सच्ची वीरता वही है, जो जमाने की धारा को मोड़ दे- समूचे युग को परिवर्तित कर दे। लेकिन जमाने की धारा मोड़ने पड़ता है। आन्तरिक शुचिता की बाहर शौर्य बनकर प्रकट होती है।
गया में वटवृक्ष के नीचे तृणासन पर बैठते समय अपने इस संकल्प के कारण राजकुमार सिद्धार्थ बुद्ध बने थे कि ‘मेरे शरीर का अन्त भले ही हो जाए, किन्तु जीवनसत्य का साक्षात्कार और बोध प्राप्त किए बिना यहाँ से हटूँगा नहीं।’ शंकराचार्य जगद्गुरु इसलिए बने, क्योंकि उन्होंने ज्ञान बटोरा नहीं, सम्पूर्ण को समझा, पूर्णता का साक्षात्कार किया, सबको गले लगाया, देश की गली-गली में नंगे पाँव घूमें थे।
कुमारिल भट्ट साधन-शुचिता को नकारकर लक्ष्य प्राप्त करने और मर्यादा उल्लंघन के पाप का स्वतः प्रायश्चित करने वाले ज्ञातकाल में प्रथम पुरुष थे। बिना किसी कष्टानुभूति के तुषा (भूसी) के छिलके के कण-कण के अग्निकण बनते जाने के साथ-साथ वे स्वेच्छापूर्वक पल-पल और साँस-साँस जले थे कि कोई अपने गुरुजन और अपनी आस्था के साथ विश्वासघात और प्रवंचना न करे।
वीरता की अनोखी मिसाल रची सिसोदिया कुलसूर्य महाराणा प्रताप ने, जो साधनहीन रहकर-घास की रोटी खाकर भी लोभ और भय के महाकाय पर्वतों के सामने झुके नहीं, आजीवन संघर्षरत रहकर देश की माटी की आन की रक्षा करते रहे। वीर शिवाजी अपने समय के युग-निर्माता थे। मुगलों का तेज उनके सतत् संघर्ष के सामने लगातार फीका पड़ता गया। वीरता की यह कहानी थमी नहीं लोकमान्य तिलक, महात्मा गाँधी, चन्द्रशेखर आजाद, भगतसिंह आदि सभी इस महागाथा के तेजस्वी चरित्रनायक बने। सभी एक ही ध्येय था, एक ही लक्ष्य था-जमाने के आतंक को समाप्त करना, उलटे हो गए प्रचलनों-प्रयासों-प्रवृत्तियों के प्रवाह को उलटकर सीधा करना।
भारत भूमि पर शूरमाओं और वीरों की फसल सहज रूप से उगती रही है। सम्पूर्ण संसार के शूरवीर एक कतार में खड़े हो जाएँ तो भी उनकी कतार भारतीय शूरवीरों की कतार से छोटी ही रहेगी। हो भी क्यों न? जितना प्राचीन राष्ट्र-जितना बड़ा इतिहास, उतनी ही बड़ी कतार। उसके ओर-छोर का पता लगा पाना सम्भव नहीं है। किसका-किसका उल्लेख करें, किसका-किसका स्मरण।
सामान्य चलन में जब वीरता की बात चलती है, तो सहसा किसी युद्ध का, किसी समर भूमि का, किसी शस्त्र-शूरमा का बिम्ब आँखों और मन-मानस के पटल पर उभर आता है। सभी समर-शूरमा अभिनन्दनीय है। सभी बलिदानी और शहीद प्रेरणास्पद एवं पूज्य हैं, किन्तु इन सभी शहीदों और शूरमाओं की शहादत और शौर्य का मर्म खोजें तो यही पाएँगे कि ये सभी अपने जमाने की परिस्थितियों को बदलने में लगे रहे। हाँ इतना अवश्य है कि शौर्य शूरमा के शरीर का तो वीरता मन और आत्मा का गुण-धर्म है। शूरमा का शौर्य उनके मन के संकल्प में से ही जन्मता है। शूर का शौर्य सफलता-असफलता के तराजू पर तौला जा सकता है। वीर की वीरता, जय-पराजय सुख-दुःख सफलता-असफलता से परे उसके सातत्य और संकल्प की कसौटी पर परखी जाती है।
