चिरपुरातन आयुर्वेद की गौरवमयी परम्परा

June 1998

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भारतीय विद्याओं में आयुर्वेद की गौरवमयी परम्परा है। महर्षियों ने इसे अतिपुरातन और शाश्वत कहा है। सुश्रुत के अनुसार, ब्रह्मा ने सृष्टि के पूर्व ही इसकी रचना की। सभी संहिताकारों ने ब्रह्मा से आयुर्वेद का प्रादुर्भाव माना है। भारतीय वांग्मय के प्राचीनतम ग्रन्थ वेदों में आयुर्वेद का ज्ञान दक्ष प्रजापति ने प्राप्त किया। प्रजापति से अश्विनीकुमारों ने और उनसे इन्द्र ने उस ज्ञान को प्राप्त किया- ब्रह्मणा हि यथाप्राक्तमायुर्वेदं प्रजापतिः। जग्राह निखिलेनादावश्विनौ तु पुनस्ततः। मनीषियों ने आयुर्वेद को उपवेद के रूप में स्वीकार किया है। यद्यपि कुछ विद्वान इसे ऋग्वेद का तथा अधिकाँश अथर्ववेद का अविच्छिन्न अंग मानते है। चरणव्यूह तथा प्रस्थानभेद में आयुर्वेद शब्द का प्रयोग हुआ है और वहाँ इसे ऋग्वेद का उपवेद माना गाया है, जबकि चरक, सुश्रुत, कश्यप आदि आयुर्वेदीय संहिताएँ आयुर्वेद का संबन्ध अथर्ववेद से मानती हैं। वैसे अधिकाँश विद्वानों के अनुसार, चिकित्साशास्त्र का उपजीव्य मुख्यतः अथर्ववेद ही है। इसकी नौ शाखाएँ हैं- पैप्पलाद, तौढ़, मौद, शौनकीय, जलद, ब्राह्मपद, देवदर्श एवं चारणवैद्य। गोपथ ब्राह्मण में इसे यद् भेषजं तद् अमृतं यद् अमृतं तद् ब्रह्म के रूप में निरूपित किया गया है।

अथर्ववेद भृग्वडिंगरस के रूप में भी प्रसिद्ध रहा है। अश्विनौ के समान अथर्वण और अंगिरस युग्म भी चिकित्सा की दो प्रचलित पद्धतियों की ओर संकेत करता है। अथर्वण मुख्यतः दैवव्यापाश्रय चिकित्सा करते थे और अंगिरस अंगों के रस से सम्बन्ध रखने के कारण युक्तिव्यापाश्रय से सम्बन्धित थे। व्यवहार में वे क्रमशः सोम और अग्नि तत्व का प्रतिनिधित्व करते थे। वेदों में रुद्र, अग्नि, वरुण, इन्द्र, मरुत आदि देवता भिषक कहे गए हैं। परन्तु अश्विनीकुमारों को देवानां भिषजौ के रूप में निरूपित किया गया है। अश्विनीकुमार आरोग्य, दीर्घायु, शक्ति, प्रज्ञा, वनस्पति तथा समृद्धि के प्रदाता कहे गए है। वे सभी प्रकार की औषधियों के ज्ञाता थे। आथर्वण दधिचि से उन्होंने मधुविद्या और प्रवर्ग्यविद्या की शिक्षा प्राप्त की, अश्विनौ ने वैदिक देवताओं की चिकित्सा की थी। ये काय-चिकित्सा एवं शल्य-चिकित्सा सम्बन्धी दोनों कार्यों में दक्ष थे। आयुर्वेद के आठ अंगों में ये दोनों अंग ही प्रधान है, शेष अंग सामयिक हैं। इन दो प्रधान अंगों के मिश्रित होने से अश्विनौ एक उपाधि थी, जो काया-चिकित्सा एवं शल्य-चिकित्सा दोनों में ही दक्ष व्यक्तियों को प्रदान की जाती थी।

औषधियों तथा स्वास्थ्य से सम्बन्ध रखने वाले दूसरे देवता रुद्र वेदों में वर्णित है। रुद्र को चिकित्सकों में श्रेष्ठतम चिकित्सक कहा गया है-भिषक्तमं त्वा भिषजां श्रृणोमि (ऋग्वेद 2।33।4) रुद्र से औषधियों की याचना हुई, स्तुतस्त्वं भेषजा राशस्यमें (ऋग्वेद 2।33।12) ऋग्वेद में आयुर्वेद के आचार्यों का उल्लेख मिलता है। इनमें प्रमुख हैं दिवोदास और भारद्वाज। इन्होंने धरती में काया और शल्य चिकित्सा का प्रचार-प्रसार किया। वेद में वैद्य का लक्षण बताते हुए कहा गया है कि जो सम्पूर्ण औषधियों को अपने पास ठीक रखता हो, आयुर्वेद का पूर्ण एवं सांगोपांग ज्ञाता हो, युक्ति और योजना को जानने वाला हो, राक्षसों का नाश करने में समर्थ और रोगों को जड़ से उखाड़ने वाला हो। यत्रौषधीः समग्मन राजानः समितामिव विप्रःस उच्वयते भिषग् रक्षोहामीय चातनः।

