ऐसी जली भक्ति की ज्योति

April 1999

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था तो वह शहरी व्यक्ति दिल्ली का निवासी किन्तु शहर के भोगभरे वातावरण से वह हमेशा दूर रहता था। आजीविका से वह दर्जी था। अपनी कला में जबरदस्त महारत हासिल थी।उसके हाथ की उंगलियों में भारी चमत्कार था। परन्तु उसे भगवान मेँ लगन थी। संसार के मध्य वह जी रहा था, रोजगार भी करता था किन्तु उसके हृदय में भक्ति की लौ जली रहती थी। वह उसी में मग्न रहता था। प्रभु भक्ति की झटपटाहट कई बार इतनी तीव्र हो जाती कि उसके हाथों का सुई-डोरा जैसा का तैसा रह जाता और वह कार्य करने में विवश हो जाता। हरि के ध्यान में वह ऐसा डूब जाता कि उसे अपने देह तक की सुध नहीं रहती। वह परम आनन्द की समाधि में खो जाता था। इस परमेष्ठी दर्जी को एक बार दिल्ली के बादशाह का बुलावा आया। प्रख्यात दर्जी के रूप में गिनती थी। उसकी प्रशंसा राज दरबार तक पहुँच चुकी थी। बादशाह का बुलावा आना कोई आश्चर्य की बात न थी। बादशाह ने उससे कहा-”दर्जी देखो इस कीमती कपड़े को, इस इत्र में महकती रुई को। इन सब को ले जाओ और हमारे लिए दो सुन्दर तकिये बना लाओ।” “जैसी आज्ञा।” परमेष्ठी ने शाही आदेश सुन लिया और सारा सामान बटोर कर रखने लगा। “तुम्हारी कारीगरी में कोई कच्चाई नहीं रहनी चाहिए। तुम जो पारिश्रमिक माँगोगे मिलेगा।” बादशाह ने पुनः प्रोत्साहित करते हुए सावधान किया। जब लोगों ने यह बात जानी तो परमेष्ठी बादशाह के कीमती कपड़े बना रहा है, तो तो लोग उसकी कुशल कला को देखने के लिए उसके घर आने लगे। कुछ ने तो सलाह भी दे डाली-”भगत! काम खूब ध्यान से करना। बादशाह दिल से बहुत उदार है। प्रसन्न हुआ तो तुम्हें जीवन भर के लिए निहाल कर देगा।” परमेष्ठी भगत सबकी कही बातें सुन रहा था, पर भगवान जैसा सुझाते उसका हाथ वैसा चल रहा था। फल की आशा वह नहीं करता था। उसके होठों पर हरि का नाम रहता था। कर्मरत रहने में ही जिसकी भावना है, वह परमेष्ठी लोगों का बिना मतलब उपदेश सुनकर थोड़ा क्षुब्ध हो उठता था। इतने दिनों में वह तकिया बना चुका था। उसे देख कर लोग उसकी क्लास की प्रशंसा करते हुए कहते थे-वाह भगत वाह। तुम्हारे हाथों में कितनी सुन्दर कला है,धन्य हो तुम। थोड़े दिनों में दूसरा तकिया भी बन गया। दोनों तकिया सामने रखे थे, उनकी शोभा का अवलोकन कर, उसकी कला को देख स्वयँ सर्जनकार मुग्ध हो रहा था। आंखों को चौंधिया देने वाला प्रकाश तकिये में सिले जवाहरातों में फैल रहा था। सुगंधित रुई की सुवास से सारा कमरा महक रहा था। सुन्दर दृश्य और मीठी सुवास मानव को अपने प्रियजनों का स्मरण करा देती है। प्रियजनों की आकाँक्षा जगाती है। कलाकार तो हरिभक्त था, उसे हरि के सिवा दूसरा कौन प्रिय हो सकता था। तकिये की शोभा और मीठे सुवास के के कारण उसके शरीर पर को ई अनजाना प्रभाव होने लगा और कुछ ही पलों में वह भावविभोर हो कर प्रभु के ध्यान में डूब गया। “सुनो! काम पूरा हो गया तो तकिया बादशाह को पहुँचा दो।” पत्नी विमला ने भक्त को स्मरण कराया परन्तु किसने सुना? हरिचरण में जिसका चित्त रमा हो, उसे जगत व्यवहार की बातें कम ही सुनाई में देती है।”यह कीमती वस्तु अधिक दिन तक रहे ठीक नहीं है। उसे बादशाह को दे आओ। “ पत्नी ने सच्ची बात कही थी। परन्तु पति ने कोई उत्तर नहीं दिया था। पत्नी पति को बराबर समझाती रही, इसमें कुछ दिन यों ही बीत गये। उस दिन प्रभू की लीला का स्मरण करते हुए उसका चित्त सीधे जगन्नाथ पुरी पहुँच चुका था। रथयात्रा का दिन था। श्रीजगन्नाथ जी रथ में विराजमान होकर पुरी में भ्रमण कर रहे थे और प्रभु के दर्शनों के लिए भक्तगण टूटे पड़े रहे थे। भिन्न- भिन्न

