युग की माँग-परिव्राजकों का प्रशिक्षण अभियान

June 1998

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

सूर्योदय की निकटवर्ती सम्भावना सर्वप्रथम पूर्व दिशा से प्रकट होती है। उसे ऊषा की लालिमा के रूप में देखा जा सकता है। प्रभाव का प्रकाश धीरे-धीरे बढ़ता है और जो ऊषा को मात्र कुतूहल समझाते थे उसके आधार पर सूर्योदय की सम्भावना को स्वीकार करने में अचकचा रहे थे, उनका भी सन्देह मिटाता है। वे देखते है कि प्रकाश की आभा धीरे-धीरे बढ़ती ही जा रही है। अन्ततः वह समय आ ही पहुँचता है, जब अरुणोदय की आरम्भिक किरणें धरती पर उतरती हैं और देखते-देखते दिनमान की प्रखरता सारे वातावरण में आभा और ऊर्जा के रूप में अपने अस्तित्व का प्रमाण देती है। तब तो सभी को वस्तुस्थिति स्वीकार करती ही पड़ती है। विचारशील इससे पहले ही सम्भावना को समझ लेते हैं और ब्रह्ममुहूर्त में ही अपने प्रभातकालीन कर्तव्य का निर्वाह करने लगते हैं। दूरदर्शी इन्हीं को कहा जाता है।

युग-अवतरण के पीछे महाकाल की इच्छा और प्रेरणा का अनुमान लगाने में जिन्हें असमंजस था, वे भी इस पुण्य-प्रक्रिया को उसी प्रकार सुविस्तृत होते देख रहे है, जैसे कि ऊषा का हल्का-सा आलोक क्रमशः अधिक प्रखर होता और अरुणोदय की प्रत्यक्ष स्थिति तक जा पहुँचता है। इन दिनों ध्वंसात्मक शक्तियाँ भी जीवन-मरण की बाजी लगाकर विघातक विभीषिकाएँ उत्पन्न करने में कोई कमी नहीं रहने दे रही है। फिर भी आशा का केन्द्र यह है कि उनका सामना करने वाले देवत्व का शौर्य और पराक्रम भी निखरता और प्रखर होता चला आ रहा है।

निराशा तभी तक रहती है, जब तक पराक्रम नहीं जनता। चेतना के ऊँचे स्तर जब उभरते हैं, तो न दुष्टता ठहर पाती है, न भ्रष्टता। जीतता सत्य ही है, असत्य नहीं। जीवन ही शाश्वत है, मरण तो उससे आँख-मिचौनी खेलने भर के लिए जब-तब ही आता है। सूर्य और चन्द्र का आलोक अमर है-उस पर ग्रहण तो जब-तब ही चढ़ता है। स्रष्टा की इस सुन्दर कलाकृति की गरिमा शाश्वत है। विकृतियाँ तो बुलबुलों की तरह उठतीं और उछल-कूद का कौतुक दिखाकर अपनी लीला समेट लेती हैं। यदा-यदा हि धर्मस्य’ का आश्वासन देने वाले, युग-विकृतियों का निराकरण करने के लिए समय-समय पर सन्तुलन को सँभाले लिए आता रहा है। आज की विभीषिकाएँ जब दिव्य अवतरण की पुकार करती हैं, तो भला आना-कानी क्यों होती? विलम्ब क्यों लगता? युगान्तरीय चेतना के रूप में महाकाल की अवतरण-प्रक्रिया का परिचय हम सब इन्हीं दिनों प्रत्यक्ष रूप से प्राप्त कर रहे है।

जाग्रत आत्माओं में युग की चुनौती को स्वीकार करने के लिए जो उत्साह उमड़ा है, वह देखते ही बनता है। मूर्छितों और अर्धमृतकों को छोड़कर महाकाल की हुंकार ने हर प्राणवान को युगधर्म का पालन करने की युगसाधना में संलग्न होने की प्रेरणा दी है। इसी के परिणामस्वरूप नवसृजन में योगदान देने के लिए हर समर्थ-असमर्थ के चरण बढ़ रहे हैं। इस महाअभियान के पीछे जो दिव्यप्रेरणा सक्रिय है, उसे कठपुतली नचाने वाले बाजीगर के समतुल्य देखा जा सकता है। अपने छोटे-से परिवार पर उसका विशेष अनुग्रह लगता है। अग्रिम पंक्ति में खड़ा होने का अवसर भाग्यवानों को ही मिलता है। हम लोग उन्हीं सौभाग्यशालियों में हैं, जिन्हें महाकाल से नवसृजन के इस पुण्यपर्व पर ध्वजाधारी अग्रदूतों की भूमिका निभाने का श्रेय मिल रहा है।

अब जबकि नवयुग का आगमन अति निकट आ चुका है, अग्रदूतों का दायित्व और बढ़ गया है। यही समय है कि जब घर-घर नवयुग का संदेश पहुँचाने एवं जन-जन को परिष्कृत दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रव्रज्या में तीव्रता लायी जाए। बीसवीं सदी के बचे हुए इन अन्तिम वर्षों का महत्वपूर्ण कदम परिव्राजक अभियान का पुनर्जागरण है। इसमें ऋषियुग का वानप्रस्थ, सन्तयुग की तीर्थयात्रा और बौद्धयुग की श्रमण संस्कृति का समन्वय है। इसे युगत्रिवेणी कह सकते हैं।

