नवसृजन का पावन यज्ञ

June 1998

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नवसृजन की जो चिनगारी हिमालय की ऋषिसत्ताओं ने देवपुरुष परमपूज्य गुरुदेव को सौंपी थी, वह अब महाज्वाला का रूप ले चुकी है। युगपरिवर्तन के हवनकुण्ड में इसकी लपटें प्रबल से प्रबलतर-प्रबलतम हो रही हैं। महाकाल की नित-नवीन प्रेरणाएँ नवसृजन की विविध आयामों को प्रकट कर रही हैं। इसी प्रेरणा से विवश एवं वशीभूत होकर युगतीर्थ-शान्तिकुञ्ज ने एक नए भूखंड को क्रय किया और अब इन दिनों नए सिरे से नए निमार्ण के नए निर्धारण हो रहे हैं। नवनिर्माण के प्रयासों में ऐसी हलचलें हो रही हैं, जिनमें चिरपुरातन को चिरनवीन के साथ जोड़ा जा सके। भारतीय विद्याओं के पुनर्जीवन के साथ उनका समुचित प्रशिक्षण एवं प्रसार हो।

युगपरिवर्तन की पुण्यक्रिया यही है कि व्यक्ति को सुसंस्कृत और समाज को समुन्नत बनाने की इस पुण्यक्रिया की व्यापक प्रतिष्ठा की जाए, जिसे अपनाकर हमारे महान पूर्वज देवोपम जीवनयापन करते हुए, इस पुण्यभूमि को चिरकाल तक स्वर्गादपि गरीयसी बनाए रहे। अतीत के उसी महान गौरव को वापस लाने के इस भगीरथ प्रयत्न को एक शब्द में नवसृजन का पावन यज्ञ कह सकते हैं। इस महायज्ञ की संचालक दैवीचेतना की प्रौढ़ता दिनों-दिन तीव्र होती जा रही है। जहाँ कहीं भी चेतना में जाग्रति का अंश है, वहाँ इसमें सक्रिय भागीदारी के लिए आमंत्रण की पुकार स्पष्ट सुनी जा रही है। आस्थावान् निष्क्रिय रह नहीं सकते। निष्ठा की परिणति अपनी आहुति नवसृजन के पावन यज्ञ में समर्पित करने के रूप में होकर की रहती है। आस्थावान् निष्क्रिय रह नहीं सकते। निष्ठा की परिणति अपनी आहुति नवसृजन के पावन यज्ञ में समर्पित करने के रूप में होकर ही रहती है। श्रद्धा का परिचय प्रत्यक्ष करुणा के रूप में मिलता है। करुणा की अन्तःसंवेदनाएँ पीड़ा और पतन की आग बुझाने के लिए अपनी सामर्थ्य को प्रस्तुत किए बिना रह नहीं सकती। यही चिन्ह है, जिसकी कसौटी पर व्यक्ति की आन्तरिक गरिमा का यथार्थ परिचय प्राप्त होता है। आध्यात्मिकता, आस्तिकता और धार्मिकता की विडम्बना करने वाले तो संकीर्ण स्वार्थपरता के दल-दल में फँसे भी बैठे रह सकते है। पर जिनकी अन्तरात्मा में दैवी-आलोक का वस्तुतः अवतरण होगा, वे लोककल्याण के लिए समर्पित हुए बिना नहीं रहेंगे।

अखण्ड ज्योति और उसके परिजनों के मध्य लम्बे समय से इन्हीं तथ्यों को समझने-समझाने का उपक्रम चलता रहा है। स्वाध्याय-सत्संग की आरम्भिक शिक्षा का प्रयोजन बहुत हद तक पूरा हो चुका। अब परीक्षा की घड़ियाँ हैं। जो पढ़ा या पढ़ाया गया, उसकी पहुँच कितनी गहराई तक हो सकी है, यही जानना परीक्षा का उद्देश्य होता है। जो उत्तीर्ण होते हैं, उन्हीं का परिश्रम और मनोयोग सराहा जाता है, अन्यथा पढ़ने वाले और पढ़ाने वाले दोनों ही अपयश के भागी बनते हैं। भावी नवसृजन का स्वरूप क्या और कैसा होगा, इन्हीं जिज्ञासाओं के समाधान के लिए अखण्ड ज्योति का नवसृजन अंक समर्पित है।


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