सच्चे ज्ञानी की तलाश

April 1999

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राजा भोज का दरबार लगा हुआ था। कवि, गायक, सभासद, राजगुरु सभी अपने-अपने स्थान पर आसीन थे। भरी सभा में राजा ने सभासदों के सामने प्रश्न उछाला- “ज्ञान का विशेष निवास कहाँ?” प्रश्न सुनने वाले सब-के-सब राजाश्रित थे। वे जिस किसी तरह महाराज को प्रसन्न रखना चाहते थे। सो उन्होंने चापलूसी भरा जवाब दिया-”ज्ञान का चिरस्थान राजदरबार, महल और हवेलियाँ हैं। यहीं ज्ञान का निवास है। गरीबों के पास न तो बुद्धि है और न ही धन।”

ज्ञान की इस चर्चा को सुनकर दरबार की सजावट करने वाले माली ने राजा से निवेदन किया-”अन्नदाता, मेरी तो सारी उम्र बीत गयी, पर मैंने तो कोई ज्ञान की बगीची या स्थान न तो आँखों से देखा है और न कानों से सुना है। हाँ, अगर आपको प्रकृति की लीला देखनी हो तो मेरी बगीची पर पधारिए।”

महाराज के क्षणभर के लिए कुछ सोचा और तत्काल माघ पंडित को साथ ले उसकी बगीची देखने चल दिए। उज्जैन से दस मील दूर उस बगीची के निरीक्षण के समय उन्होंने माली को अपने साथ चलने से मना कर दिया। राजा अकेले वहाँ घूमते रहे और अंत में लौटते समय रास्ता भूल गए। वहीं कहीं गेंजू के खेत के पास उन्हें एक बुढ़िया मिली। धवलकेश, शरीर झुका हुआ, हिलते हाथ-पैर, डगमग करती गर्दन। वह चिड़ियों से अपने खेत की रखवाली कर रही थी।

राजा और माघ पंडित ने बुढ़िया को राम-राम किया। तत्पश्चात उन्होंने हाथ के इशारे से बुढ़िया से पूछा-”माँ, यह रास्ता कहाँ जाता है?”

राजा के इन प्रश्न को सुनकर बुढ़िया मुसकराई। फिर बोली- “बेटा यह रास्ता तो जहाँ-तहाँ ही रहेगा, पर इस पर चलने वाले मुसाफिर अवश्य ही जाते हैं। पर तुम कौन हो?”

उन्होंने कहा- “माँ हम तो बटोही हैं।”

हिलती गर्दन को थोड़ा और हिलाकर अस्वीकार के स्वर में बुढ़िया ने कहा-”नहीं राह के बटोही तो दो दूसरे हैं।” माघ पंडित को बुढ़िया की इस बात पर अचरज हुआ। उसने अपनी शंका के समाधान के लिए पूछा- “माँ, वे कौन हैं?

“एक चाँद और दूसरा सूरज। वे रात-दिन चलते हैं। पलभर के लिए भी नहीं रुकते। बटोही तो ये हैं, पर तुम कौन हो? “हम तो मेहमान हैं।” उन्होंने जवाब दिया। “ नहीं, मेहमान तो दो दूसरे हैं। एक धन और दूसरा यौवन। धन और यौवन को जाते समय नहीं लगता। मेहमान तो यह हैं। पर तुम बताओ, तुम हो कौन?”

“माँ हम तो परदेशी हैं?”“नहीं परदेशी तो दो दूसरे हैं।” वृद्धा ने गंभीरतापूर्वक कहा-”एक जीव और दूसरा पवन। जीव नौ नाड़ी और बहत्तर कोठों में समाया है, पर दिखता नहीं। पवन के ऊपर की यह शरीर निर्भर है। पर बेटा तुम कौन हो?” “माँ हम तो छैल-भँवर हैं?” बुढ़िया ने उसी लहजे में नकारते हुए कहा-”मुझे तो तुम छैल–भँवर नजर नहीं आते। एक छैल-भँवर अन्न है तो दूसरा पानी। इन दोनों के गले उतरने पर ही मस्ती सूझती है। दो दिन भी अगर ये न मिलें, तो सब मस्ती गायब हो जाती है। तुम छैल-भँवर किस प्रकार हो?”

इस पर उन्होंने कहा-”हम तो निर्बल हैं।” इस पर बुढ़िया ने कहा-”नहीं, तुम तो निर्बल नहीं दिखते। निर्बल तो दूसरे ही हैं। एक भेड़ और दूसरा भिखारी। भेड़ न तो किसी को सताती है और न किसी पर वार करती है। मारने पर भी कुछ नहीं करती। भिखारी को सभी दुत्कारते हैं, उसका किसी से कुछ बस नहीं चलता। निर्बल तो वे हैं। बेटा सच बताओ तुम कौन हो?”

