मृदु चाँद्रायण का अतिसुगम विधि-विधान

April 1999

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प्रायश्चित प्रकरण मेंषास्त्रकारों ने जहाँ अनेक विधि-विधानों का वर्णन किया है, वहाँ देश, काल एवं पात्र की परिस्थितियों का ध्यान रखने का भी निर्देश दिया है। जैसे कृच्छ चाँद्रायणव्रत की कुछ बातें ऐसी हैं जो आज की स्थिति में सर्वसाधारण के लिए उपयुक्त नहीं है। षोडश संस्कारों में कई ऐसे हैं जो आज की परिस्थितियों को देखते हुए युगानुकूल नहीं रहे। युगऋषि ने इसीलिए उनमें से दस की देशकाल के अनुरूप संपन्न होने का प्रावधान बनाया। देश-काल के अनुसार पारंपरिक प्रचलनों में भी फेर-बदल होना चाहिए। चाँद्रायण के क्रम में भी पूरे भोजन में जितने ग्रासों की सीमा नियत है, उतने मात्र से गुजारा भी कठिन है। जप तथा होम, दान आदि का जो विस्तृत वर्णन है।, उतना भी सबसे नहीं निभ सकता। इसलिए वर्तमान परिस्थितियों में मृदु चाँद्रायण व्रत ही सर्वसाधारण के लिए उपयोगी हो सकता है।

मृदु चाँद्रायण व्रत सरल होते हुए भी परिणाम की दृष्टि से कम महत्वपूर्ण नहीं है। शारीरिक कष्ट उतना ही उठाया जाना चाहिए, जितने से स्वास्थ्य का संतुलन बिगड़ने की आशंका उत्पन्न न हो जाय। ‘अति सर्वत्र वर्जयेत्’ अर्थात् ‘करना तो अत्यंत कठिन ही करना’ की नीति ठीक नहीं। औचित्य मध्यम मार्ग का ही है। मध्यम मार्ग का अनुसरण करने से सत्कर्मों की ओर मनुष्य की प्रवृत्ति सहज ही बनी रहती है, वहीं कठोरता या अतिवादिता अपना लेने पर उत्साह ठंडा होते ही व्यक्ति दिग्भ्राँतों की तरह आचरण करने लगता है। यही कारण है कि बौद्धधर्म में मध्यम मार्ग की ही प्रतिष्ठा मानी जाती है। साधारण जीवन का तारतम्य न बिगड़ने देते हुए जो शुभकर्म बन पड़ें, वे उत्साहवर्द्धक रहते हैं और उस मार्ग पर चलने का साहस बना रहता है। चाँद्रायणव्रत के आशाजनक लाभों को देखते हुए मन उसे करना तो चाहता है, पर विधान की कठोरता को देखते हुए वैसा साहस नहीं होता। ऐसी दशा में मृदु चाँद्रायण का मध्यम मार्ग अपनाना सभी के लिए उपयुक्त रहेगा।

मृदु चाँद्रायणव्रत किसी भी महीने की पूर्णिमा से आरंभ करके अगली पूर्णिमा को समाप्त करना चाहिए। यों तो इसके लिए मार्गशीर्ष और माघ के अतिरिक्त ज्येष्ठ, श्रावण, अश्विन विशेष शुभ माने गये हैं, परंतु निषेध किसी भी किसी भी महीने का नहीं है।

आहार-निर्धारण के संबंध में शास्त्रों में लिखा है कि साधक का पूर्ण आहार जितना हो, उसका एक आहार-पिंड बनाना चाहिए। पूर्णिमा के दिन वह पूरा पिंड खाया जाए। फिर कृष्णपक्ष में चंद्रमा की एक-एक कला जिस प्रकार घटती है, उसी प्रकार एक अंश घटाते चलना चाहिए। पूर्ण पिंड को तोलकर उसका चौदहवाँ अंश प्रतिदिन घटाते रहा जाय। इस प्रकार घटाते-घटाते कृष्णपक्ष की चतुर्दशी को एक अंशमात्र लिया जाय और अमावस्या को पूर्ण निराहार रहा जाय।

शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को भी निराहार रहना चाहिए। चंद्रमा अमावस्या और प्रतिपदा को-दो दिन दिखाई नहीं पड़ता, इसलिए दोनों दिन आहार न लेने का विधान है। फिर जिस क्रम से एक-एक चौदहवाँ अंश घटाया गया था, उसी प्रकार शुक्लपक्ष में चंद्रमा की कलाओं की तरह भोजन भी बढ़ाते रहा जाय। कृष्णपक्ष की चतुर्दशी के दिन जितना आहार लिया था, उतना ही दौज को लिया जाए और जितना कृष्णपक्ष की त्रयोदशी को लिया गया था, उतना शुक्लपक्ष की तीज को। इस प्रकार पूर्णिमा का उतने ही पूरे आहार तक पहुँच जाना चाहिए, जितना कि आरंभ करते समय पिछले मास की पूर्णिमा को लिया गया था।

प्रायः किन्हीं-किन्हीं महीने में तिथियाँ घट या बढ़ जाती हैं। ऐसी स्थिति में पंचाँग में देखकर उसी क्रम से आहार के अंशों को भी घटा या बढ़ा लेना चाहिए। यदि किसी पक्ष में एक तिथि बढ़े तो चौदह के स्थान पर पंद्रहवें अंश को घटाने या बढ़ाने का क्रम रखना चाहिए और यदि एक तिथि घट जाय तो तेरह का क्रम घटाना या बढ़ाना उचित है। चंद्रमा की कलाओं पर इस व्रत का आधार रहने से आहार के घटाने या बढ़ाने का क्रम भी उन्हीं के अनुसार बदलना पड़ता है।

आहार के लिए ‘पिंड’ शब्द प्रयोग होने से ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीनकाल में खिचड़ी, दलिया, सत्तू या ऐसी ही कोई चीज पकाकर उसका एक गोला बना लिया जाता होगा और उस गोले का भार-प्रतिदिन घटाया-बढ़ाया जाता रहता होगा। इससे यह भी प्रतीत होता है कि आहार में भिन्न-भिन्न प्रकार की वस्तुएँ न रहती होंगी। एक या कई वस्तुओं को मिलाकर एक ही जगह पका लिया जाता होगा। इस व्यवस्था में अनेक खाद्य पदार्थों के द्वारा अनेक स्वाद प्राप्त करने वाली स्वाद-लोलुपता का निषेध है। अनेक प्रकार की वस्तुएँ एक समय में खाना वैज्ञानिक दृष्टि से भी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक माना जाता है। यह प्रथा तो केवल जिह्वा की लोलुपता पूरी करने के लिए ही चली है। चूँकि चाँद्रायणव्रत में स्वास्थ्य-सुधार और स्वाद-लोलुपता पर नियंत्रण का इंद्रियसंयम भी जुड़ा हुआ है, इसलिए आहारपिंड की व्यवस्था का महत्व भी सहज ही समझ में आ जाता है।

‘पिंड’ शब्द से एक और बात भी प्रकट होती है कि आहार एक बार ही लिया जाए। यदि दोनों समय लेने का विधान रहा होता तो चौदह के स्थान पर अट्ठाइस भागों में पूर्ण भोजन को विभाजित करने की व्यवस्था रही होती।

उपर्युक्त व्यवस्था की भावना को ध्यान में रखते हुए आज की परिस्थितियों में कुछ ढील भी रखी जा सकती है। पिंड न बनाकर भले ही रोटी-शाक, दाल-भात जैसी वस्तुएँ अलग-अलग बना ली जाएँ, पर उनकी संख्या दो ही रहे तो उत्तम है। अधिक वस्तुओं का भोजन में होना आहार संबंधी विलासिता है। इसमें रजोगुण या तमोगुण की प्रधानता हो जाती है। आहार में खाद्य-पदार्थों की संख्या जितनी कम रहेगी, उतना ही सात्विक माना जाएगा। संयमी संत-महात्मा भिक्षा में कई प्रकार की वस्तुएँ भिन्न-भिन्न घरों से प्राप्त करते हैं, तो उन्हें मिलाकर इकट्ठा कर लेते हैं, ताकि जिह्वा की लोलुपता को पनपने का अवसर न मिले। चाँद्रायणव्रत करने वालों को इतना नियम रखना ही चाहिए कि आहार में दो प्रकार की वस्तुओं से अधिक संख्या न हो। मिर्च-मसाले छोड़ देना ही उचित है। अस्वाद व्रत पालन करते हुए नमक और शक्कर छोड़कर अलौना भोजन बन पड़े तो सर्वोत्तम है, अन्यथा नमक काम में ले सकते हैं। सेंधा नमक सात्विक माना गया है। मिर्च के बिना काम न चले तो कालीमिर्च अदरक या सोंठ ली जा सकती है। आँवला या नीबू की खटाई ग्रहण की गयी है। अन्य खटाई वर्जित हैं। हींग, लालमिर्च और गरम मसाले सर्वथा त्याज्य हैं। हल्दी, जीरा, धनिया इन तीन का निषेध नहीं है।

