भविष्य के कदमों की आहट जिन्होंने भी सुनी है, उन सबका प्रायः यही कहना है कि कल की दुनिया शहरों की नहीं गाँवों की होगी। शहरों की बेतहाशा बाढ़ ने ही पर्यावरण-संकट के बीज बोए हैं। आज के दौर में तो यह विश्व-संकट बनकर समूची दुनिया के ऊपर मौत के साए की तरह मँडराने लगा है। स्थिति को परखते हुए इनसानी दिमागों ने अपनी गलती स्वीकार कर ली है। विश्वभर के विचारशील वैज्ञानिक, मनीषी अपनी मानसिक संकीर्णता पर पछतावा करने लगे हैं। उन्हें इस सत्य का अहसास हो चुका है-विश्व केवल मनुष्य के लिए ही नहीं है। इसमें मानव के साथ मानवेत्तर प्राणी, पशु-पक्षी पेड़-पौधे एवं पृथ्वी, वायु, प्रकाश, आकाश आदि सभी का समायोजन है।
मानव स्वार्थ पर आधारित भोग-परायण मनोवृत्ति ने शहरों में तो अंधाधुन्ध बढ़ोत्तरी की, पर पर्यावरण-सन्तुलन को इस कदर बिगाड़ दिया कि पर्यावरण-संकट सबसे भयावह संकट बन गया, जिसके सामने परमाणविक विभीषिका भी बहुत तुच्छ लगने लगी है। अपने सुख-साधनों को बढ़ाने के चक्कर में गाँवों को तो उजाड़ फेंका, पर साथ ही परिस्थितिकी सन्तुलन भी नष्ट हो गया। अपने को विचारशील एवं बुद्धिमान समझने वाले सबके सब यह भूल गए कि प्रकृति तो समग्रता में है। इसलिए स्वार्थयुक्त बुद्धि और विकृत संकीर्ण मानसिकता से जिस विश्व की रचना की है, उसमें अकेले मानवी अस्तित्व की ही नहीं, बल्कि प्राणिमात्र तथा वनस्पति जगत आदि सबके सम्पूर्ण विनाश की चेतावनी है।
इससे बचने के लिए अन्य कोई उपाय नहीं-कि यदि हम जीवित रहना चाहते हैं, तो फिर से गाँवों की ओर लौट चलें प्रकृति हमारी स्नेहमयी जननी है, उसी के आँचल की छाँव में हम सही ढंग से पल-बढ़ सकते हैं। अपनी माँ को अपंग और विखण्डित बनाकर जीवन की कल्पना सम्भव नहीं। यही वजह है कि जब मनुष्यता भौतिकवादी और पश्चिमी औद्योगिक विकास से सम्मोहित एवं चकाचौंध हो रही थी, उसी समय सुविख्यात विज्ञानवेत्ता आइन्स्टीन ने सावधान करते हुए कहा था- यह वैज्ञानिक विकास तो ठीक है, परन्तु इसे प्रकृति विरोधी नहीं बनना चाहिए।
इस महान वैज्ञानिक के द्वारा विज्ञान के विकास के संदर्भ में दी जाने वाली इस चेतावनी पर उन दिनों किसी ने भी गम्भीरता से नहीं सोचा। लगातार प्राकृतिक जीवन के सुरक्षा-कवच को तहस-नहस करने वाली कोशिशें जारी रहीं। आज परिस्थितियों ने इस मोड़ पर ला खड़ा किया है कि ग्राम्य जीवन को पुनर्जीवित करने उसका नवोत्थान करने के अलावा और कोई तरीका शेष नहीं बचा है। संयम और सादगी से ओत-प्रोत ग्रामीण संस्कृति ही मानव को उसके वर्तमान अंधेरे से निकाल कर उज्ज्वल भविष्य की डगर पर चला सकती है।