औषधि का अर्थ है- वेदना को दूर करने वाली वस्तु। ओषं रुग्ज धयति इति औषधि। वेदों में औषधि के लिए माता शब्द आता है- औषधि रीतिमातस्तद्रोदेवी रूपब्रवे।

यजुर्वेद में औषधियों का उपयोग यज्ञकर्म तथा स्वास्थ्य के लिए करने का विधान है। शुक्ल यजुर्वेद में औषधियों की प्रशस्ति मिलती है तथा उनके द्वारा बलास, अर्श, शलीपद, हृदय रो, कुष्ठ आदि रोगों के निवारण का उल्लेख मिलता है। तैत्तरीय संहिता में दुष्टिप्राप्ति, यक्ष्मा और उन्माद के निवारण के लिए मंत्र आए हैं। यहाँ त्रिदोषवाद का स्पष्ट संकेत मिलता है। ऋग्वेद में जो तथ्य सूत्ररूप में हैं, उनका विस्तृत विवरण अथर्ववेद में हुआ है। आयुर्वेद का मौलिक सिद्धान्त त्रिदोष है, जिस पर उनके सभी अंग आधारित हैं। इसके अतिरिक्त शरीर-क्रिया तथा द्रव्यगुण के सम्बन्ध में भी आयुर्वेद की मौलिक विचारधारा है। ऋग्वेद में इन सिद्धान्तों का अत्यन्त सूक्ष्मरूप में उल्लेख है। कालक्रम से आयुर्वेद की सैद्धान्तिक पृष्ठभूमि का भी विकास हुआ है, जिसका निदर्शन अथर्ववेद में मिलता है।

अथर्वण ऋषि ने चिकित्सा को चार भागों में बाँटा है- आथर्वणी आंगिरसी दैवी और मानुषी। इनमें मानुषी चिकित्सा औषधियों से सम्बन्धित है। दैवी चिकित्सा वायु-जल-पृथ्वी आदि की ओर संकेत करती है। अथर्ववेद में रोग दो प्रकार के कह गए हैं- शपथ्य और वरुण। इसमें कृमियों का विस्तृत विवरण मिलता है। इनका वर्गीकरण दृष्ट, अदृष्ट, वर्णभेद, आकृतिभेद तथा अधिष्ठान भेद से किया गया है। वेदों में रोग के तीन कारण बताए गए हैं-1. शरीर अंतर्गत विष, जिसके लिए यक्ष्म शब्द आता है। 2. रोगों के कारण कृमियातुधान। 3. वात, पित्त, कफ। रोग मुक्ति के लिए वेद में प्राकृतिक खनिज, समुद्रज, प्राणिज तथा उद्भिज द्रव्यों का औषधि के रूप में प्रयोग मिलता है। इसमें औषधियों के गुणबोधक बहुत नाम आते हैं, जैसे अंशुमती, अफला, प्रचेतस आदि। अथर्ववेद में वनस्पतियों का उपयोग अलग-अलग तथा स्वतन्त्र रूप से मिलता है। इसमें रसायन के द्वारा मनुष्य को अजर, निरोग एवं दीर्घायु बनाने का भी उल्लेख है- रसायनं च तज्ज्ञेयं यज्जराव्याधिनाशनम्।

ब्राह्मण ग्रन्थों तथा उपनिषदों में भी आयुर्वेद की प्रचुर सामग्री मिलती है। ऐतरेय ब्राह्मण में औषधियों को रोगनिवारकत्व अंजन से नेत्ररोग निवारण, वरुण कोप से जलोदर रोग की उत्पत्ति आदि का उल्लेख हुआ है। गोपथ ब्राह्मण में यह स्पष्ट किया गया है-ऋतु-सन्धियों में रोग की उत्पत्ति होती है। छान्दोग्य उपनिषद् में मधु विद्या प्रसंग, हृदय नाड़ी वर्णन, आहार का रसमय विवेचन एवं दीर्घायुष्य पर पर्याप्त सामग्री मिलती है। बृहदारण्यक उपनिषद् में शरीरांगों का वर्णन, हृदय-वर्णन तथा नेत्र-रचना आदि विषय उपलब्ध होते हैं। कल्पसूत्रों में भी इसी प्रकार का विवेचन हुआ है। यूँ उपनिषदों का प्रतिपाद्य विषय ब्रह्म है, उसी के संदर्भ में आवश्यक चर्चा आयुर्वेद के वाक्यों में की गयी है।