देशों के, भिन्न- भिन्न जाति के, भिन्न भाषा के बोलने वाले यात्री उस दिन वहाँ एकत्रित हुए थे। परम कृपालु परमात्मा के दर्शन के लिए भक्ति रस में डूबे लाखों लोगों का समुदाय जमा हुआ था। दिल्ली में बैठ परमेष्ठी दैवी कृपा से इस दृश्य को अपनी आंखों से देख रहा था। उसके हर्ष पर पार नहीं था। भगवान की मंगलमूर्ति उसके समक्ष मुस्कुरा रही थी। परमेष्ठी उसे देख देखकर कृतार्थ हो रहा था। इस समय प्रभु के लिए बिछाया गया वस्त्र किसी कारण से थोड़ा फटा था। सेवकजन नया बिछावन लाने के लिए दौड़ रहे थे। परमेष्ठी के अंतर में प्रेरणा हुई, उसने पास में पड़े तकिये को उठाकर भावभीने स्वर में कहा-प्रभु इसे स्वीकार करें। परमेष्ठी ने तकिया फेंका और कृपानिधि प्रभु ने तकिया स्वीकार कर लिया। परमेष्ठी के हर्ष का पार नहीं रहा। वह उन्मत्त बन नाचने लगा।आखिर उसका दिया हुआ तकिया प्रभु ने स्वीकार कर लिया था। संतोष और तृप्ति का आवेश उसके ऊपर मँडरा रहा था। प्रभु कार विराजित रथ तो आगे बढ़ता गया और मानवनेदनी भी उस रथ के पीछे परमेष्ठी की दृष्टि से ओझल हो गयी।आवेग उतर गया और भक्त परमेष्ठी जब सुध में आया, तब वह स्तब्ध रह गया। वह अपने घर में ही था। महाप्रभु जगन्नाथ की मूर्ति, वह रथ यात्रा, वह मानववृंद,इन सके के बीच मानो वह एक स्वप्न था। परन्तु आश्चर्य की सीमा तो यह थी कि आंखों के सामने एक ही तकिया रखा था, तब दूसरा कहाँ गया?उसने उसे पूरे घर के कोने में तलाश किया, परन्तु वह एक ही था। उसका हृदय भक्त का हृदय था। उस भक्त हृदय में गहरी श्रद्धा थीं वह श्रद्धा मकान की दीवारों के बीच पुकार उठी परमेष्ठी। उस तकिये को तो प्रभु श्री हरि ने स्वयँ स्वीकार कर लिया है-यह तेरा अहोभाग्य है। लेकिन मानवी हृदय उसे भीतर ही भीतर डंक भी दे रहा था। यह तकिया तो बादशाह का था, तेरी मिलकियत की वस्तु नहीं थी। तेरी इच्छानुसार उसे दूसरे को देने का तुझे क्या अधिकार था? इतने में किसी ने बाहर से चिल्लाकर पुकार कर पूछा-”हे भाई दर्जी! तकिये तैयार हुए?बादशाह तकिया माँगा रहे है।” “हाँ हाँ! तैयार है, आओ “ और एक तकिया को साथ लेकर परमेष्ठी सिपाही के साथ दरबार में जा पहुँचा। “बादशाह सलामत के हुजूर में पेश किया है। बादशाह तकिये की कारीगरी देखकर बहुत खुश हुआ, बोला-”वाह दर्जी वाह! तुम्हारा कमाल।” अगले ही क्षण बादशाह ने परमेष्ठी की ओर देखते हुए पूछा-” मैंने दो तकिये बनाने को तुमसे कहा था। दूसरा तकिया कहाँ है।” परमेष्ठी नीचे की ओर झुककर नम्रता से बोला-” हुजूर दूसरा तकिया मैंने बनाया था, परन्तु एक तकिये को तो स्वयँ भगवान को नीलांचलनाथ जी ने स्वीकार कर लिया।” “कौन नीलाँचलनाथ?” बादशाह को तैश आ गया। “ नीलाँचलनाथ श्री जगन्नाथ! मेरे प्रभु जन जन के प्रभु।” बादशाह सुनकर अट्ठहास करने लगा दर्जी। तुम्हारा दिमाग तो सही सलामत है न?” ‘जी में सच सच बतला रहा हूँ।’ “ तूने उस तकिये को जगन्नाथ जी को अर्पित कर दिया और उसने उस तकिये को स्वीकार कर लिया?” बादशाह ने गम्भीर होकर पूछा-”जी हुजूर।”

