‘करो या मरो’ का समय है अब यह

April 1999

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बग-बगीचों में जब पुष्प खिलते हैं तो तितलियों, मधुमक्खियों, भारों के समूह-के-समूह मकरंद-पान के लिए इस डाल से उस डाल पर उड़ते हुए नजर आते हैं। इसी तरह जब फसल पकती है तो चिड़ियों के झुँड उसका सफाया करने के लिए टूटते हैं, तो चमगादड़ों और तोतों के समूह उन्हें कुतर डालने में कोई कसर नहीं छोड़ते। ऐसा ही कुछ इन दिनों भी हो रहा है। नवयुग के आगमन में अब बहुत देर नहीं है। फसल में दाने पड़ चुके हैं। फल गदरा रहे हैं। इनके पकने भर की देर है। ऐसा अवसर पाकर यदि विनाशकारी शक्तियां ‘मरता क्या न करता’ की नीति अपनाकर बचने की लड़ाई लड़े तो इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है। जिस प्रकार हारा जुआरी दूने जोश में बढ़-चढ़ कर दाँव लगाता है, कुछ ऐसा ही इन दिनों आसुरी शक्तियां कर गुजरने पर उतारू हैं। प्रत्यक्ष रूप से लगता भी यही है कि असुरता ने कुछ ऐसा ही ताना-बाना बुहा है, परंतु दिव्यदर्शी जानते हैं कि ध्वंस के पीछे सृजन की सुस्पष्ट रूपरेखा तैयार है।

यों तो ध्वंस का इतिहास लंबा है और भयंकर भी। यहाँ इसी सहस्राब्दी में दस हजार के लगभग छोटे-बड़े युद्ध हुए हैं, जिनमें जन-धन की अपार क्षति हुई है। इसी शताब्दी में दो विश्वयुद्धों का रोमाँचकारी वृत्ताँत है। आक्रमण, प्रत्याक्रमणों, कत्लेआमों का लेखा-जोखा ऐसा रहा है जो कुछेक सत्ताधारियों द्वारा समूची जनता को कुचल-मसल कर रख देने की दुदुंभी बजाता है। प्रकृति प्रकोपों का तो कहना ही क्या? लंबा इतिहास जो सामान्य प्रलयों, जलप्रलयों, हिमप्रलयों से भरा पड़ा है, उसकी खोजबीन की जाए, तो भी इस सहस्राब्दी में हुए दुर्भिक्ष-अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूकंपों, ज्वालामुखी विस्फोटों, महामारियों के प्रकोप ऐसे हैं, जो बताते हैं कि विनाश की शक्तियां मानवी अस्तित्व और सृजन की चुनौतियाँ देने में समर्थ हैं। इतने पर भी पर्यवेक्षण करने पर निष्कर्ष यही निकला है कि ध्वंस उल्कापातों की तरह अपनी चमक समेटते हुए अंतरिक्ष में तिरोहित होते गये। जीवित मात्र सृजन ही रहा है। प्रतिद्वन्द्विताएँ, प्रतिकूलताएँ असंख्यों सामने आती रही हैं, पर मनुष्य की अदम्य सत्ता ने उन्हें परास्त करके छोड़ा है और सृजन का रथ अपने गतिचक्र को यथावत बनाये रहा है।

पुरातात्त्विक खोजें बताती हैं कि प्राचीन सभ्यताओं के खंडहरों की बहुत बड़ी श्रृंखला अभी भी यत्र-तत्र बिखरी हुई देखी जा सकती है। उनका अपना ऐतिहासिक महत्व हो सकता है, पर अनवरत गति से चलते रहने वाले सृजन का अपना महत्व है। सृजन ही है, जिसने विशाल नगर बसाने, उद्योग खड़े करने और बढ़-चढ़कर सुविधा-स्रोत जुटाने में हार नहीं मानी है। मरण की भयंकरता से इनकार नहीं किया जा सकता, पर वह नवजीवन की संभावना से अधिक बढ़-चढ़कर नहीं हो सकता। मरने वालों से जन्मने वाले अधिक होते रहे हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध में बम गिरने के बाद मृत समझे जाने वाले जापान ने कुछ ही दशाब्दियों में इतना वैभव अर्जित कर लिया है, जो विनाश पूर्व वाली स्थिति से कहीं अधिक बढ़-चढ़कर है।