ऋग्वेद में औषधियों की अल्प संख्या का ही वर्णन मिलता है, जो अथर्ववेद में पर्याप्त हो गयी है। मजूमदार के अनुसार अथर्ववेदीय औषधि विज्ञान पर्याप्त उन्नत था, जो दीर्घकालीन अनुभव एवं प्रयोग का परिणाम था। रामायण में वर्णित वृक्ष-वनस्पतियां प्रायः स्पष्ट हैं। जैसे- कुटज अर्जुन, कदम्ब, नीम, अशोक, सप्तवर्ण आदि। रामायण में रावण की यानभूमि का उल्लेख है। इसमें दिए गए आसवों के नाम, यानभूमि का वर्णन पूर्णतया आयुर्वेद के ग्रन्थ के सदृश हैं। रामायण में युद्धकाण्ड के औषध पर्वतानयन अध्याय में औषधि पर्वत का वर्णन हुआ है। इसी पर्वत को अनुमान लंका में लाए। रामायण के अनुसार, ये औषधियाँ-

मृतसंजीवनीं चैव विशल्यकरणीमपि। सुवर्णकरणीं चैव संधानीं चे महौषधीम्॥ ताः सर्वा हनुमन्गृह्म क्षिप्रमार्गन्तुमर्हसि। (वा.रा.यु. 74.।33)

मृत संजीवनी, सुवर्णकरणी तथा संधानकरणी थी, जिन्हें हनुमान लाए। इतिहासकारों के अनुसार, इस काल में आयुर्वेद की शल्यचिकित्सा एवं औषधि चिकित्सा उन्नत अवस्था में थी।

महाभारत में अश्विनौ का उल्लेख चिकित्सा सम्बन्ध में आता है। भीम की विषपान से मुक्ति, कश्यप द्वारा तक्षक साँप से काटे हुए वृक्ष को पुनर्जीवित करना भीष्म की चिकित्सा के लिए दुर्योधन द्वारा शल्य चिकित्सा के लिए दुर्योधन शल्य चिकित्सा निपुण वैद्यों को साथ लाने की घटनाएँ स्पष्ट करती हैं कि आयुर्वेद महाभारत काल में अति विकसित अवस्था में था। कच द्वारा संजीवनी विद्या प्राप्त करना एवं युधिष्ठिर के पास वैद्यों का साथ होना भी इसी तथ्य की पुष्टि करता है। पाणिनि सूत्र ‘तस्य निमित्तं संयोगोत्पातौ’ पर कात्यायन ने वात-पित्त-कफ का उल्लेख किया है। वात के रोगी को वातकी कहा है। पित्त सिध्यादिगण में और श्लेष्मा पामादिगण में आता है। पाणिनि के सूत्र गर्गादिभ्योयंत्र के गर्गादिगण में जतूकर्ण, पराशर, अग्निवेश शब्द आते हैं। कथादिभ्यष्टक के कथादिगण के आयुर्वेद शब्द से ‘तत्र साधुः’ इस अर्थ में आयुर्वेदिक शब्द निष्पन्न हुआ है।

बौद्धकाल के ग्रन्थ ‘सर्द्धम पुण्डरीक’ में आयुर्वेद परम्परा का पता चलता है। इसमें उल्लेख मिलता है, जिस प्रकार इस त्रिसहस्र-महासहस्र लोक धातु में पृथ्वी, पर्वत और गिरिकन्दराओं में उत्पन्न हुए जितने तृण, गुल्म, औषधि-वनस्पतियाँ हैं, उन सबको महाजल मेघ समकाल में वारिधार देता है। एक अन्य ग्रन्थ ‘विनय पिटक’ में स्वेद कर्म, रक्तमोक्षण, काढ़ा पीने, पट्टी बाँधने, घाव भरने आदि चिकित्सा की विवेचना हुई है। इसके अलावा रोगी की सेवा तथा परिचर्या सम्बन्धित सूचनाएँ भी दर्शायी गयी हैं। बौद्धकाल में मुख्य आयुर्वेदिक ग्रन्थ ‘नावनीतकम’ में पाचन, रसायन, बाजीकरण के योग, मुखलेप आदि का विस्तृत विवरण मिलता है।