“दिल्ली में रहकर तूने उस तकिये को अर्पित किया और सीधे पुरी में बसे भगवान जगन्नाथ ने उसे स्वीकार कर लिया? “

“जी हाँ! भगवान नीलाँचलनाथ तो अखिल विश्व के नाथ है। सर्वशक्ति मान है। आप इसे असंभव क्यों समझ रहे है।” भक्त ने स्पष्टता की। बादशाह के दिमाग का पारा लगातार ऊपर चढ़ता था।”ऐ दर्जी तू हमें बेवकूफ मत समझ। पागलों सरीखी बातें बन्द कर और दूसरा तकिया लाकर दें।” “ जो घटना घटी थी उसे मैंने आप से निवेदन कर दिया।” परमेष्ठी ने हाथ जोड़कर निवेदन किया।” दूसरा तकिया मेरे पास नहीं है, मैं आपके सामने हाजिर हूँ, जो सजा देंगे भोगूँगा।

परमेष्ठी की बात बादशाह को कपोल कल्पित लगी। वह गरज उठा।” इस दर्जी को जेल में डाल दो। खाना पीना नहीं देना।वह कालकोठरी में भूखा सड़े मरे।” भगवान के अतिरिक्त रक्षकों ने परमेष्ठी को पकड़कर दरोगा को सौंपा और दरोगा ने उसे जेल की अंधियारी कोठरी में बन्द कर दिया। जिस भक्त प्राणी का मन प्रभु के चरणों में रमा हुआ है। उसे जेल अथवा महल के सुख दुख की परवाह नहीं होती॥ भक्त उस धरती पर कही भी रहे, चाहे वह नदी तट पर रम्यस्थल हो अथवा श्मशान की भयानक भूमि, आम का व नहीं अथवा बालू की धधकती रेत। वह तो कही भी आसन लगाकर प्रभू का स्मरण कर सकता है। परमेष्ठी को काल कोठरी मिली, उसे ही उसने प्रभु का मंदिर माना और आसन लगाकर ही हरि का कीर्तन करने लगा-”शरण एक प्रभु तारो रे, शरण एक प्रभु तारो रें।” जेल के चौकीदार तो कुछ देर तक ही इस दर्जी की भक्ति पर हँसे, परन्तु उनका हँसना देर तक चला नहीं। उन्होंने दुख से डर कतार बनते उसे नहीं देखा था। प्रत्येक संयोग को वह अपने प्रभु की लीला मान रहा था। वहाँ काल कोठरी में भी वह भजन कर रहा था, वहाँ न भोजन था न पानी। प्रकाश की एक क्षीणरेखा तक नहीं थी। वहाँ कब दिन होता था कब रात वहाँ उसे पता तक नहीं चलता था।भक्त को इसकी आवश्यकता भी न थी। वह तो सब कुछ उस प्रभु की लीला मानकर संतुष्ट था, लेकिन जो सुख -दुख,यश-अपयश जीवन मृत्यु की चिंता छोड़कर केवल भगवान को ही याद करता है, परमकारुणिक प्रभु भला उसे कैसे भूले।