राजा को बुढ़िया की बातों में आनंद आ रहा था। वह उसका ज्ञान परखने के लिए बोला-”माँ हम तो ठग हैं।” वह बोली-”ठग तो ठाकुर और साहूकार दोनों हैं। ठाकुर दूसरों से बेगार लता है और मुफ्त में माल उड़ाता है। साहूकार एक का इक्कीस बनाता है। दो-दो खाते लिखता है और साहूकार कहलाता है। दुनिया में इन दोनों से बड़ा ठग कौन है। ठगाई भी करते हैं और बड़े भी कहलाते हैं। पर तुम कौन हो?”

“माँ, हम तो चोर हैं।” “चोर भी तुम नहीं हो। एक चोर तो है गुरु और दूसरा वैद्य। एक अज्ञान चुराता है, तो दूसरा शरीर की बीमारी। धन और वस्तु की चोरी करने वाला चोर थोड़े ही कहलाता है। मुझे क्यों सताते हो? बताओ बेटा तुम कौन हो?”

“माँ, हम तो जिद्दी हैं।” “अरे बेटा तुम क्या जिद करोगे? जिद्दी तो दो दूसरे ही हैं। एक नख और दूसरा केश। नाखुन और बालों को कितना ही काटो तो भी ये तो बढ़ेंगे ही। क्या तुम इनकी तरह जिद निभा सकते हो। बेटा! थ्जद निभाना कोई सरल काम नहीं है।” “माँ हम तो मतवाले हैं।” “भक्त और ज्ञानी इन मतवालों को देखा है कभी?”-वृद्धा ने दृढ़ता से कहा-”ये दोनों आठों पहर भक्ति और ज्ञान के नशे में डूबे रहते हैं। पीने पर नशा चढ़े और थोड़ी देर में उतर जाए ये नशे में नशा थोड़े ही है। बिना पिए नशा चढ़े और जिंदगी भर न उतरे, वह सच्चा नशा है। तुम इनमें से कौन से मतवाले हो?”

“माँ, तुम मान लो कि हम झूठे हैं।” “झूठे भी तुम नहीं। एक झूठा तो है संत और दूसरा नास्तिक। संत कहता है-मैं भगवान का भेद जानता हूँ और नास्तिक कहता है-भगवान है ही नहीं। मेरे ख्याल से तो इनसे झूठा दुनिया में दूसरा नहीं। झूठा होते हुए भी सच्चे कहलाते हैं, ये ही तो असली झूठे हैं तुम न तो झूठ जानते हो, न सच। मेरे से क्यों मजाक कर रहे हो? सच बताओ बेटा तुम कौन हो?”

राजा ने सोचा इस बार शायद वृद्धा मान जाएगी। खुद ही हमें मजाकिया बता रही है, फिर किसलिए मना करेगी। उसने कहा-”माँ, हम तो मजाकिया है।” बुढ़िया ने फिर उसी लहजे में नकारते हुए कहा-”मजाकिया तो दो दूसरे ही हैं। एक रूप और दूसरी शक्ति। दोनों ही अतुल मजाक करके बुढ़ापे में जम जाते हैं। यह दंतहीन मुख, सलवटें भरा विकृत चेहरा, दुहरी कमर, यह क्या कम मजाक है। भरी जवानी में सोचते हैं कि हम आकाश को मुट्ठी में भर लेंगे, पर वृद्धावस्था में मुँह की मक्खी भी नहीं उड़ती। मेरा हुलिया देखकर क्या तुम्हें पता नहीं चलता कि इन मजाकियों ने मेरे साथ क्या गुजारी है?”

बुढ़िया तो किसी बात में कम नहीं पड़ती। आज वे दोनों उज्जैन का मार्ग तो भूले सो भूले, मानो ज्ञान और विद्या के सभी रास्ते भी भूल गए। वर्षों का घमंड क्षणभर में उतर गया। राजा को विचारमग्न देख माघ पंडित ने कहा-”हम तो ज्ञानी हैं।” यह बात सुनते ही बुढ़िया ने बायें हाथ से माथे पर छज्जा-सा बनाते हुए कहा, “तुम ज्ञानियों की सूरत तो देखूँ।” बारी-बारी से दोनों को देखने के बाद वह बोली-”ज्ञान तो तुम्हारे से कोसों दूर पर भी नहीं। पर बेटा, इसमें तुम्हारा दोष नहीं। ज्ञानी आज तक इस दुनिया में विरले जन्मे हैं और मिलते नहीं। हथेली में रोम मिलें तो ही मनुष्यों की दुनिया में ज्ञानी मिलें।