आयुर्वेद वैदिक काल से चलकर संहिताकाल तक पहुँचा। विषय में समस्त अंग जिसमें समाहित हों, उसे संहिता कहते हैं। प्रारम्भिक काल में आयुर्वेद की अनेक संहिताओं की रचना विभिन्न महर्षियों द्वारा हुई। प्राचीन संहिताओं में चरक संहिता, सुश्रुत संहिता तथा कश्यप संहिता उपलब्ध है। प्रथम दो संहिताएँ पूर्ण रूप से तथा अन्य दो खण्डित रूप में मिलती हैं। सुश्रुत संहिता के उपदेष्टा धन्वन्तरि भगवान विष्णु के अंश माने जाते हैं, जो समुद्र-मंथन से निकले कलश से प्रादुर्भूत हुए थे। वह सभी रोगों के निवारण में कुशल थे। भारद्वाज से आयुर्वेद की शिक्षा ग्रहण कर उसे अष्टांग में विभक्त किया एवं अपने शिष्यों को प्रशिक्षित किया। हरिवंशपुराण, वायुपुराण तथा ब्रह्माण्डपुराण के अनुसार, यह परम्परा इस प्रकार है-काश दीर्घतपा, धन्व, धन्वंतरि, केतुमान, भीमरथ, दिवोदास, प्रदर्तन, वत्स तथा अलर्क।

वैदिककाल में जो महत्व अश्विनौ को प्राप्ति, वही पौराणिक काल में धन्वन्तरि को मिला। अश्विनौ को प्राप्त था, वही पौराणिक काल में धन्वन्तरि को मिला। अश्विनौ के हाथों में जीवन और योग का प्रतीक मधुकलश था, तो धन्वन्तरि को अमृतकलश प्राप्त हुआ। धन्वन्तरि केवल शल्य-तंत्रज्ञ न होकर समस्त आयुर्वेद के ज्ञाता थे। इसी काल में आयुर्वेद के आठ अंग तथा शल्य-तंत्र का विकास हुआ। दिवोदास के काल तक यह पर्याप्त उन्नति कर चुका था। कुछ विद्वानों ने दिवोदास को धन्वन्तरि द्वितीय कहा है। दिवोदास ने ही शल्य प्रधान आयुर्वेद परम्परा प्रचलित की, जिसे धान्वन्तर समुदाय कहते हैं। काशिराज की वंश परम्परा में आयुर्वेद की रक्षा और प्रचार-प्रसार का कार्य प्रारम्भ से ही होता आया है। दिवोदास के 12 शिष्य हुए हैं। दिवोदास-धन्वन्तरि के उपदेशों को सुश्रुत ने अपनी संहिता में उल्लेख किया है। अग्निपुराण में सुश्रुत को गवायुर्वेद, अश्वायुर्वेद आदि से सम्बन्धित बताया गया है। नागार्जुन के ‘उपाय हृदय’ में भी सुश्रुत का उल्लेख हुआ है। इसमें श्रीपर्वत, सह्याद्रि, देवगिरि, मलयाचल आदि पर्वतों का विशद वर्णन मिलता है। चन्दन के लिए मलयज शब्द का प्रयोग सुश्रुत ने ही किया है।

नागार्जुन नाम के अनेक आचार्यों का उल्लेख मिलता है। ‘उपाय हृदय’ के रचयिता दार्शनिक नागार्जुन, गुप्तकालीन नागार्जुन, सरहपा के शिष्य सिद्ध नागार्जुन, रसवैशेषिक के निर्माता भदन्त नागार्जुन आदि के नाम विशेष रूप से विख्यात हैं। इनमें से कौन-से नागार्जुन सुश्रुत संहिता के प्रतिसंस्कर्ता हैं, यह निर्णय करना कठिन है। सुश्रुत संहिता में विषयवस्तु की दृष्टि से सूत्रस्थान में मौलिक सिद्धान्त, शल्य कर्मोपयोगी साधन यंत्र, शास्त्र, क्षार, अग्नि, जलौका आदि, अरिष्ट विज्ञान तथा द्रव्यगुण विज्ञान वर्णित है। निदान स्थान में प्रमुख रोगों का निदान है। शरीर स्थान में शास्त्र का वर्णन हुआ है। चिकित्सा, बाजीकरण, रसायन और पंचकर्म का वर्णन है। कल्पस्थान में विषों का प्रकरण है। उत्तरतंत्र काया-चिकित्सा का खुलासा करता है। इससे स्पष्ट होता है कि मूल संहिता शल्य प्रधान थी, जिसमें अन्य अंगों का समावेश कर अष्टांगपूर्ण बना दिया गया।

