संकीर्णता और भयपूर्ण जीवन (Kahani)

June 1998

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दो बीज धरती की गोद में जा पड़े। मिट्टी ने उन्हें ढँक दिया। दोनों रात में सुख की नींद सोये।

प्रातः काल दोनों जगे तो एक के अंकुर फूट गए, वह ऊपर उठने लगा। यह देख छोटा बीज बोला-भैया ऊपर मत जाना वहाँ बहुत भय है, लोग तुझे रौंद डालेंगे, मर डालेंगे। बीज सब सुनता रहा और चुपचाप ऊपर उठता रहा। धीरे-धीरे धरती की परत पारकर ऊपर निकल आया और बाहर का सौंदर्य देखकर मुसकराने लगा। सूर्य देवता ने धूपस्नान कराया और पवन देव ने पंखा डुलाया। वर्षा आयी और शीतल जल पिला गई। किसान आया और बिस्तर लगाकर चला गया। बीज बढ़ता गया, झूमता, लहलहाता, फूलता और फलता हुआ बीज एक दिन परिपक्व अवस्था तक जा पहुँचा। जब वह इस संसार से विदा हुआ तो अपने जैसे असंख्य बीज छोड़कर हँसता और आत्मसंतोष अनुभव कर विदा हो गया।

मिट्टी के अन्दर दबा बीज यह देखकर पछता रहा था-भय और संकीर्णता के कारण मैं जहाँ था, वहीं पड़ा रहा और मेरा भाई असंख्य गुनी समृद्धि पा गया।


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