मोक्ष-जीवन्मुक्ति(Kahani)

April 1999

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बहुत समय तक प्रयत्न करने पर भी गोपालचंद्र घोष को भावसमाधि न होती थी, जबकि अनेक साथी उन्हें समाधि के अनुभव सुनाते। एक दिन उन्होंने अपनी यह निराशा रामकृष्ण परमहंस के सम्मुख प्रकट की। सुनकर रामकृष्ण परमहंस ने कहा-इसमें कौन से दुख की बात है। भावसमाधि से ही सब कुछ हो जाता है, यह किसने बताया। भावसमाधि से भी बड़ी चीज है-सच्चा त्याग, परमात्मा में पूरी आस्था। तुम भी अपनी भावनाओं में विकास करो और नरेन्द्र की तरह भावसमाधि की चिंता किए बिना आस्था, श्रद्धा, निष्ठा और त्याग-भावना से कार्य में जुटे रहो। गोपालचंद्र घोष का भ्रम दूर हो गया। वे प्रसन्नतापूर्वक मनोविकास में तत्पर हो गए।

भक्त भगवान के मंदिर में जाकर नित्यप्रति मुक्ति के लिए प्रार्थना करता। भगवान की प्रार्थना सुनकर एक दिन प्रकट हो गए। भक्त से बोले-आज ही मुक्ति प्राप्त कर ले। भक्त घबरा गया, आज ही इसी क्षण। वह ऐसा सोच भी न सकता था। घबराकर बोला- दीनबंधु ठीक है। मुझे एक माह की मोहलत दे दें। बच्चे की शादी कर लूँ और उसे घर का भार सौंप दूँ। भगवान वायदे के अनुसार पुनः प्रकट हुए। बोले- भक्त शादी हो गई-अब भार सौंपो और मुक्त हो जाओ। भक्त ने सोचा कि यह बुरे फँसे। बोला नाती का मुँह और देख लूँ। एक साल की और माफी दे दें। भगवान फिर वायदे के अनुसार प्रकट हुए। भक्त घबराया और गिड़गिड़ाकर बोला-प्रभु क्षमा करें। आप बार-बार आने का कष्ट न करें, मैं स्वयं आपके पास उपस्थिति हो जाऊँगा। भगवान चले गए। भक्त की समझ में अपनी भूल आ गई कि बिना आसक्ति और मोह की निवृत्ति के मुक्ति माँगकर उसने गलती की। भगवान तो चाहते हैं कि मुक्त हों-श्रेयपथ पर आरुढ़ हों। किंतु जब तक मोह और लोभ, आसक्ति और कामनाएं जकड़े रहती हैं, इनसे छुटकारा पाए बिना मोक्ष-जीवन्मुक्ति असंभव है।



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