जिस प्रकार चरक परम्परा में अग्निवेश चरक तथा दृढ़बल के तीन स्तर हैं, उसी प्रकार सुश्रुत संहिता में आद्य सुश्रुत, नागार्जुन तथा चन्द्रह के चार स्तर हैं। चरक और सुश्रुत ये दो ग्रन्थ आयुर्वेद के आकार ग्रन्थ हैं। इन्हीं के आधार पर अन्य ग्रन्थों हैं। इन्हीं के आधार पर अन्य ग्रन्थों का निर्माण हुआ। वाग्भट्ट ने स्पष्टतः इन दोनों का महत्व स्वीकार किया है। शास्त्र एवं कर्मकुशल वैद्य ही योग्य माने गए हैं। चरककाल में चिकित्सा धर्मार्थ थी। अर्थ और काम इसके उद्देश्य नहीं थे, किन्तु सुश्रुतकाल में वैद्यों के लिए आयुर्वेद अपनी जीवनयात्रा को भी साधन बना। इस काल में चिकित्सा के प्रयोजन धर्म, अर्थ, कीर्ति आदि माने गए। इन दिनों चिकित्सा में औषधि के साथ-साथ मंत्रों का भी प्रयोग होता था। इसी कारण राजा के पास रस-विशारद-वैद्य के साथ मंत्र-विशारद-पुरोहित भी रहने का प्रमाण मिलता है, जो उसे दोषज तथा आगन्तुज व्याधियों से उसकी रक्षा करते थे।

वर्तमानकाल में उपलब्ध चरक संहिता अनेक परिवर्तनों के पश्चात् प्राप्त हुई। आयुर्वेद की परम्परा में ब्रह्मा से प्राप्त इस ज्ञानधारा को कई कड़ियों के उपरान्त पुनर्वसु, आत्रेय ने प्राप्त किया। उन्होंने इस ज्ञान को अपने शिष्य अग्निवेश, भेल, जतूकर्ण, पराशर, हारीत और क्षारपाणि को हस्तान्तरित किया। इनमें सर्वप्रथम आत्रेय के उपदेशों के तंत्ररूप में निबद्ध करने वाले अग्निवेश थे। उसके बाद भेल आदि ने भी अपने तंत्रों की रचना की। सूत्ररूप अग्निवेश तंत्र पर आगे चलकर चरक ने संग्रह तथा भाष्य लिखा, जो चरक संहिता के नाम से विख्यात हुआ। कालान्तर में दृढ़बल ने इसका पुनः प्रतिसंस्कार किया। काल की दृष्टि से वर्तमान चरक संहिता में तीन स्तर हैं 1. उपदेष्टा आत्रेय तथा तंत्रकार्ता अग्निवेश, 2. भाष्यकार चरक, 3. प्रतिसंस्कर्ता दृढ़बल।

पुनर्वसु आत्रेय अत्रि के पुत्र तथा शिष्य दोनों थे। पुनर्वसु आत्रेय, कृष्णात्रेय तथा भिक्षुआत्रेय ये तीन शब्द संहिता में मिलते हैं। आयुर्वेद परम्परा को आगे बढ़ाने के लिए पुनर्वसु आत्रेय का योगदान ही महत्वपूर्ण है। इनके शिष्यों में सर्वप्रथम अग्निवेश का नाम आता है। इन्होंने आत्रेय के उपदेशों को तंत्ररूप में निबद्ध किया था। सुश्रुत में भी छह कायचिकित्सा का उल्लेख है, जो सम्भवतः अग्निवेश आदि छह तंत्रकारों के लिए अभिप्रेत हो सकता है। अग्निवेश तंत्र ने ही परिष्कृत होकर चरक संहिता के रूप धारण किया। 15वीं शताब्दी के टीकाकार शिवदास सेन ने अग्निवेश तंत्र का उद्धरण दिया है। इससे स्पष्ट होता है कि चरक संहिता बनने के बावजूद अग्निवेश तंत्र अपने मूलरूप में बाद तक प्रचलित रहा है, जैसे पातंजलि महाभाष्य लिखे जाने के बावजूद पाणिनि के सूत्रों का अस्तित्व नष्ट नहीं हुआ।

चरक संहिता का मध्यकालीन अंश चरक की ही देन है। इस काल में धन्वन्तरि देवरूप में पूजित थे। चरक संहिता में अथर्ववेद का अधिक प्रभाव दिखाई देता है, इसी कारण देवव्यपाश्रय चिकित्सा भी लोक-प्रचलित थी। इसमें दर्शन, स्पर्श तथा प्रश्न के रूप में विविध रोग-परीक्षण विधि बतायी गयी है। चरक ने अरिष्ट शब्द का प्रयोग औषधीय मद्य के लिए किया है। कौटिल्य अर्थशास्त्र में भी उसका उल्लेख है। फिर भी चरक को स्पष्ट ढंग से उद्धृत करने वाले प्रथम व्यक्ति बाग्भट्ट ही है। वाग्भट्ट प्रथम की रचना ‘अष्टांग हृदय’ चरक का अनुसरण करती है। इससे प्रतीत होता है कि बाग्भट्ट (छठी शती) एक चरक की मान्यता संहिताकार के रूप में हो चुकी थी। लगभग इसी काल में हरिश्चन्द्र ने इसकी व्याख्या का कार्य अपने हाथों में लिया था। कुछ विद्वानों ने चरक का काल दूसरी शती ई. पूर्व बताया है। जिस प्रकार शल्यतंत्र में धन्वन्तरि को सम्प्रदाय घोषित किया गया, उसी प्रकार कार्य-चिकित्सा के लिए चरक सम्प्रदाय का प्रचलन हुआ। बाराहमिहिर तथा पूर्ववर्ती व्याख्याताओं ने भी इस सम्प्रदाय का जिक्र किया है।