केवल शूरमा धरती का शासक और श्रृंगार होता है। वीर सौरमण्डल का भेदन करके सूर्य पर आसन जमाने वाला, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड और सृष्टि का आधार है। जय-पराजय शूरता और कायरता के बीच केवल एक पल, एक कदम और एक शब्द की दूरी होती है। शूरमा का शौर्य इस ‘एक’ के छोटे-से पैमाने से नापा जा सकता है। किन्तु जय-पराजय सुख-दुःख सफलता-असफलता निरपेक्ष संकल्प से अनुप्राणित वीर की वीरता की थाह लेने वाला पैमाना अभी तक बना नहीं। शूर परिस्थितियों से प्रभावित होता है, किन्तु वीर परिस्थिति की छाती को अपनी एड़ियों से रौंदता हुआ चलता है। वीर-किसी का अनुगामी या अनुवर्ती नहीं होता। वह तो बस आदर्शों के सर्वोच्च प्रतिमान के अनुरूप स्वयं को बदलते हुए जमाने को बदल डालने के लिए समर्पित होता है। वह अतीत की कथा सुनकर वर्तमान का कर्म नहीं करता। उसका कर्म उसके अपने संकल्प की अभिव्यक्ति होता है।
भगीरथ और उनसे पहले से लेकर आज तक की सृष्टि में सभी युग-निर्माताओं की जीवनयात्रा का पाथेय रहा है- वीरव्रत यही व्रत स्वामी विवेकानन्द और रामतीर्थ की प्रेरणा थी। इसी ने राम को लोकोत्तर बनाया। यही राम की मर्यादा और पराक्रम बनकर प्रगटा, इसी से उद्दीप्त हो गुरु तेगबहादुर ने सहर्ष शीश दान कर दिया। महर्षि दयानन्द को उनके वीरव्रत ने हौसला दिया। इसी कारण सावरकर सागर तैर गया। यही धरती का धीरज, सागर का गांभीर्य, शहीदों का आत्मबल, तपस्वियों का तप है। यह अविनाशी आत्मा और सर्वव्यापी ब्रह्म की तरह युगपरिवर्तन की प्रत्येक हलचल में समाया हुआ है।
युग वीरों की वीरता मन के वृन्दावन में पले-खिले पुष्प की सुगन्ध है। यह सूर्य और चन्द्रमा का प्रकाश, अग्नि का ताप, जल की शीतलता, पवन की गति और सृष्टि की प्राणवायु है। आरोग्य और दीर्घायु, वैभव और विरक्ति, झंझावात और मन की अडिगता के बीच यही पराक्रम बनकर प्रगट होता है। वीर विजय के प्रमाद या पराजय की प्रताड़ना से प्रभावित नहीं होता। वह तो योगेश्वर कृष्ण की भाँति युग-परिवर्तन के महाप्रयोजन के लिए सर्वथा समर्पित एवं मोहमुक्त रहता है।
आधुनिक युग के प्रसिद्ध दार्शनिक स्वर्गीय सन्त जे. कृष्णमूर्ति ने जीवन का एक महामंत्र दिया-Stand alone, like a solitary tree or mountain.' यदि कि पर्वत या एकाकी वृक्ष की तरह अकेले खड़े रहो जो पर्वत की चोटी पर अनजाना और अकेला खड़ा रह सकता है, वही कोई महान कर्तृत्व कर सकता है। अकेले संघर्षरत रहना वीरता और महानता का मूल्य है। जो यह मूल्य चुकाता है, वही वीर कहलाता है। उसी की कर्मगाथा वीरगाथा बनती है। युग-परिवर्तन के लिए महाकाल ने ऐसे ही महावीरों को न्यौता दिया है। उनकी वीरता किसी वीरव्रती के व्रत, किसी तपस्वी के तप, किसी साधक की साधना, किसी भक्त की भक्ति, किसी शूरमा के शौर्य की तरह स्मरणीय होगी एवं रक्त की स्याही व शरीर की लेखनी से कर्मभूमि के भोजपत्र पर लिखे गये सर्वशक्तिमान परमात्मा के संकल्प के स्तोत्र के रूप में युगों तक उसका गायन किया जाएगा।