इसी चिन्तन को राहुल सांस्कृत्यायन, विंडेल विल्की आदि मनीषियों ने भविष्य दृष्टि देने वाले अपने-अपने ग्रन्थों में प्रतिपादित किया है। समय की नाड़ी को परखते हुए शान्तिकुञ्ज ने भी इसे आन्दोलन को रूप देने का निर्णय किया है। क्योंकि ग्रामीण जीवन की ओर मुड़ना तभी संभव है, जब गाँव आदर्श ग्राम का रूप ले लें। बदबूदार नालियों, स्वास्थ्य-स्वच्छता से रहित एवं पारस्परिक विग्रह-वैमनस्य से ग्रसित आज के गाँव स्वयं अपना समाधान नहीं खोज पा रहे हैं। ऐसी हालत में इनसे राष्ट्र और समाज के लिए समाधान प्रस्तुत करने की आशा रखना उपयुक्त न होगा।
अतीत, जिसकी चर्चा करते हुए परमपूज्य गुरुदेव ने देश भर के 7 लाख गाँवों को 7 लाख तीर्थों में बदल डालने की बात कही थी। तीर्थों से उनका तात्पर्य था कि गाँव उतने ही सुरम्य पवित्र एवं प्राकृतिक वन-सम्पदा से भरे-पूरे हों, जितने कि वैदिक काल में हुआ करते थे। वहाँ का वातावरण पारस्परिक स्नेह एवं सौहार्द से भरा-पूरा हो। जातीय संघर्ष और ऊँच-नीच के विद्वेष की दुर्गन्ध ग्रामीण-वातावरण को विषाक्त न करें।
वैदिक भारत में ग्रामीण जीवन का स्वरूप कुछ इसी प्रकार का था। साधन-सुविधाओं की दृष्टि से भले ही ये आज के शहरी जीवन की अपेक्षा यत्किंचित् न्यून रहें हो, परन्तु वहाँ की चिन्तन शैली और मानसिक प्रखरता आज के दार्शनिकों और वैज्ञानिकों को जन्म देने वाले स्थानों से कहीं अधिक बढ़ी-चढ़ी थी। संसार के सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद में अनेकों स्थान पर (3।33।11।10। 27।19,10।127।5 आदि ) न केवल ग्राम शब्द का उल्लेख है, बल्कि ग्रामीण जीवन की महनीयता और महत्ता के अनेकों प्रमाण मिलते है। वेदों में इस बात को साफ-तौर पर कहा गया है कि ज्यादातर वैदिक ऋषि कृषि कर्म करते थे। खेतों में खड़ी लहलहाती फसलों के बीच ओर घनी अमराई की छाँव के नीचे ही वैदिक ऋचाएँ गूँजी थी, उपनिषदों के स्वर मुखरित हुए थे।
वैदिक जीवन-पद्धति का अन्वेषण करने वाले अधिकाँश अन्वेषकों ने उपर्युक्त कथन की पुष्टि अनेकानेक प्रमाणों से की है। इस सम्बन्ध में डी. एन. मजूमदार की ‘रुरल प्रोफाइल्स’, एम. एन. श्रीनिवास की ‘इण्डियन विलेज’, एस. सी. दुबे की ‘इण्डियाज विलेज एवं ‘इण्डियाज चेंजिंग विलेज' मैरियट की विलेज इण्डिया’, ऐ. आर. देसाई की ‘रुरल इण्डिया इन ट्रान्जिशन’, ओ. लेविस की ‘विलेज लाइफ इन नार्दन इण्डिया’ अमित रे की ‘विलेजेज, टाउन्स एण्ड सेक्युलर विल्डिंग्स इन एन्शियेट इण्डिया’ और आर. मुखर्जी की ‘द डायनिमिक्स ऑफ रुरल सोसाइटी विशेष तौर पर उल्लेखनीय हैं।
इन ग्रन्थों के अध्ययन से न केवल वैदिक संस्कृति को जन्म देने वाले प्राचीन ग्राम्य जीवन का स्वरूप स्पष्ट होता है बल्कि वे सूत्र भी मिलते हैं, जिनको अपनाकर हम फिर से अपनी प्राचीन संस्कृति को कैसे वापस ला सकते हैं। शान्तिकुञ्ज द्वारा इन दिनों जिस राष्ट्रीय जागरण के नव अभियान की कल्पना की गई है, उसकी व्यावहारिक रूपरेखा ग्रामोत्थान में निहित है।