सकते है, कोई दुख परमेष्ठी दर्जी को दुखी नहीं कर पाया, परन्तु उसका दुख स्वयँ भगवान को दुखी करने लगा। जब वह दुख स्वयँ भगवान से सहन नहीं हुआ तो वे अपने रूप में उसे मिटाने चले आए। उस समय दिल्ली का बादशाह सोये सोये अनुभव करने लगा कि वह भयंकर दुःख भोग रहा है। ऐसी भयानक यातनायें चारों तरफ से उस पर प्रहार कर रही है। इन प्रहार से बचने के लिए वह चीखने चिल्लाने लगा। इसी चीख पुकार से वह जाग गया।जागने पर शरीर का प्रत्येक अंग काँप रहा था। वह जोर जोर से हाँफ रहा था। बादशाह की चिल्लाहट सुनकर बेगम भी जाग गई, नौकर दौड़ आए। रक्षकगण शस्त्र लिए वहाँ आ पहुँचे। सब पूछने लगे क्या हुआ?क्या बात है? बादशाह तब भी काँप रहा था। तभी उसे एक प्रहरी ने सूचित किया।”बादशाह सलामत। कल से कालकोठरी कैदी दर्जी का दरवाजा खुला है। ताला टूटा पड़ा है। कैदा के हाथ की हथकड़ी और पाँव की बेड़ी भी टूटी पड़ी है।” “ और कैदी कहाँ है?” “कैदी तो कभी हँसता है और कभी रोता है, वही ध्यानमग्न बैठा है।” बादशाह आश्चर्य पूर्वक सारी बातें ध्यानपूर्वक सुनता रहा। अन्य उपस्थित लोग एक दूसरे का मुँह ताक रहे थे। आश्चर्य करा स्वयँ जायजा लेने के लिए बादशाह स्वयँ जेलखाने की ओर चल पड़ा। थोड़ा ही आगे बढ़ने पर उसे अपनी चोटी का दर्द में कमी का अहसास हुआ।जैसे जैसे वह काल कोठरी की ओर बढ़ता जाता, उसकी पीड़ा कम होती जाती। अब तो जैसे वह सारी हकीकत समझ गया और शीघ्रता से उस भक्त दर्जी के चरणों में लोट गया। उसने कहा- ” ऐ अल्लाह के बन्दे! मुझे माफ कर दे, मुझे माफ कर दें।” भक्त तो उस समय अपने आराध्य श्रीहरि के मंगलमय रूप का साक्षात दर्शन कर रहा था।वह अमृत का घूँट पी रहा था। “भक्तराज आंखें खोलो।” प्रभु का स्पर्श पा जाने के बाद तो परमेष्ठी के शरीर में अजीब क्राँति चमक रही थी। बादशाह और साथ आये दरबारी जन भक्त के शरीर पर फूटती किरण से इस परिवर्तन को देख रहे थे।बड़ी मुश्किल से भक्त ने आंखें खोली। उसने चारों ओर देखा दिल्लीश्वर उसके चारणों में लोट रहा था। भक्त परमेष्ठी यह देख कर एकाएक घबराकर खड़ा हो गया। सहसा बीते कल का वाक्य उसके होठों से फिसलकर बाहर निकल पड़ा-”बादशाह सलामत! मैं सच कह रहा हूँ। एक तकिया मैंने श्री जगन्नाथ प्रभु को भेंट किया था।”

मैं कबूल करता हूँ।” बादशाह ने दोनों कान पकड़ा और बोला-”औलिया पुरुष! तुम्हारी बात सच है पर अब मुझे माफी दो।” “माफी!” भक्त परमेष्ठी आश्चर्य चकित होकर दो पग पीछे हट गया। “ आपका कोई दोष नहीं है।भूल तारे मेरी ही थीं आपकी ही वस्तु मैंने प्रभु को अर्पित कर दी।”

“अरे संतपुरुष। मैं तो आपके दर्शन पाकर धन्य हुआ। इसी तरह भक्त परमेष्ठी दर्जी की सजा से मुक्त हो कर घर लौटा, परन्तु स्वागत जयनाद से वह तंग हो गया। उसकी प्रभू भक्ति में खलल महसूस होने लगी। उसने दिल्ली छोड़ देने का निश्चय किया। राजा द्वारा सम्मान और लोगों द्वारा वाह वाही ये सब लचकती सीढ़ियाँ है,भक्त ठीक प्रकार से इस सीढ़ी पर स्थित नहीं रह सकता है ओर अपना ध्येय बनाये रखे, इसके लिए उसे एकान्त स्थान चाहिए॥ प्रभु भक्ति में कोई अंतराल न आने पाये, इसके लिए भक्त दिल्ली छोड़कर दूसरी जगह जाकर बस गया। उसे वहाँ कोई उसे अपने जानने वाला नहीं था और इस प्रकार के एकान्त स्थल में उसने प्रभु स्मरण करते हुए जीवनपर्यंत भक्ति की ज्योति जलाये रखी।


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