वानप्रस्थ ग्रहण करने के बाद महाराजा दिलीप पत्नी सहित वशिष्ठ के आश्रम में पहुँचे। वशिष्ठ ने उन्हें एक गाय-नन्दिनी की सेवा पर नियुक्त किया।
नन्दिनी जब चरने के लिए जंगल में जाती, तो महाराजा दिलीप धनुष-बाण लेकर उसकी रक्षार्थ साथ जाते। पत्नी भी साथ होती। एक दिन एक सिंह नन्दिनी पर आक्रमण करने के लिए लपका। दिलीप ने धनुष की प्रत्यंचा पर बाण चढ़ाया, सिंह रुका और बोला-दिलीप! तुम जिसे सिंह समझते हो मैं वह नहीं, मैं भगवान शंकर का वाहन हूँ, तुम्हारे शस्त्रों का मुझ पर प्रभाव न होगा।”
“आप जो भी हों वनराज!” -दिलीप ने कहा-मैं नन्दिनी पर किसी भी प्रकार का प्रहार नहीं करने दूँगा।”
वनराज ने कहा-मैं मान जाऊँगा, यदि तुम नन्दिनी के बदले में अपना शरीर देकर मेरी भूख मिटाओ।”
“सहर्ष प्रस्तुत हूँ।” और दिलीप ने यह कहकर धनुष-बाण समेटे। उन्होंने सिर झुकाया, परन्तु काफी समय तक कोई हलचल नहीं हुई तो उस स्थान की ओर देखा जहाँ सिंह खड़ा था, परन्तु वहाँ सिंह भी नहीं था, मुसकरा रहे थे महर्षि वशिष्ठ। तुम्हारी साधना-तपश्चर्या पूरी हुई वत्स! अब तुम तत्त्वज्ञान के अधिकारी हो गये हो।”