परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी - दीपक से दीपक को आप जलाएँ

June 1998

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(8-4-74 को कुंभ के अवसर पर दिया गया प्रवचन)

गायत्री मंत्र हमारे साथ बोलिए-

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

देवियो, भाइयो! जो कार्य और उत्तरदायित्व आपके जिम्मे सौंपा गया है, वह यह है कि दीपक से दीपक को आप जलाएँ। बुझे हुए दीपक से दीपक से दीपक नहीं जलाया जा सकता। एक दीपक से दूसरा दीपक जलाना हो तो पहले हमको जलाना पड़ेगा, इसके बाद में दूसरा दीपक जलाया जा सकेगा। आप स्वयं ज्वलंत दीपक के तरीके से अगर बनने में समर्थ हो सके, तो हमारी वह सारी-की-सारी आकांक्षा और मनोकामना और महत्त्वाकाँक्षाएँ पूरी हो जाएँगी, जिसको लेकर के हम चले हैं और यह मिशन चलाया है और हमने आपको यह कष्ट दिया है और यहाँ बुलाया है। आपका सारा ध्यान यहीं इकट्ठा होना चाहिए कि क्या हम अपने आपको एक मजबूत ठप्पे के रूप में बनाने में समर्थ हो गये? गीली मिट्टी को आप लाना। ठप्पे पर ठोंकना, तख्ते पर लगाना- वह वैसे ही बनता हुआ चला जाएगा, जैसे हमारे ये खिलौने बनते हुए चले जाते हैं। हमें खिलौने बनाने हैं। खिलौने बनाने के लिए हमने साँचे और ठप्पे मँगाए हुए हैं। साँचे में मिट्टी लगा देते हैं और एक नया खिलौना बन जाता है। एक नए शंकर जी बनते जा रहे हैं। एक नए गणेश जी बन जाते हैं। ढेरों के ढेरों श्रीकृष्ण और शंकर जी बनते जा रहे हैं। कब? जब हमारे पास थापने के लिए ठप्पे हों और साँचा अगर हमारे पास सही न होता, तो न कोई खिलौना बन सकता था, न कोई और चीज बन सकती थी।

मित्रो! हमको जो सबसे महत्वपूर्ण काम मानकर चलना है वह यह कि हमारा व्यक्तित्व किस प्रकार का हो? न केवल हमारे विचारों का वरन्, हमारे क्रिया–कलापों का भी। आपके मन में कोई चीज हैं, आप मन से बहुत अच्छे आदमी हैं, मन से आप शरीफ आदमी हैं, मन से आप सज्जन आदमी हैं, मन से आप ईमानदार आदमी हैं, लेकिन आपका क्रिया-कलाप और आपका लोक-व्यवहार उस तरह का नहीं हैं, जिस तरह का शरीफों का और सज्जनों का होता है। तो बाहर वाले लोगों को कैसे मालूम पड़ेगा कि आप जिस मिशन को लेकर चले हैं, उस मिशन को पूरा करने में आप समर्थ होंगे कि नहीं? मिशन को आप समर्थ बना सकते हैं कि नहीं? आपके विचारों की झाँकी आपके व्यवहार से भी होनी चाहिए। व्यवहार आपका उस तरह का न होगा तो मित्र लोगों को ये पता लगाने में, अंदाज लगाने में मुश्किल हो जायेगा कि आपके विचार क्या हैं और सिद्धान्त क्या हैं? जो विचार और सिद्धान्त आपको दिये गये थे वो आपने अपने जीवन में धारण कर लिये हैं कि नहीं किये हैं। आपका ये बातें मालूम होनी चाहिए,बाहर से नहीं भीतर से मालूम होनी चाहिए। जहाँ कहीं भी आप जाएँगे, आपको अपने नमूने का आदमी बनकर के जाना हैं।

नमूने का उपदेशक कैसा होना चाहिए? नमूने का गुरु कैसा होना चाहिए? नमूने का साधू कैसा होना चाहिए? नमूने को ब्राह्मण कैसा होना चाहिए और गुरुजी का शिष्य कैसा होना चाहिए? ये सारी जिम्मेदारियाँ हमने अनायास ही नहीं लाद दी हैं आप पर। आपको बोलना न आता हो तो कोई शिकायत नहीं हमें आपसे। आपको बोलना न आए, लैक्चर देना न आए, जो प्वाइंट्स और जो नोट्स आपने यहाँ लिए हैं, उन्हीं को जरा फेयर कर लेना और अपनी कॉपी को लेकर के चले जाना। कहना गुरु जी ने आपके लिए हमको पोस्टमैन के तरीके से भेजा है। जो उन्होंने कहलवाया है, हम उस बात को कह रहे हैं। चिट्ठी को पढ़कर के हम आपको सुनाए देते हैं। आप अपनी डायरी के पन्ने खोलकर के सुना देना। मजे में काम चल जाएगा।

हम जब अज्ञातवास चले गये थे, तो उससे पूर्व यहाँ लोगों ने आधा-आधा घंटे के लिए हमारे संदेश टेप कर लिये थे और जहाँ कहीं भी सम्मेलन हुआ करते थे, जहाँ कहीं भी सभाएँ होती थीं, लोग उन टेपों को सुना देते थे। कह देते थे कि गुरुजी तो नहीं हैं पर गुरुजी जो कुछ कह गये हैं, संदेश दे गये हैं, शिक्षा दे गये हैं आपके लिए, उस को आप ध्यान से पढ़ लीजिए। लोगों ने सारे व्याख्यान सुने और उसी तरह मिशन का कार्य आगे बढ़ता चला गया।