ग्रामोत्थान की सीमा-रेखा साधन-सुविधाओं से खचाखच भरे गाँव तक परिवार-निर्माण एवं समाज-निर्माण के सभी सम्भव सूत्रों का समावेश किया गया है। इस क्रम में जिस पहले सूत्र को प्राथमिकता दी गयी है-वह स्वच्छता। गाँवों स्वच्छता न होने के कारण ग्रामीणजनों की श्रमशीलता का अभाव है। बल्कि इसकी वजह सूझ-बूझ की एवं सोच की कमी ही है। इसके कमी की पूर्ति अपने परिजन बेहतर तरीके से कर सकते है। पूज्य गुरुदेव के विचारों और भावनाओं को लोक-जीवन के लिए ग्राह्मशैली में बताकर उन्हें इसका महत्व बताया जा सकता है, साथ ही स्थान-विशेष की परिस्थितियों के अनुरूप ऐसी योजनाएँ बनाई जा सकती हैं, जिनसे पानी के विकास आदि में सहूलियत हो सके। कूड़े-कचरे बच्चों के मल-मल पशुओं के गोबर आदि को गाँव के बाहर गढ्ढों में दबाया जा सकता है। इससे जहाँ एक ओर घर और रास्ते दोनों साफ सकेंगे वही दूसरी ओर दफन की गयी गन्दगी कम्पोस्ट खाद में परिवर्तित होकर खेतों में काम आ सकेगी। अच्छा हो, ये प्रयास सामूहिक श्रमदान से हों। इससे सामूहिकता एवं सहकारिता की भावना पनपेगी।
बाहरी सफाई के साथ बहुत जरूरी है मानसिक दुष्प्रवृत्तियों एवं दुर्व्यसनों का उन्मूलन। दुष्प्रवृत्तियाँ एवं दुर्व्यसन ग्रामीण अंचल के जीवन में जड़ जमाकर बैठे है। इनके उन्मूलन के लिए गायत्री यज्ञों के माध्यम से देवदक्षिणा के लिए उन्हें संकल्पित किया जा सकता है। इसी के साथ सत्प्रवृत्ति-संवर्द्धन के आयोजन साथ-साथ चलाए जाएँ। इस क्रम में यह भी बताया जाए कि जिस तरह ये दुर्व्यसन हमारे शरीर को खोखला करते हैं उसी प्रकार दहेजप्रथा, मृतकभोज आदि कुरीतियाँ हमारे सामाजिक जीवन को पंगु बनाती हैं। अतएव इनसे छुटकारा पाने में ही कल्याण है।
गाँवों के लोग कुरीतियों की ही तरह अन्धविश्वास और मूढ़ताओं के चक्रव्यूह में बुरी तरह घिरे हैं। भूत-प्रेतों के नाम पर ओझा-बाजीगर उन्हें आदि दिन ठगते रहते है। इनकी निवृत्ति का समर्थ उपाय गायत्री उपासना है। आदिशक्ति की महिमा-महत्ता से परिचित होने पर चित्त की वह हीनग्रन्थि सहज में खुल जाती है, जिसकी वजह से वे तरह-तरह से ठगे जाते रहे, जो धन और भावनाएँ अभी तक इस कुचक्र में खपती रही, उन्हें लोकमंगल में नियोजित करने पर पुण्यलाभ तो होगा ही, साथ में परमात्मा की सहज कृपा मिलने से जीवन की अगणित समस्याएँ अपने आप सुलझ जाएँगी।