गुप्तकाल भारतीय वांग्मय ने पुनरुत्थान का युग था। इस काल में प्राचीन संहिताओं को प्रतिसंस्कृत कर उन्हें युगानुरूप बनाया गया। मान्यता है कि गुप्तकाल में ही आयुर्वेदीय संहिताओं को आधुनिक स्वरूप मिला, जो आज तक प्रचलित है। अतएव चरक संहिता में जो गुप्तकालीन तथ्य उपलब्ध होते हैं, वे दृढ़बल के द्वारा नियोजित माने जाते हैं। दृढ़बल के समय में चरक संहिता काफी लोकप्रिय हो चुकी थी। स्वयं दृढ़बल ने अग्निवेश कृत ग्रन्थ के लिए तंत्र तथा चरक कृत प्रतिसंस्कार हेतु ‘संहिता’ शब्द का प्रयोग किया है। गुप्तकाल में आयुर्वेद पर्याप्त विकसित हो चुका था। इस प्रकार तत्कालीन आयुर्वेद शास्त्र को सामग्रियों से परिपूर्ण एवं सुसज्जित कर चरक संहिता को वैज्ञानिक जगत के समक्ष उपस्थित करने का श्रेय दृढ़बल को जाता है। इसका काल चौथी शती के आस-पास है।

चरककाल में कई परिषदों का वर्णन हुआ है। किसी विषय का निर्णय करने के लिए या समझाने के लिए मिलकर विचार होता था। इसी कारण अत्रिपुत्र ने कहा है, वैद्यसमूहो निःसंशय कारणम्। कश्यप संहिता में भी ‘इतिपरिषद’ कहकर इसे स्पष्ट किया है। यह परम्परा उपनिषद् काल की है। चरक संहिता आत्रेय समुदाय का प्रमुख आकार ग्रन्थ माना जाता है। जिस समय आधुनिक चिकित्सा विज्ञान शैशवावस्था में था, उस समय चरक संहिता में प्रतिपादित आयुर्वेद सिद्धान्तों की गरिमा एवं गम्भीरता से सारा विश्व विस्मित एवं प्रभावित था। आधुनिककाल में चिकित्सा विज्ञान के विख्यात आचार्य असलर इस परम्परा से अत्यन्त प्रभावित हुए थे। आयुर्वेद की बृहत्रयी में चरक परम्परा मूर्धन्य मानी जाती है। मध्यकाल में श्रीहर्ष ने नैषधीय चरित में चरक का निर्देश किया है। वाग्भट्ट ने भी इसे प्रथम स्थान दिया है तथा इसे अधिक उपादेय ठहराया है। चरक संहिता का अरबी अनुवाद 8वीं शती में ‘शरक इण्डियानस’ के रूप में लिखा है कि चरक संहिता का अनुवाद संस्कृत से फारसी और उससे अरबी में हुआ।

भेल अग्निवेश के सहाध्यायी एवं पुनर्वसु आत्रेय के प्रमुख छह शिष्यों में थे। इन्होंने भेल संहिता की रचना की। चरक संहिता की शैली पर इसके स्थानों और अध्यायों का विभाजन है। इसकी योजना अग्निवेश तंत्र के समान थी। इसमें आयुर्वेद के विभिन्न अंगों-काय चिकित्सक और मूल चिकित्सक दोनों का साथ-साथ उल्लेख है। इससे दोनों का साथ-साथ उल्लेख है। इससे दोनों का समान प्रचार सूचित होता है। इसमें शल्यकर्म का भी निर्देश अश्मरी, उदर वातरक्त में हुआ है। ‘आयुर्वेद का वांग्मय में प्रियव्रत शर्मा ने हारीत संहिता का वर्णन किया है। यह वाग्भट्ट तथा उसके बाद के व्याख्याकारों द्वारा उद्धृत की गयी है। इसके अनुसार इस काल में आठ प्रकार कि चिकित्सा में यंत्र, शास्त्र, अग्नि, क्षार, औषधि, पथ्य, स्वेदन और मर्दन का प्रचलन था। जतूकर्ण, क्षारपाणि, पराशर आदि चिकित्साशास्त्रियों ने भी अपनी-अपनी संहिताओं की रचना कर आयुर्वेद की परम्परा को नवगति एवं नूतन संचार प्रदान किया।