इन्हीं दिनों हमें बादलों की तरह बरसने और पवन की तरह प्राण बिखेरने के लिए साहसी कदम बढ़ाने होंगे। दुर्घटनाग्रस्त, रुग्ण, असमर्थ और पिछड़ी मनोभूमि के लोग समर्थों का पता पाने और उनके दरबार तक पहुँच सकने में असमर्थ रहते हैं। समर्थों को ही अपनी सहज करुणा से प्रेरित होकर उनके यहाँ स्वयं पहुँचना पड़ता है। सूर्य ही प्रकाश फैलाने के लिए परिभ्रमण करता है। चन्द्रमा को ही चाँदनी वितरण के लिए यायावरों की तरह भटकन पड़ता है। अंडे से बाहर निकलते ही पक्षी उन्मुक्त आकाश में विचरण करने लगते है। पका फल पेड़ को छोड़ देता है और अपने रस से दूसरों का परिपोषण करने और नया वृक्ष उगाने के परमार्थ में जुट जाता है। नदियों की वंश-परम्परा यही है। ग्रह-नक्षत्र यही क्रम अपनाकर सृष्टि का सौंदर्य बनाए हुए हैं। प्रगति के इसी तत्त्वज्ञान को ऋषि-परम्परा में प्रमुख स्थान दिया गया है।

भारतीय तत्वदर्शन का, अन्तरात्मा का एक बिन्दु पर दर्शन करना हो तो उसे ‘चरैवेति’ सूत्र के अंतर्गत टटोला जा सकता है। शास्त्रकार का यह अनुभव स्वतः सिद्ध है कि जो सोता है उसका भाग्य सोता है। जो बैठा है उसका भाग्य बैठा है और जिसने चलना आरम्भ कर दिया, उसकी सर्वतोमुखी प्रगति का पथ प्रशस्त हो गया है। अन्त में ऋषि कहता है-चलते रहो, चलते रहो। यह चलना सैलानियों और आवाराओं का नहीं वरन् परिव्राजकों का है, जिसमें शारीरिक एवं मानसिक प्रगति के साथ सामाजिक प्रगति बहुमूल्य आधार जुड़े हुए हैं। व्यक्ति और समाज के उज्ज्वल भविष्य की संभावनाएँ भी इसी धर्मप्रयाण में सन्निहित है। परिपक्व व्यक्तित्व के बहुमूल्य लोकसेवी इसी प्रव्रज्या परस्पर की खदान से निकलते रहे है। इसी सम्पदा से भारत का अतीव देवोपम स्तर का चिरकाल तक बना रहा है। इन्हीं परिव्राजकों ने भारतभूमि को स्वर्गादपि गरीयसी बनाया और समस्त संसार को अपने अजस्र अनुदान से कृत-कृत्य बनाया है।

नवयुग के अवतरण में भी इसी आधार को अपनाना पड़ेगा। जलते दीपक ही नए दीपक जलाते है। साँचे में ही खिलौने ढलते है। व्यक्तित्ववान ही परिष्कृत प्रक्रिया प्रचलन का रूप धारण कर सके तो गौरव भरे अतीत को वापस लाने-मनुष्य में देवता का उदय एवं धरती पर स्वर्ग के अवतरण में किसी प्रकार का संदेह नहीं रह जाएगा।

यद्यपि इन दिनों युगांतरीय चेतना को विश्वव्यापी बनाने के लिए विविध भाषाओं का प्रशिक्षण एवं राष्ट्र व विश्व के कोने-कोने में प्रवेश और प्रज्ञा-पुरश्चरण के आयोजनों द्वारा सूक्ष्म वातावरण के अनुकूलन का प्रयास भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। पर जिसे गंगावतरण के लिए किए गए भागीरथ प्रयास की उपमा दी जा सकेगी वह अगले दिनों आरम्भ किया जाने वाला मिशन का परिव्राजक प्रशिक्षण अभियान ही है। इसमें राम के रीछ-वानर कृष्ण के ग्वाल-बाल बुद्ध के श्रमण और गाँधी के सत्याग्रही नए युग के अनुरूप नया कलेवर धारण करके पनपी परम्परा अपनाते हुए स्पष्टतः देखे जा सकेंगे।