देवियों और भाइयों, काम हम करने के लिए चले हैं, उसका सबसे बड़ा और पहला हथियार हमारे पास जो कुछ भी हैं, वह है-हमारा व्यक्तित्व और हमारा चरित्र। हमको जो कोई भी सहायता प्राप्त करनी है, वह रामायण के माध्यम से नहीं, गीता के माध्यम से नहीं, व्याख्यानों के माध्यम से नहीं, प्रवचनों के माध्यम से नहीं, यज्ञों के माध्यम से नहीं पूरा होने वाला है। अगर किसी तरह से हमारे मिशन को सफलता मिलनी है और वह उद्देश्य पूरा होना है तो आपका चरित्र-आपका व्यक्तित्व ही एक मार्ग है, एक हथियार है हमारा। व्याख्यान के बारे में आपको ज्यादा परेशान नहीं होना चाहिए। व्याख्यान अगर आपको न आए तो आपने यहाँ इस शिविर में जो कुछ भी सुना हो, समझा हो उसे ही लोगों को सुना देना। हमने प्रायः यह प्रयत्न किया है कि अपने कार्यकर्ताओं के शिविर जहाँ कहीं भी आपको चलाने पड़े, वहाँ सबेरे प्रातःकाल जाकर के प्रवचन किया करना, जो हमने कार्यकर्ताओं के लिए और आपके क्रिया-कलापों के लिए कहे हैं। यहाँ आपको दूसरे लोग समझा देंगे। कि कार्यकर्ताओं में कहें जाने के लिए प्रवचन कौन-से हैं और जनता में कहें जाने जाने वाले प्रवचन कौन-से हैं। हमको जनता के विचारों का संशोधन और विचारों का संवर्द्धन करने के लिए व्याख्यान करने पड़ेंगे और लोकशिक्षण करना पड़ेगा, क्योंकि आज मनुष्य के विचार करने की शैली में सबसे ज्यादा गलती हैं। सबसे ज्यादा गलती कहाँ हैं? एक जगह हैं और वह यह कि आदमी के सोचने का तरीका बड़ा गलत और बड़ा भ्रष्ट हो गया हैं। बाकी जो मुसीबतें हैं, जो परेशानियों हैं वे तो बर्दाश्त की जा सकती हैं, लेकिन आदमी के सोचने का तरीका अगर गलत बना रहा तो एक भी गुत्थी हल नहीं हो सकती और सारी गुत्थियाँ उलझती चली जाएँगी। इसलिए हमें करना क्या पड़ेगा? हमको जनसाधारण के लिए सबसे महत्वपूर्ण सेवा जो हैं, वह यह करनी पड़ेगी कि उनके विचार करने की शैली, सोचने के तरीके को बदल देंगे तो उनकी कोई भी समस्या ऐसी नहीं हैं, जिसका समाधान न हो सके।

सारी समस्याओं का निदान, समाधान जरूर हो जाएगा, यदि आदमी इस बात पर विश्वास कर ले कि आहार और विहार, खान और पार, संयम और नियम, ब्रह्मचर्य, इनका पालन कर लेना आवश्यक है तो मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि अस्पताल को खोले बिना, डॉक्टरों को बुलाए बिना, इञ्जेक्शन लगवाए बिना, और अच्छी कीमती खुराक का इन्तजाम किए बिना हम सारे समाज को निरोग बना सकते हैं। आदमी की स्वास्थ्य से सम्बन्धित समस्याओं का समाधान हम जरूर कर सकते हैं। हमारी लड़कियाँ पढ़ी-लिखी न हों, गाना-बजाना न आता हो और हमारी स्त्रियाँ सुशिक्षित न हों, उन्होंने एम. ए. पास न किया हो, लेकिन हमने एक-दूसरे के प्रति, प्रेम, निष्ठा और वफादारी की शिक्षा दे दी तो फिर जंगली हों तो क्या, गँवार हों तो क्या, आदिवासी हों तो क्या, भील हों तो क्या, कमजोर हों तो क्या, गरीब हों तो क्या? उन के झोंपड़ों में स्वर्ग स्थापित हो जाएगा। उनके बीच में मोहब्बत और प्रेम, निष्ठा और सदाचार हमने पैदा कर दी तब? तब हमारे घर स्वर्ग बन जाएँगे।

अगर ये सिद्धान्त हम पैदा करने में समर्थ न हो सके, तब फिर चाहे हम सबके घर में एक रेडियो लगवा दें, टेलीविजन लगवा दें। हर एक के घर में हम एक सोफासैट डलवा दें और बढ़िया से बढ़िया बेहतरीन खाने-पीने की चीज का इन्तजाम करवा दें, फिर हमारे घरों की और परिवारों की समस्या का कोई समाधान न हो सकेगा। परिवारों की समस्याओं का समाधान जब कभी भी होगा तो प्यार से होगा, मोहब्बत से होगा, ईमानदारी से होगा, वफादारी से होगा। इसके बिना हमारे कुटुम्ब दो कौड़ी के हो जाएँगे और उनका सत्यानाश हो जाएगा। फिर आप हर एक को एम. ए. करा देना और हर एक के लिए बीस-बीस हजार रुपये छोड़कर मरना। इससे क्या हो जाएगा? कुछ भी नहीं होगा। सब चौपट हो जाएगा।