आरंभ करते समय पूर्णिमा को लिए गये एक समय के भोजन का ही चौदहवाँ अंश घटाना पड़ता है। इस प्रकार दिनभर के भोजन का आधा अंश तो पहले ही कम हो जाता है और शेष आधे में भी प्रतिदिन कमी होती चलती है। इतना कठिन अल्पाहार एक महीने तक चलाने में दुर्बल स्वभाव या शरीर वाले व्यक्ति घबराते हैं। इसलिए मध्यम मार्ग यह हो सकता है कि सायंकाल को भी थोड़ा दही, शाक का रस या फलों का रस-इनमें से कोई एक चीज ले जी जाया करे। इससे भूख भी असहनीय न रहेगी और शरीर भी अधिक दुर्बल न होगा। इसी प्रकार प्रातःकाल भी इन्हीं में से कोई एक पेय पदार्थ लिया जा सकता है। नीबू और शहद मिला हुआ पानी आवश्यकतानुसार दिन में कई बार भी लिया जा सकता है। अन्नाहार दोपहर को एक बार घट-बढ़ के क्रम से ही लेना चाहिए।

आहार को घटाने और बढ़ाने का यह क्रम मानसिक और आत्मिक पवित्रता की दृष्टि से तो महत्वपूर्ण है ही, साथ ही पेट के पाचन यंत्रों-पाचन प्रणाली को विश्राम देकर उनकी नष्ट हुई शक्तियों को पुनः सजीव बनाने के लिए भी उपयोगी सिद्ध होता है। पर आहार की न्यूनाधिक मात्रा ही चाँद्रायणव्रत नहीं है। इसका मूल उद्देश्य अंतःकरण पर चढ़े हुए मल-आवरण और विक्षेपों का समाधान तथा किये हुए पापों का प्रायश्चित करना भी है। आँतरिक पवित्रता की अभिवृद्धि के लिए ही चाँद्रायणव्रत किये जाते हैं। शारीरिक लाभ तो एक गौण बात है।

गायत्री की उच्चस्तरीय साधनाओं जैसे-गायत्री महापुरश्चरण, पंचकोश अनावरण, कुँडलिनी जागरण आदि में इन्हें आरंभ करने से पूर्व कायिक-मानसिक परिशोधन का विधान है। इसमें भी साधना से पूर्व तीस दिन तक चाँद्रायणव्रत करना पड़ता है, फिर साधना की-पुरश्चरण की शुरुआत होती है। इसलिए मृदु चाँद्रायणव्रत काल के एक महीने में सवालक्ष गायत्री अनुष्ठान का एक नियमित कार्यक्रम बना लेने से ‘सोने में सुगंध’ की उक्ति चरितार्थ होती है। इससे शारीरिक कायाकल्प के साथ-साथ आँतरिक कायाकल्प का सुयोग भी बैठ जाता है। तीस दिनों में सवालक्ष गायत्री का जप-अनुष्ठान करने के लिए प्रतिदिन 42 माला जप करना पड़ता है। उसमें प्रायः चार घंटे लगते हैं। प्रातःकाल ढाई-तीन घंटे और सायंकाल एक-डेढ़ घंटा लगाने से यह उपासना आसानी से पूर्ण हो जाती है।

ब्रह्मचर्य, भूमिशयन या तख्त पर सोना, अपने शरीर की सेवा स्वयं करना, कपड़े धोना आदि कार्य स्वयं करने चाहिए। भोजन पकाने में अपना अभ्यास न हो तो माता या पत्नी से सहायता ली जा सकती है, परंतु चाहे जिस-तिस के हाथ का बना हुआ भोजन भी उन दिनों

नहीं करना चाहिए। क्योंकि पकाने वाले व्यक्ति के संस्कार यदि अच्छे न हुए तो उसका प्रभाव अपनी मनोभूमि पर पड़ेगा और व्रत का जो लाभ मिलना चाहिए, वह न मिलेगा। दूसरों की शारीरिक सेवा लेना तो वैसे भी उन दिनों वर्जित रहता है। चमड़े का उपयोग भी वर्जित रहता है। क्योंकि आजकल निन्यानवे प्रतिशत चमड़ा पशुहत्या करके ही उपलब्ध किया जाता है और उसका उपयोग करने वाले के सिर पर भी कुछ हत्या का आसुरी प्रभाव पड़ता ही है। लकड़ी, रबड़-प्लास्टिक या कपड़े के जूते इस व्रत-काल में प्रयोग करने चाहिए।