बुढ़िया की इतनी बातें सुनकर भी राजा और माघ पंडित को गुस्सा नहीं आया। उन्होंने कहा “माँ, हम तो सहनशील हैं।”

कोई बात मानने के लिए तो मानो बुढ़िया का जन्म ही नहीं हुआ था। उसने कहा-”ना, तुम्हें सहनशील कौन कहता है। सहनशील तो दो दूसरे हैं। एक धरती दूसरा वृद्ध। धरती पापी-अधर्मी सभी का भार ढोती है। उसकी छाती को फोड़कर बीज डालो तो भी वह बीजों का विनाश न करके अन्न से कोठियाँ भरती हैं। कलेजे में गहरे-गहरे गड्ढे खोदने पर भी वह मीठा पानी और हीरे-मोती जैसे अमूल्य खजाने सौंपती है और वृक्ष का पत्थर मारो तो वह मीठे फल देता है, तुम्हारे लिए छाया करता है। सहनशील ये हैं। तुम्हारी बातों-ही-बातों में मेरी तो खेत की रखवाली ही बिखर गयी। चिड़ियों ने बहुत-सा खेत उजाड़ डाला।”

गोफण का एक पटाखा छोड़कर बुढ़िया फिर से उनके सामने आ गयी। इस बार राजा ने कहा-”माँ, हम तो शीतल हैं।” वृद्धा ने रहस्यमयी मुसकान बिखेरते हुए कहा, “ना, शीतल तो दूसरे हैं। एक अग्नि और दूसरा ताप।” बुढ़िया के मुँह से यह उलटी ही बात सुनकर दोनों चित्रलिखे से रह गए। बुढ़िया ने उनको सचेत करते हुए कहा-”यों कब तक अचरज करते रहोगे। तुमने अभी जाना ही क्या है। तुम्हें अभी बहुत कुछ समझना है, बहुत कुछ जानना है। हाँ तो मैं क्या कह रही थी कि दुनिया में शीतल वस्तुएँ दो हैं। एक अग्नि दूसरा ताप। अग्नि पेट की ज्वाला शांत करती है और धूप बेशुमार धान उगाकर दुनिया की दाह को दाह को हिमवत् करती है। शीतल नाम तो इनका है, तुम कौन हो?”

साधु के अलावा इतनी बातें कौन सह सकता है? यह सोचकर राजा ने कहा-”माँ, हम तो साधु हैं।” पर बुढ़िया माने जब, उसने कहा-”एक संतोषी और दूसरा अनजान साधु तो ये हैं। जिस मनुष्य को दुनिया में किसी बात का लोभ नहीं, न धन का, न यश का, न वैभव का, न मान का वह साधु है। पूरा ज्ञानी मनुष्य ही इस तरह का संतोषी हो सकता है या फिर निपट अनजानफ साँझ होने को आयी, लेकिन तुमने मेरी मामूली-सी बात का जवाब नहीं दिया।”

अब तो बुढ़िया के सामने हार मानने में ही भलाई है। यह सोच माघपंडित ने कहा”माँ, हम तो निपट मूर्ख हैं।”

यह बात सुनते ही बुढ़िया ने स्वीकृतिसूचक गर्दन हिलाई। कहा “इतनी देर मगजमारी करने के पश्चात अब तुमने सच्ची बात बतायी। दुनिया में मूर्ख केवल दो ही हैं। एक तो राजा और दूसरा दरबारी पंडित। बिना किसी गुण और बुद्धि के राजा अपने आपको ईश्वर के बराबर मानता है और राजा के इस सफेद झूठ को दरबारी पंडित ज्ञान के थोथे हवाले देकर सत्य साबित करने की चेष्टा करता है। मूर्खों की यही तो असली पहचान है कि सर्वथा अयोग्य होते हुए भी स्वयं को श्रेष्ठ मानना और लोभ की खातिर छोटे को बड़ा कहकर दिखाना।”

फिर वह राजा की तरफ देखकर कहने लगी, “तुम तो राजा भोज और यह है माघपंडित। मुझे क्यों घास चरा रहे हो। मैंने राजदरबार में मुफ्त का माल खाकर अपनी जिंदगी व्यर्थ थोड़े ही गँवाई है। मैं अपनी ही आँखों से देखती

हूँ और अपने ही कानों से सुनती हूँ। राजसत्ता के आश्रित दूसरों की आँखों से देखते हैं, दूसरों की बुद्धि से सुनते हैं। जो श्रमशील हैं, चिंतनशील हैं, उन्हें मूर्ख होना सुहाता नहीं। यह मूढ़ता तो निकम्मों के लिए ही ठीक है।”

