वरदायी शान्तिकुञ्ज (Kavita)

June 1998

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सुरपुर के उस कल्पवृक्ष का हमें नहीं आभास हुआ, शान्तिकुञ्ज साकार कल्पतरु, है हमको विश्वास हुआ।

गुरुवर-मातृशक्ति ने मिलकर यह तरु यहाँ लगाया था, तपबल के पोषण-सिंचन से इसको सबल बनाया था,

इन पच्चीस वर्षों में इस तरु ने तरुणायी पायी है-हारे-थके हुए पथिकों की इसने थकान मिटायी है,

जिसकी थकान मिटी, कम उसका कभी न फिर उल्लास हुआ, शान्तिकुञ्ज साकार कल्पतरु, है हमको विश्वास हुआ।

इस तरुवर की दिव्य गंध है छायी दसों दिशाओं पर, ऋद्धि-सिद्धियों के अनुपम फल-फूल लगे शाखाओं पर,

शीतल पवन झकोरे इसके सबको बहुत सुहाते हैं, जो आते मुख मलिन लिये, वे खिले फूल बन जाते हैं,

इसके वातावरण बीच हर पतक्षर भी मधुमास हुआ, शान्तिकुञ्ज साकार कल्पतरु, है हमको विश्वास हुआ।

कण-कण में ऋषि-युग्म चेतना बनकर यहाँ जो समाये हैं, महाप्राण का अंश वही पा गये, यहाँ जो आये हैं,

आत्महीनता ग्रस्त आत्मबल पाकर फिर से धन्य हुए, जिन्हें नहीं था आत्म-बोध वे जाग गये, चैतन्य हुए,

जो आया उसके जीवन का पल-पल सतत् विकास हुआ, शान्तिकुञ्ज साकार कल्पतरु, है हमको विश्वास हुआ।

कल्पवृक्ष धरती का सच्चा शान्तिकुञ्ज सुखदायी है, सकल मनोरथ पूरे होते, यह ऐसा वरदायी है,

जो साधक बन आते हैं, पाते अनगिन अनुदान यहाँ, पीकर संजीवनी-सुधा भरते उनमें नवप्राण यहाँ,

जो भी आया यहाँ, न जीवन में फिर कभी निराश हुआ, शान्तिकुञ्ज साकार कल्पतरु, है हमको विश्वास हुआ।

-शचीन्द्र भटनागर

*समाप्त*


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