मित्रों! सामाजिक समस्याओं की गुत्थियों के हल, सामाजिक समस्याओं के चैन विचारों के परिवर्तन से होंगे। कौन मजबूर कर रहा है आपको कि नहीं साहब दहेज लेना ही पड़ेगा और दहेज देना ही पड़ेगा। अगर इन विचारों को और इन रीतियों को ही बदल डालें, ख्यालातों को बदल डालें तो न जाने हम क्या से क्या कर सकते हैं और कहाँ से कहाँ ले जा सकते हैं। हमारे पास सबसे बड़ा काम मित्रों जनता की सेवा करने का हैं। इसके लिए हम धर्मशाला नहीं बनवाते, हम चिकित्सालय नहीं खुलवाते, अस्पताल नहीं खुलवाते और प्रसूतिगृह खुलवाते। हम यह कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति को परिश्रमशील होना चाहिए ताकि उसे किसी प्रसूतिगृह में जाने की और किसी नर्सिंगहोम में जानें की आवश्यकता न पड़े। लुहार होते हैं आपने देखे हैं कि नहीं, गाड़ी वाले लुहार, एक गाँव से दूसरे गाँव में रहा करते हैं। उनकी औरतें घन चलाती रहती हैं। घन चलाने के बाद उन्हें यह नहीं पता रहता कि बच्चा काँख में पैदा होता हैं या पेट में से पैदा होता हैं। आज बच्चा पैदा होता हैं, कल-परसों फिर काम करने लगती हैं। पन्द्रह घंटे घन चलाती हैं, उनकी सेहत और कलाई कितनी मजबूत बनी रहती है। उनको नर्सिंगहोम खुलवाने की जरूरत नहीं हैं। हमको प्रत्येक स्त्री और पुरुष को यही सिखाने की जरूरत है कि हमको मेहनती और परिश्रमी होना चाहिए। परिश्रमशील होने का माद्दा अगर लोगों के दिमागों में हम स्थापित कर सकें, तो मित्रों हमारे घरों की समस्याएँ, परिवारों की समस्याएँ, समाज की समस्याएँ और सारी समस्याएँ जैसे बेईमानी की समस्याएँ आदि कोई समस्या ऐसी नहीं हैं, जिसका हम समाधान न कर सकते हों।

इसलिए महत्वपूर्ण कदम हमको यह बढ़ाना पड़ेगा कि जनता का लोकशिक्षण करने के लिए आप जाएँ और जनता में लोकशिक्षण करें। लोकशिक्षण करने के लिए हमने जो विचारधारा आपको यहाँ दी है, उसे एक छोटी-सी पुस्तक के रूप में छपवा दिया है। ये व्याख्यान जो आपको यहाँ सुनने को मिल हैं, वे सारे के सारे प्वाइंट्स छपे हुए मिल जाएँगे। इनका आप अभ्यास कर लेना और इन्हीं प्वाइंट्स को आप कंठस्थ कर लेंगे और डेवलप कर लेंगे तो क्या हो जाएगा कि सायंकाल के प्रवचनों में जो आपको जनता के समक्ष कहने में पड़ेंगे, बड़ी आसानी से कहने में पूरे हो जाएँगे। कार्यकर्ताओं के समक्ष भी आप यही कहना। जहाँ कहीं भी आपको समझाने की, प्रवचन करने की जरूरत पड़े, आप यह कहना कि गुरुजी ने हमें डाकिये की तरह से भेजा है और खासतौर से आपके लिए एक संदेश लिखकर के भेजा है। लीजिए चिट्ठी को पढ़कर के सुना देते हैं। सबेरे वाले प्रवचन जो हमने दिए हुए हैं, अगर आप सुना देंगे, समझा देंगे, तो वे आप की बात मान जाएँगे। आपको व्याख्यान देना न आता हों और समझाने की बात न आती होगी तो भी बात बन जाएगी। व्याख्यान देना और प्रवचन देना, चाहे आप को न आता हो, कोई हर्ज आपका होने वाला नहीं है। ये जो प्वाइंट्स हमने आप को दिये हैं, किसी भी स्थानीय वक्ता को, किसी भी स्थानीय व्याख्यानदाता को समझा देना और कहना कि जो प्रवचन गुरु जी ने दिये हैं, इन्हें आप अपने ढंग से, अपनी शैली से, बोलने की तमीज होगी अपने तरीके से, आप इन्हीं प्वाइंट्स को समझा दीजिए। कोई भी अच्छा वक्ता जिसको बोलना आता होगा, बोलने का ज्ञान होगा, इन बातों को समझा देगा जो सायंकाल की हैं। ये काम और कोई नहीं कर सकेगा जो आपको करना हैं।