सामंतवादी अंधकार युग के पास यों सीमितशक्ति थीं, तो भी अपने प्रभाव क्षेत्र में अनौचित्य को प्रश्रय देने में कोई कोर-कसर नहीं रखी। नैतिक और सामाजिक क्षेत्र में दुष्प्रचलनों का सिलसिला उस मध्यकाल से ही चल पड़ा था, जो पिछली दो-तीन दशाब्दियों में अपने अनुरूप खाद-पानी पाकर और भी परिपुष्ट हो गया। बहुत दिनों से बढ़ता-पकता फोड़ा जब नासूर बनने लगता है और उसका जहर सारे शरीर में फैलने लगता है, तो फिर ची-फाड़ के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं रहता। ठीक इसी तरह इन दिनों समाज में गहराई तक प्रवेश कर गई बुराइयाँ, कुरीतियाँ, असमानताएँ, भ्रष्टाचार, अनाचार आदि का मूलोच्छेदन भी इसी स्तर पर बन सकता है। संभावना है कि प्रकृति अपने ढंग से दंड विधान बनाती भी रह सकती है। स्पष्ट है कि आचरणकर्ता ही नहीं मूकदर्शक बने रहने वाले भी अपराधी ठहराये जाते है। रिश्वत लेने वाले ही नहीं, देने वाले भी अपराधकर्म में साझीदार माने जाते हैं। अनौचित्य चलता रहा और जो अपने मतलब-से-मतलब रखकर जो चल रहा था उसके भी तो गेहूँ के साथ घुन के पिस जाने का उदाहरण बनना पड़ेगा। सूखे के साथ जुड़ा हुआ गीता ईंधन भी भट्टी में जल जाता है। वे निरपराधी नहीं हैं, जो अनीति के चलते उसका प्रतिरोध करने का साहस जुटाने, सज्जनों की संगठित शक्ति उभारने में कोताही बरतते हैं। अगले दिनों कठिनाइयों और विपत्तियों का दौर बना रहने का यह भी एक कारण है। ऐसी दशा में उथल-पुथल भी अपेक्षित रहेगी ही। सृजनचेतना सड़े-गले कूड़े- कचरे को बुहार फेंकने को आतुर दिखती है। जिनके पास तनिक भी विवेक-बुद्धि है वे उसे जानते हैं, समझते भी हैं और सृजेता का साथ देने को समुद्यत भी रहते हैं।

राम-लक्ष्मण को लंबे समय तक वनवास भोगना पड़ा, कारण कि वे उज्ज्वल भविष्य के नवनिर्माण का नियोजन कर रहे थे। पाँडवों को सीमित भारत को महाभारत के रूप में विकसित करना था। उन्हें भी अज्ञातवास में रहना पड़ा। आसुरी आतंक के स्थान पर राम-लक्ष्मण को समय तक वनवास भोगना पड़ा, कारण कि वे उज्ज्वल भविष्य के नवनिर्माण का नियोजन कर रहे थे। पाँडवों को सीमित भारत को महाभारत के रूप में विकसित करना था। उन्हें भी अज्ञातवास में रहना पड़ा। आसुरी आतंक के स्थान पर राम को सतयुगी वातावरण बनाना था। इसलिए उन्हें अभीष्ट समर्थन प्राप्त करने के लिए कठोर वनवास में कष्टसाध्य, अतिकठिन जीवन जीना पड़ा। यह आवश्यक भी था, क्यों कि बिखरी हुई समर्थता को एकजुट होने और प्रतिभा का आक्रोश उभरने का इसके बिना माहौल ही न बनता। जिन्हें बड़ा भारवहन करना था, उन्हें अपने कंधे और भुजदंड भी मजबूत बनाने थे। यह सब सरलता के सहारे नहीं, कठिनाइयों की अग्निपरीक्षा में होकर गुजरने पर ही संभव था। वहीं हुआ भी। इस अप्रिय लगने वाली प्रक्रिया के पीछे स्रष्टा की सुनियोजित विधि-व्यवस्था काम कर रही थी। अपने समय में युगसंधि की अवधि को परीक्षा की घड़ी में होकर गुजरना होगा अर्थात् अगले दो-तीन वर्ष इसी प्रकार गुजारने होंगे, जिसमें पग-पग पर कठिनाइयों से निपटना पड़े और पल-पल में जागरूक सृजनचेतना का परिचय देना पड़े।