ग्रामीण जीवन में खाली समय का उपयोग भी एक प्रश्न है। क्योंकि खेती के काम से बचा हुआ बहुत-सा समय ऐसा होता है, जिन्हें वे ताश-चौपड़ या नाच-नौटंकी में बिताते रहते हैं। उन्हें इस बात का बोध कराना होगा कि वे खाली समय का उपयोग अपनी प्रतिभा के विकास में कर सकते है। साथ ही अपनी उद्यमिता को विकसित करके उन कुटीर उद्योगों-गृह-उद्योगों को अपना सकते है, जो उनके गाँव की परिस्थितियों के अनुकूल हैं। इनमें महिलाओं की भागीदारी होना अनिवार्य है। ग्रामीणजनों को इस बात का बोध कराए जाने की सख्त आवश्यकता है कि महिलाएँ कोई वस्तु नहीं व्यक्ति है। उनका एक समर्थ व्यक्तित्व है, जिसे विकसित होने के भरपूर अवसर मिलने चाहिए।
उद्यमिता विकसित हो सकी, सामूहिकता पनप सकी तो उन प्रवृत्तियों पर सहज अंकुश लग जाएगा, जो ग्रामीण जीवन में जहर घोल रही है। इसके अलावा ग्रामोत्थान के लिए एक अनिवार्य शर्त है-ग्रामतीर्थ की स्थापना। यूँ मन्दिर तो हर गाँव में हैं, पर वे अपना उद्देश्य भूल चुके हैं। अच्छा हो कि इन मन्दिरों को देवालय के साथ पुस्तकालय का रूप भी दिया जाए। मन्दिर के परिसर में उपयोगी जड़ी-बूटी का एक छोटा-सा उद्यान लगाया जाए। ग्रामीण अंचलों में अभी भी जड़ी-बूटियों के इतने अच्छे जानकार मिल जाते हैं, जितना ज्ञान कभी-कभी प्रशिक्षित आयुर्वेदाचार्य भी नहीं रखते। उनके ज्ञान का सार्थक सदुपयोग होना ही चाहिए।
ग्रामतीर्थ की ही भाँति गाँवों में पाठशाला एवं चिकित्सालय की भी जरूरत है। अपने परिजन इसमें महत्वपूर्ण सहयोगी की भूमिका निभा सकते है। ग्रामोत्थान का कार्य तब तक अधूरा रहेगा, जब तक वहाँ के लोगों में कोर्ट-कचहरी का दुर्व्यसन समाप्त नहीं होता। छोटी-छोटी बात की प्रतिष्ठा का सवाल बना लेना, फिर इसके लिए अदालत में अपनी सारी जमा-पूँजी गँवा बैठना-गाँवों में एक आम बात बन गयी है। समझदार सुलझे हुए लोगों की पंचायत यदि ग्रामीण जीवन में सक्रिय हो सके, तो इस महारोग से आसानी से पीछा छुड़ाया जा सकता है।
ग्रामोत्थान की इस योजना को राष्ट्रीय जागरण के नव अभियान के रूप में लिया जाना चाहिए। इसका क्रियान्वयन ही इक्कीसवीं सदी में आ रहे उज्ज्वल भविष्य के स्वागत-समारोह की तैयारी है। साथ ही यह प्राचीन वैदिक संस्कृति का नवजागरण है। ग्रामीण संस्कृति का विज्ञान केवल भौतिकवादी उपभोक्ता संस्कृति का ही निरोधक नहीं वह आध्यात्मिक उन्नयन का भी द्योतक हैं इतिहास को कुरेदने पर पता चलता है कि जो संस्कृतियाँ भोगवादी और अनैतिक रही है, उनका नामोनिशान मिट गया। भारतीय संस्कृति चिरंजीवी इसीलिए रही, क्योंकि यह ग्रामीण संस्कृति है, सादगी एवं संयम की संस्कृति है। इसके उत्थान में ही राष्ट्र का उत्थान एवं कल्याण है। अच्छा हो, हम सब राष्ट्रीय जागरण के नव अभियान में तत्पर हो एक ऐसे भारत का निमार्ण करें, जो किसी आयातित संस्कृति पर नहीं-वरन् भारतीय संस्कृति की नींव पर टिका हो।