आशा की जाती है जाग्रत आत्माओं के नाम भेजा जा रहा महाकाल का युग-निमन्त्रण निरर्थक नहीं जाएगा। परिव्राजक प्रशिक्षण अभियान को व्यापक बनाने के लिए हजारों-लाखों युगशिल्पियों के सम्मिलित होने की उम्मीद है। निश्चित रूप से बड़ी संख्या में जाग्रत आत्माओं की श्रद्धांजलियाँ युगदेवता की झोली में पड़ेगी। इस भावभरी समय-सम्पदा का उपयोग प्रधानता परिव्राजक प्रक्रिया के अंतर्गत ही होगा। प्रायः सभी के जिम्मे एक ही काम रहेगा-नवसृजन के लिए जन-संपर्क जन-संपर्क के लिए परिभ्रमण। निकट भविष्य में उनकी अधिक संख्या होने पर देश के कोने-कोने में तथा विदेशों में अधिक यम तक डेरा डालकर रहने और युगचेतना उत्पन्न करने के लिए भेजा जाएगा।

विदेशों से भारत में ईसाई मिशनरी हजारों, लाखों की संख्या में आते हैं, पर भारत से एक भी मिशनरी विदेश में नहीं जाता है। भाषणबाजी करके मन्दिर, आश्रम बनाने के नाम पर प्रवासी भारतीयों को लूट लाने के लिए ढेरों योग-शिक्षक और धर्मोपदेशक विदेशों में पहुँचते है। उस वर्ग के प्रति विदेशों में अश्रद्धा ही बढ़ रही है। आवश्यकता ऐसे लोगों की है, जो लम्बे समय तक डेरा डालकर उन क्षेत्रों में भारतीय संस्कृति की जड़ें जमाने का काम कर सकें और अपने आपको उसी में खपा सकें। ऐसे मिशनरी भी परिव्राजकों के प्रशिक्षण के इसी महा-अभियान में से निकलेंगे।

अगले दिनों परिव्राजकों के प्रशिक्षण की वैसी ही व्यवस्था बनायी जा रही है, जैसी कि बौद्ध विहारों में श्रमणों कि शिक्षा-दीक्षा सम्पन्न करने के लिए चलती थी। (1) आत्मसाधना, (2) ज्ञान-संचय (3) सेवा-शिक्षण; इन तीनों का ही समन्वय करके एक पाठ्यक्रम बनेगा। उसे छोटे-बड़े प्रशिक्षण सत्र में पूरा करने के व्यवस्था देव-संस्कृति विश्वविद्यालय के निर्माणाधीन परिसर में रहेगी। इसके उपरान्त ही प्रशिक्षित परिव्राजकों को कार्यक्षेत्र में युगान्तरीय चेतना उत्पन्न करने के लिए थोड़े या अधिक समय के लिए आवश्यकतानुसार भेजा जाता रहेगा।

परिव्राजकों की स्थिति के अनुरूप उनके तीन वर्ग बनाए जाएँगे-

(1) वरिष्ठ परिव्राजक-जो पूरा समय देंगे और शान्तिकुञ्ज को ही अपना भावी निवास मानकर चलेंगे। वर्ष में छह-सात महीने प्रव्रज्या के लिए बाहर रहेंगे। शेष पाँच-छह महीने देव-संस्कृति विश्वविद्यालय में उनकी साधना-शिक्षा चलेगी। ऐसे लोग सपत्नीक रह सकेंगे। महिलाओं की साधना-शिक्षा का पृथक् प्रबन्ध रहेगा। इस श्रेणी के लोगों में कुछ ऐसे भी हो सकते हैं, जो रहें तो अपने-अपने घर पर ही, किन्तु समीपवर्ती क्षेत्र में परिभ्रमण करते रहें।

(2) कनिष्ठ परिव्राजक- इस श्रेणी के समयदानी हर वर्ष न्यूनतम दो महीने बाहर जाया करेंगे। शेष महीनों में अपने क्षेत्रों में ही काम करेंगे। छुट्टी के दिन इसी कार्य में लगाया करेंगे और हर रोज दो घण्टा समय देने की योजना बना लेंगे।

(3) समयदानी परिव्राजक- जिनकी पारिवारिक स्थिति अधिक समय तक घर छोड़ने की नहीं है। वे न्यूनतम दो घण्टा हर रोज और साप्ताहिक छुट्टी जन-संपर्क के लिए नियमित रूप से लगाया करेंगे।

उपर्युक्त तीनों प्रकार के परिव्राजकों की प्रशिक्षण व्यवस्था इन दिनों बनायी जा रही है। इन सबके अलग-अलग पाठ्यक्रम बनाए जाने का कार्यक्रम तीव्र गति से चल रहा है। परिव्राजकों की इस प्रशिक्षण योजना को समग्र एवं सुव्यवस्थित बनाने के लिए यह जानकारी मिलना आवश्यक है कि युग की माँग पर किन जाग्रत आत्माओं में कितना समय देने और उसे जनजागरण में लगाने का साहस है। इस संदर्भ में लगाने का साहस है। इस संदर्भ में शान्तिकुञ्ज हरिद्वार से अपना पूरा विवरण प्रेषित करते हुए पत्र-व्यवहार किया जा सकता है। परिव्राजक प्रशिक्षण अभियान में भागीदार होने वाले महाकाल के अनुदानों से चिरकाल तक लाभान्वित होते रहेंगे। मानवता का इतिहास उन्हें युगनिर्माता के रूप में सदा-सर्वदा स्मरण रखेगा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118