वे कौन-से काम हैं, जो आपको करने पढ़ेंगे? आपको यह करना पड़ेगा कि जहाँ कहीं भी आप जाएँ, जिस शाखा में भी आप जाएँ, एक छाप इस तरह की छोड़कर आएँ कि गुरुजी के संदेशवाहक और गुरुजी के शिष्य जो होते हैं, वे किस तरह से और क्या कर सकते हैं और क्या करना चाहिए। आप यहाँ से जाना और वहाँ इस तरीके से अपना गुजारा करना, इस तरीके से निर्वाह करना जैसा कि संतों का गुजारा होता है और संतों का निर्वाह होता हैं। आप जहाँ कहीं भी जाएँ, अपने खानपान संबंधी व्यवस्था को कंट्रोल रखना। खानपान संबंधी व्यवस्था के लिए हुकूमत मत चलाना किसी के ऊपर। वहाँ जैसा भी कुछ हो, जैसा भी कुछ लोगों ने दिया हो उसी से काम चला लेना। आपको तरह-तरह की फरमाइशें पेश नहीं करनी चाहिए। जैसे कि बारातियों का काम क्या है? बाराती लोग सारे दिन तरह की फरमाइशें पेश करते रहते हैं। और नेताओं का क्या होता है? बजाजियों का क्या होता है? जहाँ कहीं भी वे जाते हैं, तो आर्डर करते रहते हैं और तरह-तरह की चीजों के लिए, अपने खाने-पीने की चीजें, अपनी सुविधा की चीजें, बीसों तरह की अपनी फरमाइशें पेश करते रहते हैं। आपको किसी चीज की जरूरत पड़ती हो, चाहे आपको दिन भर भोजन न मिला हो, तो आप अपने झोले में सत्तू लेकर के जाना, थोड़ा नमक ले करके जाना, छुपाकर के अपने कमरे अपना सत्तू और नमक घोल करके जी जाना, लेकिन जिन लोगों ने आपको बुलाया हैं, उन पर ये छाप छोड़ करके मत आना कि आप चटोरे आदमी हैं और आप इस तरह के आदमी हैं कि आप खाने के लिए और पीने के लिए और अमुक चीजों के लिए आप फरमाइशें लें करके आते हैं। इसलिए हमने एक महीने तक आपको पूरा अभ्यास यहाँ कराया। हमने ये अभ्यास कराया कि जो कुछ भी हमारे पास है साग, सत्तू आप घोल करके खाइए। साग, सत्तू आप खा करके रहिए और जबान को कण्ट्रोल करके रहिए। उन चीजों की लिस्ट को फाड़कर फेंक दीजिए कि अमुक चीजें खाएँगे तो आप पहलवान हो जाएँगे। अमुक चीजें आप खाएँगे तो आप का स्वास्थ्य अच्छा रहेगा। मित्रों हम यकीन दिलाते हैं कि खाने की चीजों से स्वास्थ्य का कोई ताल्लुक नहीं है और अगर आपको घी नहीं मिलता, तो कोई हर्ज नहीं, कुछ आपका बिगाड़ नहीं होने वाला है।

हम आपको कई बार कथा सुनाते रहते हैं। एक बार अपनी अफ्रीका यात्रा की मसाइयों को हमने किस्सा सुनाया था, जिन बेचारों को मक्कामुहैया होती हैं। जिन लोगों के लिए सफेद बीज की दाल मुहैया होती है। जिन लोगों के लिए केवल जंगली केला मुहैया होता है। चार चीज उनको मिलती हैं। न कभी उनका घी मिलता हैं, न कभी और कोई पौष्टिक चीजें मिलती हैं, लेकिन उनकी कलाइयाँ, हाथ कितने मजबूत होते हैं। ओलंपिक खेलों में सोने के मैडल जीतकर लाते और शेरों का शिकार करते रहते हैं, ताकत अनाज में नहीं, ताकत शक्कर में नहीं और ताकत मिठाई में नहीं हैं। मित्रों, ताकत का केन्द्र दूसरा हैं। ताकत की जगह वह है जो गाँधी जी ने अपने भीतर पैदा की थी। घी खाकर के पैदा नहीं की थी उन्होंने। वह अलग चीज है जिनसे ताकत आती हैं। इसलिए जहाँ कहीं भी आप जाएँ, हमारे संदेशवाहक के रूप मे, वहाँ पर आपका खान-पान का व्यवहार ऐसा हो जिससे कोई आदमी यह कहने न पाए कि ये लोग कोई बड़े आदमी आए हैं और कोई वी. आई. पी आए हैं। यहाँ से जब आप जाएँ तो प्यार और मोहब्बत को ले करके जाना। अगर आपके अन्दर कड़वापन रहा हो तो उसको यहीं पर छोड़कर जाना। कड़वापन मत ले कर जाना, अपना अहंकार ले करके जाना मत।

कड़वापन क्या हैं? कड़वापन आदमी का घमण्ड हैं, कड़वापन आदमी का अहंकार हैं। अपने अहंकार के अलावा कडुआ कुछ है ही नहीं। आप जब ये कहते हैं कि हम तो सच बोलते हैं, इसलिए कड़वी बात कहते हैं। ये गलत कहते हैं। सच में बड़ा मिठास होता हैं। उस में बड़ी मोहब्बत होती हैं। गाँधी जी सत्य बोलते थे, लेकिन उनके बोलते बड़ी मिठास होती थी। अँगरेजों के खिलाफ उन्होंने लड़ाई खड़ी कर दी और ये कहा कि आपको हिन्दुस्तान से निकालकर पीछा छोड़ेंगे। आपके कदम हिन्दुस्तान में नहीं रहने देंगे। मारकर भगा देंगे और आपका सारा जो सामान है वो यहीं पर जब्त कर लेंगे और नहीं देंगे। गाँधी जी की बात कितनी कड़वी थी और कितनी तीखी थी। और कितनी कलेजे को चीरने वाली थी। लेकिन उन्होंने शब्दों की मिठास, व्यवहार की मिठास को कायम रखाना चाहिए। अगर आपके भीतर मोहब्बत है और प्यार है, मित्रों! तो आपकी जबान में से कड़वापन नहीं निकलेगा। इसमें मिठास भरी होनी चाहिए। प्यार भरा हुआ रहना चाहिए। प्यार अगर दूसरों को चोट पहुँचाते रहते हैं, आपकी जबान में से निकलता नहीं और मिठास आपकी जबान में से निकलती नहीं आप निष्ठुर की तरह जबान की नोंक में से बिच्छू के डंक के तरीके से मारते रहते हैं, दूसरों को चोट पहुँचाते रहते हैं, और दूसरों का अपमान करते रहते हैं, विचलित करते रहते हैं, तब आपका यह कहने का अधिकार है कि आप सच बोलते हैं।