आयुर्वेद की इस परम्परा में काश्यपसंहिता विशेषतौर पर उल्लेखनीय है। यह वृद्ध जीवक तंत्र का ही दूसरा नाम है। इसमें महर्षि कश्यप उपदेष्टा हैं। तथा ऋचीक पुत्र वृद्ध जीवक ने उनके उपदेशों को सूत्र रूप में निबद्ध किया है। इस संहिता में सूत्र, निदान, विमान, शरीर, इन्द्रिय, चिकित्सा, सिद्धि तथा कल्प ये आठ स्थान हैं। इसे छठी शती ई. पूर्व यानि कि बुद्ध के समकालीन माना जाता है। इसके बाद जीवकसंहिता, खरनाद संहिता तथा विश्वामित्र संहिता ने आयुर्वेद को और भी सामयिक एवं समृद्ध किया। आयुर्वेद के क्षेत्र में चार वाग्भट्ट विदित हैं, वृद्ध वाग्भट्ट, मध्य वाग्भट्ट, लघु वाग्भट्ट एवं रस बाग्भट्ट। 'अष्टांग संग्रह’ के रचयिता वृद्ध वाग्भट्ट प्रथम के नाम से प्रसिद्ध है। इन्होंने अनेक प्राचीन संहिताओं को आधार लेकर युगानुकूल ग्रन्थ बनाए व इसका प्रचार-प्रसार किया। इनका काल बाराहमिहिर के काल (505-587) के लगभग माना जाता है। विषों का चिकित्सकीय उपयोग इन्होंने ही सर्वप्रथम बताया है। इनके काल में चिकित्सा में विषों और धातुओं का प्रयोग विशेष रूप से होने लगा था। इसी के साथ सरलतम वानस्पतिक द्रव्यों का प्रचलन अधिक था। इनके अन्य ग्रन्थ अष्टांगावतार, अष्टांग निघण्टु आदि है।

वाग्भट्ट प्राचीनकाल के अन्तिम संहिताकार थे। परंतु उनके द्वारा दिए गए सिद्धान्तों का अनुसरण मध्यकाल एवं आधुनिककाल तक निरन्तर होता रहा है। मध्यकाल में उग्रादित्यकृत कल्याण-कारक नागार्जुन लिखित योगशतक, सिद्धिसार संहिता, वररुचिकृत संहिता, नागमतृतंत्र, पण्डित केशव द्वारा रचित आयुर्वेद प्रकाश प्रमुख है। इस काल में दामोदर सुनु शार्डगधर द्वारा लिखित ‘शार्डगर संहिता’ विशेष उल्लेखनीय है। यह मध्यकाल की एकमात्र संहिता है, जो तत्कालीन प्रवृत्तियों एवं विचारों का प्रतिनिधित्व करती है। इसके अनुसार उस समय आयुर्वेद जगत में औषधि-द्रव्य औषधि कल्पनाएँ, चिकित्साक्रम तथा रसौषधियों का भी प्रचलन बढ़ गया था। कल्पनानुसार ही चिकित्सा अपनाई जाती थी।

मध्यकाल में अधिकाँश आयुर्वेद विद्वान एवं टीकाकार हुए, जिन्होंने आयुर्वेद के प्रचलन एवं परम्पराओं की गति दी। आठवीं शती में आषाढ़ वर्मा, हिमदत्त, क्षीरस्वामीदत्त, शिव-सैन्धव वैष्णव, चेल्लदेव तथा पतंजलि ने आयुर्वेद की परम्पराओं को आगे बढ़ाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत की। पतंजलि प्रणीत ‘चरकवर्तिका’ आयुर्वेद की मुख्य कृति है। 9वीं शती में जेज्जट ने वृहत्त्रयी की सभी संहिताओं पर व्याख्या लिखी। गयदास, चक्रपाणि, डल्हड़, विजय परीक्षित, निश्चलकर, शिवदास सेन प्रभृति टीकाकारों ने जेज्जट को उद्धृत किया। माधव ने ‘सुश्रुत श्लोक वार्तिका’ की रचना की। इस काल में सुधीर, अमितप्रभ तथा भ्रदवर्मा भी प्रसिद्ध हुए। दसवीं शताब्दी में चन्द्रनन्दन, भासदत्त, ब्रह्मदेव, भीमदत्त, अंगिरी, ईश्वर सेन आदि ने आयुर्वेद की परम्परा को अग्रसर किया। चन्द्रनन्दन ने ‘अष्टांग हृदय’ पर ‘पदार्थ चन्द्रिका’ नामक टीका लिखी। तीसराचार्य के पुत्र चन्द्रढ ने अपने पिता की रचना ‘चिकित्सा कलिका’ पर ‘योगरत्न समुच्चय’ नामक चिकित्सा ग्रन्थ लिखा। इन्होंने योगमुष्टि, चन्द्रढसारोद्धार तथा वैद्यक कोष भी लिखा।

