स्वाति नक्षत्र था। वारिद जल-बिन्दु तेजी से चला आ रहा था।
वृक्ष की हरित नवल कोपल ने रोककर पूछा,”प्रिय किधर चले?”
“भद्रे! जलनिधि पर सूर्य की कोप-दृष्टि हुई है, वह उसे सुखाय डाल रहा है। जलधि की सहायता करने जा रहा हूँ।”
छोड़ो भी व्यर्थ की चिन्ता। खुद को मिटाकर भी कोई किसी की सहायता करता है? चार दिन की जिन्दगी है, कर लो आनन्दोपभोग। कहाँ मिलेगी कोमल शय्या?”
जल-बिन्दु ने एक न सुनी। तेजी से लुढ़क पड़ा सागर की ओर। नीचे तैर रही थी सीप। उसने जल-बिन्दु को आँचल में समेट लिया। वह जल-बिन्दु न रहकर हो गया ‘मोती’। सागर की लहरों से एक धीमी-सी ध्वनि निकली-निज अस्तित्व की चिन्ता छोड़कर समाज के कल्याण के लिए जो अग्रसर होते हैं, वे बन जाते हैं जनमानस के मोती।”