सच क्या हैं? जैसा आपने देखा हैं, सुना है, उसको ही कह देने का नाम सच नहीं है। सच उस चीज का भी नाम है, जिसके साथ में प्यार भरा रहता हैं और मोहब्बत जुड़ी रहती हैं। प्यार और मोहब्बत का व्यवहार आपको यहीं से बोलना-सीखना चाहिए और जहाँ कहीं भी शाखा में आपको जाना है, कार्यकर्ताओं के बीच में जाना है और जनता के बीच में जाना है, उन लोगों के साथ में आपके बातचीत करने का ढंग, बातचीत करने का तरीका ऐसा होना चाहिए कि उसमें प्यार भरा हुआ हो, मोहब्बत जुड़ी हुई हो। उसमें आत्मीयता मिली हुआ हो, दूसरों का दिल जीतने के लिए और दूसरों पर अपनी छाप छोड़ने के लिए। यह अत्यधिक आवश्यक है कि आपके जबान में मिठास और दिल में मोहब्बत होनी चाहिए। आप जब यहाँ से जाएँ तो इस प्रकार का आचरण ले करके जाएँ ताकि लोगों को यह कहने का मौका न मिले कि गुरुजी के पसंदीदा यही हैं। अब आपकी इज्जत नहीं हैं, हमारे मिशन की इज्जत की रक्षा करना अब आप का काम हैं। अपने वानप्रस्थ आश्रम की रखवाली करना आपका काम है।

हमने ये तीन-तीन तरीके की जिम्मेदारी आपके कंधे पर डाली हैं। इन जिम्मेदारियों आप को आप लेकर जाना। फूँक-फूँक कर के पाँव रखना। आप वहाँ चले जाना, जहाँ कि आबोहवा का ज्ञान नहीं हैं। कहीं गर्म जगह हम भेज सकते हैं, कहीं ठंडी जगह हम भेज सकते हैं। कहीं का पानी अच्छा हो सकता हैं और कहीं का खराब अच्छा हो सकता हैं। आप वहीं जा कर क्या कर सकते हैं? आप बीमार नहीं पड़ सकते। बीमारी के लिए मैं दावा बता दूँगा, आप जहाँ कहीं भी जाएँगे, आप बीमार नहीं पड़ेंगे और बीमारी आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। मैं ऐसी दवा दे दूँगा कि आप चाहे जहाँ कहीं भी जाना और जो चाहें कुछ खिला दे, वही खाते रहना। वेजिटेबिल की पुड़िया खिलाता हो तो पूरे महीने पूड़ियाँ खाना और बीमार होकर आये तो आप मुझसे कहना। मैं ऐसी गोली देना चाहता हूँ कोई भी चीज खिलता हो, आप खाते रहना और आपके पेट में कब्ज की शिकायत हो जाए तो आप मुझसे कहना, मेरी जिम्मेदारी है। आप मुझसे शिकायत करना कि गुरुजी आपकी गोली ने काम नहीं किया, हमको तो कब्ज की शिकायत हो गई।

इसके लिए आप एक काम करना, अपनी खुराक से कम खाना। यहाँ चार रोटी खाना शुरू कर दीजिए। आप जायके के माध्यम से जाएँगे तो हर आदमी के मेहमान होंगे और मेहमान का तरीका हिन्दुस्तान में यह होता है कि जो कोई भी आता है किसी के घर, तो उस आदमी के लिए अगर हम मक्का की रोटी खाते हैं तो उसे गेहूँ खिलायेंगे और हम गेहूँ की खाते हैं तो आपको चावल खिलायेंगे। चावल खाते हैं, तो मिठाई खिलायेंगे। हम अगर छाछ पीते हैं तो आपको दूध पिलायेंगे। हर हिन्दू यह जानता है कि सन्त-महात्मा का वेश पहन कर के आप जा रहे हैं तो स्वभावतः आपको अपने घर की अपेक्षा अच्छा भोजन कराए, अच्छी-अच्छी चीजें खिलाए। यदि आपने अपनी जबान पर कंट्रोल रखा नहीं तो आप जरूर बीमार पड़ जाएँगे आप ध्यान रखिए आबोहवा तो बदलती ही है। यहाँ का पानी आज, वहाँ का कल, वहाँ का पानी परसों। समय का ज्ञान नहीं, कुसमय का ज्ञान नहीं। यहाँ पर आप ग्यारह बजे खाना खा लेते हैं सम्भव है कि कोई आपको दो बजे खिलाए, आपका पेट खराब हो सकता है। आप बीमार हो सकते हैं, लेकिन ये खुराक जो मैंने आपको बताई है, अगर उसको कायम रखेंगे तो आप कभी भी बीमार नहीं होंगे।