11वीं शती में भास्करभट्ट, नरदत्त, सुवीर, वंगदत्त, नन्दी, वराह, कीर्तिकुण्ड, वृन्दकुण्ड, श्रीकृष्णवैद्य, गयी सेन आदि आयुर्वेदाचार्य हुए। चक्रपाणि ने चरक संहिता पर आयुर्वेद दीपिका नामक व्याख्या लिखी। यह बंगाल में बहुत प्रचलित-प्रचारित हुई। इन्होंने आयुर्वेद प्रचार के लिए देशव्यापी भ्रमण किया। इनके अलावा इस काल में गदाधर, वाष्पचन्द्र, ईशानदेव, गुणाकर, ध्रुवपाद, भव्यदत्त, बबुलकर, सनातन, विजयरक्षित, कण्डदत्त प्रभृति विद्वानों ने आयुर्वेद के क्षेत्र में अपना योगदान प्रस्तुत किया। 13वीं शती में अरुणदत्त, इन्दु, निश्चलकर, हेमाद्रि, वोपदेव तथा आशाधर का उल्लेख मिलता है। वोपदेव ने आयुर्वेद में 9 ग्रन्थ लिखें तथा अपने पिता के सिद्धयंत्र पर प्रकाश व्याख्या और स्वरचित शतश्लोकी पर चन्द्रकला व्याख्या लिखी। 14वीं शती में आयुर्वेद परम्परा पर्याप्त विकसित रूप में थी। इस काल में आढ़ भल्ल ने षार्डगधर पर दीपक टीका लिखी। इसके बाद वाचस्पति ने अपना योगदान दिया। 15वीं शती में शिवदास सेन ने चरक परम्परा पर अधिक बल दिया। वे चरक संहिता की तत्व प्रदीपिका व्याख्या के रचयिता है। कुछ विद्वानों ने भावप्रकाश को 16वीं शती का माना है। 17वीं शती में काशीराम वैद्य ने षार्डगधर संहिता पर गूढ़ार्थ टीका लिखी है। नरसिंह कविराज तथा रुद्रभट्ट ने भी आयुर्वेद के क्षेत्र में अद्वितीय कार्य किया। 18वीं शती में रामसेन मीरजाफर के राजवैद्य कवीन्द्र मानी के रूप में प्रसिद्ध हुए। रसेन्द्र सार-संग्रह तथा रसेन्द्र चिन्तामणि पर इन्होंने टीका लिखी है। 11वीं शती में गंगाधर राय ने चरक संहिता पर जल्पकल्पतरु नामक विद्वतापूर्ण रचना की। इनकी शिष्य-परम्परा बड़ी लम्बी है, जो सारे भारत में फैली हुई है।

आयुर्वेद की प्राचीन यात्रा अनेक परिवर्तनों को पार करके बीसवीं शती तक पहुँची। इस काल में हाराचन्द्र चक्रवर्ती योगीन्द्रनाथ सेन, ज्योतिषचन्द्र सरस्वती, दत्ताराम चौबे, जयदेव विद्यालंकार, अत्रिदेव विद्यालंकार, रामप्रसाद शर्मा, गोविन्द घाणेकर, दत्तात्रेय अनन्त कुलकर्णी, लालचन्द्र वैद्य आदि प्रसिद्ध आयुर्वेदाचार्य हुए हैं, जिन्होंने आयुर्वेद के मूलतत्वों को बरकरार रखते हुए उन्हें विकसित किया। परन्तु बीसवीं सदी के इस अन्तिम दौर में पदार्थ विज्ञान एवं चिकित्सा विज्ञान ने शोध-अनुसंधान की अनेकों कसौटियाँ सामने रख दी है। ऐसे में इन पर अपने को खरा साबित करके ही आयुर्वेद अपनी महत्ता बरकरार रख सकता है।

शान्तिकुञ्ज ने अपने इक्कीसवीं सदी, उज्ज्वल भविष्य के उद्घोष के साथ आयुर्वेद की गौरवमयी परम्परा में सर्वदा नवीन शोध-अनुसंधान करने का संकल्प लिया है। इस महासंकल्प के द्वारा आयुर्वेद परम्परा संहिता काल से निकल कर इक्कीसवीं सदी में मानवीय स्वास्थ्य के उज्ज्वल भविष्य की सम्मोहक संरचना करेगी।


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