यह सुनने पर माघ पंडित को गुस्सा आ गया। उन्होंने कहा-”ये सब तो धोखे की अटकलबाजियाँ हैं। मैं सवाल पूछूँ और तुम इसका सही जवाब दो, तो पता चले कि तुम ज्ञानी हो।”

पंडित की यह बात सुनते ही बुढ़िया को हँसी आ गयी। हँसते हुए ही वह बोली- “मुझे ज्ञान से कमाना ही क्या है। मैं तो अपने हाल में मस्त हूँ। अपने ज्ञान को तो वे बखानते हैं, जिनको कुछ पूछना तो पूछ ले। मुझे पता होगा तो बता दूँगी नहीं तो मना कर दूँगी। बेचारा छोटा-सा नटखट मनुष्य अनंत ब्रह्माँड को कितना नाप सकेगा। जानने की भ्राँति उसे अवश्य हो सकती है।”

माघ पंडित ने खूब सोच-विचार कर पूछा-”अच्छा ये बताओ, आकाश से ऊँची चीज क्या है?”

प्रश्न सुनते ही वृद्धा हँस पड़ी। बोली-”खोदा पहाड़ निकली चुहिया। इतना माथा खपाने के बाद भी अंत में यह सवाल पूछा, जिसका जवाब देने में भी लाज आती है। मैं अपनी पोती को बुलाती हूँ ऐसी पहेलियाँ उससे पूछना।” खेत के पार मेड़ पर एक जगह छाया थी। बुढ़िया ने हाथों के कंगन को ऊँचे चढ़ाकर मुँह के चारों ओर घेरा बनाकर जोर से दो-तीन आवाजें दीं। थोड़ी देर में एक छोटी-सी लड़की उछलती-कूदती अपनी दादी के पास आ गयी। वह अजनबी व्यक्तियों की तरफ टुकुर-टुकुर देखने लगी।

राजा भोज उस छोटी-सी पड़की को देखकर सोचने लगे कि उज्जैन का मार्ग तो वे चाहे जिससे पूछकर मालूम कर लेंगे, पर ज्ञान का मार्ग कब और कैसे पता चलेगा। इतने दिन ज्ञान और विद्या के जिन निर्बाध खुले राजपथों पर वह अभिमान के साथ सीना ताने अप्रतिहत गति से सरपट भागे जा रहे थे, वे सभी राजपथ तो अज्ञान की सँकरी और धुँधली पगडंडियाँ मात्र निकले।

बुढ़िया माघ पंडित की तरफ देखकर बोली-”मैं तो इतनी देर में तेरा प्रश्न भूल गयी, इससे फिर पूछना।”

माघ पंडित ने बुढ़िया की पोती की तरफ देखकर पूछा, “बता बेटी आकाश से ऊँची चीज इस दुनिया में क्या है?” बच्ची ने अपने माथे पर हाथ धरकर कहा-”आकाश से ऊँचा यह माथा है। आकाश तो सबको दीखता है, पर यह कब दिखता है? इससे माथा ऊँचा हुआ कि नहीं।”

माघ पंडित ने दूसरा सवाल किया, “पाताल से गहरा क्या है?” बच्ची ने जवाब दिया-”पाताल से गहरा है पेट। दोनों समय भरो, फिर भी खाली का खाली।” “गुड़ से मीठी चीज क्या है? “गुड़ से मीठी जीभ है।” लड़की ने बिना क्षणभर की देर किए बोल दिया।

माघ पंडित फिर सवाल पूछने वाला था कि राजा ने रोक दिया। कहा- “अब ज्यादा मूर्खता दिखाने से कुछ फायदा नहीं। आज हम लोग उज्जैन का मार्ग तो भूल गए, पर दूसरा मार्ग मिल गया है।” राजा ने धीरे से वृद्धा को कहा-”माँ अब तो हमें मार्ग बता दो।” वृद्धा ने कहा- “बेटा दुनिया में मार्ग केवल दो हैं। एक सच का और दूसरा प्रेम का। इनको नहीं भूलोगे तो कहीं भी नहीं अटकोगे।”

उसके बाद वृद्धा उनके साथ काफी दूर तक गयी और मार्ग बताकर कहा- “इस रास्ते चले जाओ, किधर भी मुड़ने की जरूरत नहीं। सीधे उज्जैन पहुँच जाओगे। राजा और माघ पंडित दोनों ही राजपथ पर यह सोचते हुए बढ़ रहे थे कि ज्ञान का यथार्थ स्थान जिज्ञासा है। सच्चे ज्ञानी कहीं भी, किसी भी स्थान में हो सकते हैं।


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