मित्रों! हमने लम्बे-लम्बे सफर किये हैं और तरह-तरह की चीजों और तरह-तरह की खुराकें खाने का मौका मिला है। एक बार मैं मध्यप्रदेश गया तो लाल मिर्च साबुत खाने की आदत उन लोगों की थी। रामपुरा में यज्ञ हुआ। यज्ञ हुआ तो वहाँ वो बड़ी-बड़ी पूड़ी परोस रहे थे और ऐसी सब्जी परोस रहे थे जो मुझे टमाटर की सी मालूम पड़ी। लाल रंग का सारे का सारा टमाटर का साग परोस रहे थे। टमाटर मुझे अच्छा भी लगता है, माताजी मेरे लिए अक्सर बना लिया करती हैं। मँगा लेती हैं। मैंने भी मँगा लिया और रख लिया थाली में। जैसे ही मैंने पूड़ी का टुकड़ा मुँह में दिया कि मेरी आँखें लाल-लाल हो गई। अरे यह क्या? गुरुजी यह टमाटर का साग नहीं है, यह तो लाल मिर्च है। जब हरी मिर्च पक जाती है और लाल हो जाती है तो उनको ही पीस करके उसमें नमक और खटाई मिलाकर के ऐसा बना देते हैं-लुगदी जैसी, उसको आप चटनी कह लीजिए। ऐसी भी जगह मुझे जाना पड़ा है कि मैं क्या कहूँ आपसे।

एक बार मैं आगरा गया और वहाँ भोजन करना पड़ा। दाल-रोटी जो घर में खाते हैं, जहाँ कहीं भी जाता हूँ, वही खाता हूँ और वही कहता हूँ कि तुम्हारे घर में जो कुछ भी हो वही खिलाना। नहीं हो तो मेरे लिए बनाना मत, अलग चीज बनाओगे तो मैं खाऊँगा नहीं। अगर तुम पूड़ी रोज खाते हो तो पूड़ी बना दो मेरे लिए। मुझे ऐतराज नहीं, लेकिन तुम हमेशा कच्ची रोटी खाते हो तो मेरे लिए कच्ची रोटी ही बनाना, मक्का की रोटी खाते हो अपने घर में तो, वही खिलाना, क्योंकि मैं तुम्हारा मेहमान नहीं हूँ, तुम्हारा कुटुम्बी हूँ। आगरा में उन लोगों ने दाल बना दी और रोटियाँ धर दीं। दाल में जैसे ही मैंने कौर डुबोया, इतनी ज्यादा मिर्च के मेरे तो बस आँखों में पानी आ गया। मैं क्या कह सकता था। अगर मैं यह कहता कि साहब दाल बड़ी खराब है उठा ले जाइए। यह आपने क्या दे दिया और मेरे लिए तो दही लाइए और वह लाइए। मेरी आँख में से पानी तो आ गया और मैंने एक घूँट पानी पिया, पीने के बाद रोटी के टुकड़े खाता गया, पर दाल में डुबोया नहीं। हाथ मैंने चालाकी से चलाया, जिससे मालूम पड़े कि मैं दाल खा रहा हूँ। दाल खाई नहीं और वैसे ही रूखी रोटी खाता और पानी पीता रहा। पानी पीने के बाद उतर कर आ गया। उसे पता भी नहीं चला, मुझे भी पता नहीं चला। न उसको शिकायत हुई कि आपने ये कैसे खाया।

हमारे यहाँ एक स्वामी परमानन्द जी और नत्थासिंह भी थे पहले। दोनों साथ थे। हम नत्थासिंह और परमानन्द जी को अक्सर बाहर भेज देते थे। दोनों का जोड़ा था। जब भोजन होता था तब स्वामी परमानन्द उससे कहते थे-नत्थासिंह हाँ! देख मैं मर जाऊँ कभी और तुझे ये खबर मिले कि स्वामी परमानन्द मर गया तो ये मत पूछना कि कौन-सी बीमारी से मर गया। पहले से लोगों से कह देना कि परमानन्द ज्यादा खा करके मर गया। सारा घी स्वामी जी खा जाएँ तो भी पता न चले। जहाँ कहीं भी जाते खाने की उनकी ऐसी ललक कि एक बार खिला दीजिए, खाने से पिण्ड छोड़ने वाले नहीं। टट्टियाँ हो जाएँ तो क्या? उल्टियाँ हो जाएँ तो क्या? पर खाने से बात न आने वाले थे वे।

मित्रों हमारी जबान के दो विषय हैं, जबान हमारी बड़ी फूहड़ है। एक विषय इसका यह है कि यह स्वाद माँगती है और जायके माँगती है। आप स्वादों को नियंत्रण करना-जायके को नियंत्रित करना। सन्त जायके पर नियंत्रण किया करते हैं और स्वाद पर नियंत्रण किया करते हैं। जिस आदमी का जायके पर नियंत्रण नहीं है और स्वाद पर नियंत्रण नहीं है, वह आदमी सन्त नहीं कहला सकता। आपने-हमने ऐसे संत देखे हैं जो भिक्षा माँग करके लाए और एक ही कटोरे में-एक ही जगह में दाल को मिला दिया और उसको मिला दिया और इसको मिला दिया और साग को मिला दिया और खीर को मिला दिया और सबको मिला दिया। एक ही जगह मिलाकर खाया। वे ऐसा किसलिए खाते हैं? इसलिए कि वे जबान के जायके पर काबू करके खाते हैं। जबान के जायके का अभ्यास आपको यहाँ नहीं हो सका तो आप जहाँ कहीं भी कार्यकर्ताओं के बीच में जाएँ, आपको एक छाप छोड़ने की बात मन में लेकर के जानी चाहिए कि हम जबान के जायके को कंट्रोल में करके आए हैं। अब देखना आपके ऊपर छाप पड़ती है कि नहीं पड़ती है।