भूमि जोतना देखने में खेत में ऊबड़-खाबड़ उत्पन्न करने वाला कार्य लगता है, पर इसके बिना उस क्षेत्र को हरीतिमा से लहलहाता भी तो नहीं बनाया जा सकता। कटते-छँटते रहने वाले पौधे ही उद्यान की शोभा बढ़ाते और अपनी आकर्षकता से दर्शकों का मन मोहते हैं। संसार के महामानवों में कदाचित ही कोई ऐसे हुए हों, जो मखमली गद्दों पर बैठे-बैठे ही ऐतिहासिक पराक्रम का परिचय दे सके हैं। स्वतंत्रता संग्राम के दिनों किन-किन को कितने कष्ट भुगतने पड़े, संपत्ति गँवाने से लेकर फाँसी के फंदे चूमने के लिए साहसपूर्वक कदम बढ़ाने पड़े; उसी बलिदान की उपलब्धि देश की आजादी के रूप में सामने आयी थी। अन्य देशों में राजनैतिक, सामाजिक गुलामी की जंजीरें ऐसे ही कष्टसाध्य साहस की पैनीधार वाली छैनी से कटी हैं। अब मानवी गरिमा को लंका की अशोक-वाटिका से वापस लाने की चुनौती है। उसमें संलग्न प्रयत्नशीलों को सरलतापूर्वक यह सब जुट जाने वाला नहीं है। ‘करो या मरो’ की रीति-नीति अपनाकर ही आसन्न विपत्तियों विकृतियों से निपटा और विजयश्री का वरण किया जा सकता है।

यह निराशा की, भयभीत होने जैसी कोई बात नहीं है। यह तो दीन-हीनों का कापुरुषों का स्वभाव होता है कि वे प्रतिकूलता की बात सुनते ही धैर्य खो बैठते हैं और हक्का-बक्का होकर न सोचने लायक सोचते और न करने योग्य करने लगते हैं। धैर्यवान, साहसी और विवेकशीलों की रीति-नीति दूसरी ही होती है। वे विपक्ष या आक्राँता से निपटने, प्रतिकूलताओं का सामना करने और अपने पराक्रम को वरिष्ठ स्तर का सिद्ध करने के लिए समर्थ एवं सक्षम ही नहीं रहते, वरन् ऐसे अवसरों की तलाश में भी रहते हैं। पहलवान आगे बढ़कर यह पता लगाते रहते हैं कि दंगल-आयोजन कब और कहाँ होगा? ऊँची नियुक्तियों के लिए होने वाली प्रतिस्पर्द्धाओं के लिए उत्सुक लोग स्वयं ढूँढ़-खोज करते और उनमें अपनी समर्थता का परिचय देने के लिए उत्सुक रहते हैं। हो सकता है कि दीन-हीनों की संख्या अधिक हो, पर ऐसे लोगों की भी कमी नहीं, जो फायरब्रिगेडों की तरह अग्निकाँड की सूचना मिलते ही उस जोखिम से जूझते हैं, जो सामान्यजनों को भयभीत करती और दूर बने रहने को विवश करती है। दस्युदल के एकत्रित होने के समाचार पाकर बहादुर पुलिस कर्मचारी दनदनाते हुए उन्हें जा दबोचते हैं। भले ही उनमें से कुछ को इस मुकाबले में जान का जोखिम ही क्यों न उठाना पड़े। बाढ़ के समय डूबने वालों को उबारने के लिए नाविकों-गोताखोरों की भूमिका देखते ही बनती है। साधनहीन तैराक भी ऐसे अवसरों पर मुँह छिपाये नहीं बैठते, वरन् अथाह सागर में कूदकर डूबने वालों को बचाते हैं।

इस संभावना को नकारा नहीं जा सकता कि युगसंधि के अंतिम चरण अगले दिन अनुमानित या अप्रत्याशित कठिनाइयों से भरे होंगे। उनका सामना करने के लिए आवश्यक साहस बटोरने और उसे परिपक्व करने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं। यह कार्य आत्मबल के सहारे ही बन सकता है। प्रस्तुत साधना वर्ष में यही सारा ताना-बाना बुना गया है। साधना-पुरुषार्थ को ठीक उसी प्रकार प्रयास समझा जा सकता है, जिस तरह उच्च शिक्षालयों में एन-सी.सी. जैसी ट्रेनिंग इसलिए दी जाती है कि समय आने पर सुयोग्य सैनिकों की कमी न पड़े। सामाजिक गड़बड़ियों से निपटने के लिए स्काउट-गाइडों से लेकर स्वयंसेवी दलों तक के अनेक संगठन भी प्रशिक्षण प्राप्त करते और समय आने पर अपने स्तर की सराहनीय भूमिका निभाते हैं।