अच्छा तो यही रहता है कि घर के साधारण वातावरण को छोड़कर किसी साधना के उपयुक्त दिव्य, पवित्र स्थान, प्राणवान, जीवंत तीर्थस्थल में यह व्रत किया जाय। वह स्थान आध्यात्मिक भावनाओं एवं तपश्चर्या की प्राणऊर्जा से ओत−प्रोत व परिपूर्ण होना चाहिए, अपनी दिनचर्या उन दिनों मौन, आत्मचिंतन, मनन, ध्यान, स्वाध्याय, सत्संग जैसे कार्यक्रमों में व्यस्त रहे। मनोभूमि पर विक्षोभजनक प्रभाव उत्पन्न न हो, तो ही व्रत का पूरा लाभ मिलता है। व्यावसायिक कार्यों में प्रायः झूठ, चोरी, कर्तव्य में ढील, राग-द्वेष, लोभ, तृष्णा, क्रोध, वासना जैसे दोषों का समावेश बना रहता है। इसलिए अच्छा यही है कि चाँद्रायण के उपयुक्त स्थान तलाश किया जाय और उन दिनों छुट्टी लेकर आध्यात्मिक जीवन का लाभ लिया जाय। इस संबंध में परिजनों के लिए गायत्री तीर्थ, शांतिकुंज सर्वाधिक उपयुक्त पड़ेगा।

जिनके लिए यह संभव न हो वे साधारण कार्यक्रम चलाते हुए घर पर भी चाँद्रायणव्रत कर सकते हैं। पर प्रयत्न ऐसा ही करना चाहिए कि अपना मन अधिक समय तक सात्विक विचारधारा में ही व्यस्त रहे। पापकर्म कम-से-कम बन पड़े। क्रोध और क्षोभ के अवसर कम-से-कम आवें। चित्त की शांति और मन की समस्वरता नष्ट न होने पावे। दैनिक जीवन में दान, सेवा, परोपकार, स्वाध्याय, मौन आदि शुभ कर्मों के लिए कुछ-न-कुछ अवसर साधारण दैनिक कार्यक्रम चलाते हुए भी निकाल ही लेना चाहिए।

गायत्री अनुष्ठान तो चाँद्रायणव्रत का एक अनिवार्य अंग है। मृदु अनुष्ठान करने से अंतःकरण में सात्विकता एवं आत्मबल की असाधारण वृद्धि होती देखी गयी है। इस एक महीने की अवधि में मनोभूमि में आशाजनक परिवर्तन होता है। कुविचारों और कुकर्मों की ओर मन में घृणा उत्पन्न होती है और भविष्य में शुद्ध एवं पवित्र जीवन व्यतीत करने की भावना स्वयमेव जाग्रत होने लगती है। पिछले किये हुए पापों के प्रति आत्मग्लानि और प्रायश्चित की आकाँक्षा जाग्रत होने से मनुष्य की अंतरात्मा अपने को धिक्कारती है और जो उस रूप में ज्यों-की-त्यों न सही, किसी दूसरी प्रकार से पूर्ण करने की योजना बनाती है। शरीर से कष्ट सहकर उपवास करना, मन से आत्मनिरीक्षण करते हुये अपनी भूलों को ढूँढ़ना, हटाना और जो अशुभ अब तक बन पड़ा है, उसकी क्षतिपूर्ति के लिए किन्हीं पुण्यकर्मों का आयोजन करना-यही चाँद्रायणव्रत का मूल आधार है। यदि आधार स्थिर रहे तो चाँद्रायणव्रत का पूरा-पूरा लाभ साधक को मिल सकता है, भले ही आहार तथा आकार संबंधी विषयों में थोड़ी ढील भी रखी जाय। वृहद या कृच्छ-चाँद्रायण का विधान कठिन और मृदु चाँद्रायण का सुगम है। आज की स्थिति में मृदु चांद्रायण ही सहज सुगम है। इसमें भी यदि भावनात्मक उत्कृष्टता बन रहे, तो प्रतिफल मिलने में कोई संदेह नहीं है।


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