खान-पान का भी हमारे हिन्दुस्तान में ध्यान रखा जाता है। एक महात्मा ऐसे थे जो हथेली के ऊपर रखकर के रोटी खाया करते थे। उनका नाम महागुरु श्रीराम था। अभी भी वे हथेली पर रोटी रखकर खारे वाले महात्मा के नाम से मशहूर है। मैं नाम तो नहीं लेना चाहूँगा पर आप अन्दाज लगा सकते हैं कि मैं किसकी ओर इशारा कर रहा हूँ। इस समय तो वे नहीं करते इस समय तो वे मोटरों में सफर करते हैं और अच्छे चाँदी और सोने के बर्तनों में भोजन करे है। पर कोई एक जमाना था जब हथेली पर रख करके भोजन करते थे। एक ही विशेषता ऐसी हो गई कि सारे हिन्दुस्तान ने विख्यात हो गए। इस बात के लिए प्रख्यात हो गए कि वे हथेली पर रखकर के रोटी खाया करते है। भला आप संत नहीं है तो क्या, महात्मा नहीं हैं तो क्या? आपकी खुराक सम्बन्धी आदत ऐसी बढ़िया होनी चाहिए कि जहाँ कही भी आप जाएँ वहाँ हार आदमी आपको बर्दाश्त कर सकता हो, अफोर्ड कर सकता हो। गरीब आदमी भी ये हिम्मत कर सकता हो कि हमारे यहाँ पंडित जी का भोजन हो। गरीब आदमी को ये कहने की शिकायत न हो कि हमारे यहाँ घी नहीं होता हमारे धर में दूध नहीं होता, हमारे धर में दही नहीं होगा, हम तो गरीब आदमी हैं, फिर हम किस तरीके से उनको बुलाएँगे, किस तरीके से भोजन कराएँगे। आपकी हैसियत संत की होनी चाहिए और संत का व्यवहार जो होता है, हमेशा गरीबों में ज्यादा होता है। गरीबों जैसा होता है, अमीरों जैसा संत नहीं होता, संत अमीर नहीं हो सकता। संत कभी भी अमीर होकर नहीं चला है। जो आदमी हाथी पर सवार होकर जाता है, वह कैसे संत हो सकता है? संत को तो पैदल चलना पड़ता है। संत को तो मामूली कपड़े पहनकर चलना पड़ता है। संत चाँदी की गाड़ी पर कैसे सवारी कर सकता है? आपको यहाँ से जाने के बाद अपना पुराना बड़प्पन छोड़ देना चाहिए और पुराने बड़प्पन की बात भूल जानी चाहिए।

बस, आपको यहाँ से जाने के बाद अपने पुराने बड़प्पन को भूल जाना चाहिए और जगह-जगह ये नहीं करना चाहिए कि हम तो रिटायर्ड पोस्टमास्टर थे या रिटायर्ड पुलिस इंस्पेक्टर थे या हमारे गाँव में जमींदारी होती थी। आप यह मानकर जाना कि हम नाचीज को करके जा रहे है। संत नाचीज होता है। संत तिनका होता है और अपने अहंकार को त्याग देने वाला होता है। यदि आपने अपने अहंकार को त्यागा नहीं और अपने घमण्ड को त्यागा नहीं तो फिर आप संत कहलाने के अधिकारी नहीं हुए। हमारी पुरानी परम्परा थी कि जो कोई भी संत वेश में आता था, उसको भिक्षायापन करना पड़ता था। क्यों? भिक्षायापन कौन करता है? कमजोर होता है ना? संत वेश धारण करने के पश्चात् हर आदमी को भिक्षा माँगने के लिए जाना पड़ता था, ताकि उसका अहंकार चूर-चूर हो जाए। हम अपने ब्रह्मचारियों को जनेऊ पहनाते थे। जनेऊ पहनाने के समय ऋषि अपने बच्चों को भिक्षा माँगने भेजते थे कि जाओ बच्चों भिक्षा माँगो, ताकि किसी बच्चे को यह कहने का मौका न मिले के हम तो जमींदार साहब के बेटे हैं, ताल्लुकेदार के बेटे हैं और धनवान् के बेटे हैं, गरीब के बेटे हैं, हर आदमी का आध्यात्मिकता का आत्मसम्मान अलग होता है और अपने धन का, अपनी विद्या का, अपनी बुद्धि का, अपने पुरानेपन का और अपनी जमींदारी का और अपने अमुक होने का गर्व होता है, वह अलग होता है। आप यहाँ से जाना तो अहंकार छोड़ करके जाना।

