वक अग्रसर होना चाहिए। यही युग देवता की पुकार और यही हमारा अनुरोध-आग्रह है।
-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य (वाङ्मय ग्रंथ क्र. 28, पृष्ठ-6.78)