आवश्यक नहीं कि कुयोग आकर ही रहे और उनसे निपटने की आवश्यकता पड़े ही, पर जहाँ तनिक भी वैसी संभावना हो, वहाँ उसके लिए पूर्व प्रबंध तो किया ही जाता है। चौकीदारों की नियुक्ति इसीलिए बनती है। सेना का विशालकाय ढाँचा इसीलिए खड़ा किया जाता है कि समय असमर्थताजन्य क्षति न उठानी पड़े। लोग दुर्घटनाओं का बीमा भी अशुभ की आशंका को ध्यान में रखते हुए ही कराते हैं। अगले दिनों प्रकृति के प्रकोप आ सकते हैं, वस्तुओं के अभाव पड़ सकते हैं। बढ़ती जनसंख्या प्रगति की सभी योजनाओं को निरस्त करके पहले से भी अधिक पिछड़ापन ला सकती है। उभरती गुँडागर्दी संगठित होकर शांति और स्थिरता को चुनौती दे सकती है। अनास्था संकट से ग्रसित मानव समुदाय ऐसी अवाँछनीय गतिविधियाँ अपना सकता है, जिसमें तात्कालिक लाभ की अदूरदर्शिता पारस्परिक स्नेह-सद्भाव को चुनौती देने लगे। जातिभेद, वर्णभेद, संप्रदायवाद, क्षेत्रवाद आदि की आड़ में फूट और विग्रह की शक्तियां लोकमानस को इस प्रकार भ्रमित कर सकती हैं कि लोग अपने हाथों अपना ही अनर्थ सँजोने लगें। नशेबाजी की बढ़ोत्तरी इसका एक प्रत्यक्ष उदाहरण है, जिसके सहारे समझदारों से लेकर नासमझ तक धीमी आत्महत्या करने में लगे हुए हैं। प्रचार माध्यमों जैसे-अखबार, पत्र-पत्रिकाएँ, टेलीविजन, रेडियो, सिनेमा, इंटरनेट जैसे माध्यम लोकमानस को किसे दशा में धकेलने में तत्पर है। असहिष्णुता और अपराधी प्रवृत्ति की छूत भी ऐसी है, जो एक दूसरे को लगती है और सुव्यवस्था को बुरी तरह चरमरा देती है। इस तरह के तमाम उमड़ते हुए अंधड़ और घटाटोप को देखते हुए समय रहते सुरक्षा का प्रबंध किया ही जाना चाहिए।

इसके लिए विचारवान व भावनाशीलों के समुदाय को ढूँढ़-ढूँढ़ कर इस कुशलता से एक सूत्र में पिरोना चाहिए कि उनके द्वारा साधनात्मक पुरुषार्थ से निर्मित कवच को बेध सकना दुर्दांतों के लिए भी संभव न हो। महत्वपूर्ण प्रगति के लिए इससे कम उत्साह और साहस से कम में काम नहीं चलता, जो विपत्ति से जूझने के लिए अपनायी जाती है बड़े काम युद्ध स्तर पर ही आरंभ किये और निपटाये जाते हैं। बात एक ही है प्रचंड आत्मशक्ति का उत्पादन ही अनौचित्य से निपटने में समर्थ हो सकेगा, यह एक सुनिश्चित तथ्य है। सत्य की तरह देवत्व भी अजेय है। ध्वंस और सृजन के द्विविध मोर्चे पर जूझती हुई यह शक्ति उस लक्ष्य तक निश्चित रूप से पहुँचकर रहेगी, जिसे ‘इक्कीसवीं सदी उज्ज्वलभविष्य’ सतयुग की वापसी” धरती पर स्वर्ग का अवतरण एवं मनुष्य में देवत्व का उदय’ आदि नामों प्रतिपादित, निरूपित एवं प्रचारित किया गया है।


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