मित्रों, कई आदमियों को-चेलों को बार-बार यह कहने की आदत होती है कि जब वक वे अपनी महत्ता और अपना बड़प्पन, अपने अहंकार की बार का सौ बार जिक्र नहीं कर लेंगे, तब तक उनको चैन नहीं मिलेगा। निरर्थक की बात-चीत करेंगे। निरर्थक की बातचीत करने का क्या उद्देश्य होगा? यह उद्देश्य होगा कि मैं ये था और मैंने ये किया था और मैं वहाँ गया था और मेरा ये हुआ था। मैं पहले ये था, मैं पहले ये कहा रहा था-आधा घंटे तक भूमिका बनाएँगे। आधे घंटे भूमिका बनाने के बाद फिर किस्सा शुरू होगा-मैं मैं......मैं.......मैं.......मैं.........मैं....... को अनेक बार कहते हुए चले जाएँगे। लेकिन मित्रों ये समझदारी की बात नहीं है, नासमझी की बात है। जो आदमी अपने मुँह से, अपनी जबान से, अपने बड़प्पन की जितनी बात बताता है, वह उतना ही कमजोर होता चला जाता है और उतनी ही उसकी महत्ता कम होती जाती है। हम आपको जिन लोगों के पास में भेजने वाले हैं, वे फूहड़ लोग नहीं हैं, बेअकल लोग नहीं है, बेवकूफ लोग नहीं है हमने अखण्ड ज्योति पैंतीस वर्ष से निकाली है और पैंतीस वर्ष से जो आदमी अखण्ड ज्योति पत्रिका को पढ़ते हुए चले जा रहे है, वे काफी समझदार आदमी है। इस बात की तमीज उसको है और हर बात की अकल उसको है क्या आप स्तर का है और क्या आपके स्तर का नहीं है। अपने अहंकार के बारे में और अपने बड़प्पन के बारे में आप जितना कम बोलेंगे, उतनी आपकी इज्जत ज्यादा बढ़ती चली जाएगी और अपने अहंकार के बारे में, अपने बड़प्पन के बारे में जितनी शेखी आप बघारेंगे, उतनी ही आपकी इज्जत कम होती जाएगी और लोग यह समझेंगे कि ये कितना घमण्डी आदमी है और लोलुप आदमी है। यह बहुत बड़ाई करना चाहता है और हमको अपने बड़प्पन की बात बताना चाहता है। यह मैं आपको विदा करते समय में उसी तरह की शिक्षा दे रहा है जैसे कि माँ अपनी बेटी को बिदा करने के समय जब ससुराल भेजती है तो तरह-तरह की नसीहतें देती है और तरह-तरह की शिक्षाएँ देती है कि बेटी सास से व्यवहार ऐसे करना। बेटी ससुर से ऐसे व्यवहार करना। बेटी अपनी ननद से ऐसे व्यवहार करना। बेटी अपनी ननद से ऐसे व्यवहार करना। बेटी, इस तरीके से व्यवहार करना। मैं आपको बेटियों की तरीके से नसीहत दे रहा हूँ, क्योंकि मैं आपको ससुराल भेज रहा हूँ।

ससुराल कहाँ? ससुराल का मतलब जनता के समक्ष भेजने से है, जहाँ पर आपका इम्तहान लिया जाने वाला है। आपके व्याख्यान का नहीं, मैं आपसे फिर कहता हूँ कि आपको व्याख्यान देना न आता हो तो कोई डरना मत ओर कन्फ्यूज मत होना। व्याख्यान के बिना भी काम चल जाएगा। आप चुप बैठे रहना-महर्षि रमण के तरीके से, तो भी काम चल जाएगा। पाण्डिचेरी के अरविन्द घोष ने अपनी जबान पर काबू कर लिया था। कण्ट्रोल कर लिया था। उन्होंने लोगों से मिलने से इनकार कर दिया था और कह दिया था कि हम आप लोगों से बातचीत नहीं करना चाहते हैं। बातचीत न करने के बाद भी महर्षि रमण और पाण्डिचेरी के अरविन्द घोष इतने ज्यादा काम करने में समर्थ हो गए, आपको मालूम नहीं है क्या? बहुत काम करने में समर्थ हो सके। जहाँ कहीं भी आप जाएँ जरूरी नहीं है कि आपको स्वयं ही बोलना चाहिए। आप जो प्वाइंट ले करके गए हैं और जो प्वाइंट इस डायरी में भी लिखे हुए हैं और डायरी के अलावा हमने अलग किताब भी छपवा दी है, उससे आपका काम चल जाएगा। जहाँ कही भी आप जाएँगे वहाँ भी आपको ढेरों के ढेरों व्याख्यान देने वाले वक्ता जरूर मिल जाएँगे। उनको आप बोलना और कहना कि देखो भाई ये हमारे डायरी के पन्ने हैं और देखो ये पुस्तक के पन्ने हैं। आपको इन प्वाइंटों के ऊपर ऐसी-ऐसी बातें कहनी हैं। यहाँ हमको बोलकर सुना दो एक बार। आप इम्तहान लेना और जब आपको लग जाएगा कि वह ठीक बोल रहा है तो कहना बेटा कल तुम्हें यह संदेश गुरुजी का वहाँ पढ़ना है। हम तो सिखाने के लिए आए है। हमें थोड़े ही बोलना है। आपको बोलना पड़ेगा, आपको सम्मेलन करना पड़ेगा। हमको तो अपना काम करना है। हमको तो सिखाना है और तुमको बोलना है। तुमको बोलना चाहिए हमारे सामने


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