प्राचीन भारतीय वाङ्मय के अगणित पृष्ठ चिकित्सकीय चमत्कारों से भरे पड़े है। इन प्रसंगों को पड़ने से उस काल की आयुर्वेदिक प्रखरता का पता चलता है। संजीवनी बूटी से मृतप्राय लक्ष्मण का पुनर्जीवित होना, महाराज वेन के शरीर की कोशिकाओं से पृथु का जन्म होना, दक्ष के कटे सिर का जुड़ना आदि अनेकों ऐसे प्रकरण है, जिन्हें पढ़-सुनकर आज के महान चिकित्सा-वैज्ञानिकों को भी दाँतों-तले उँगली दबानी पड़ जाए।
आयुर्वेद अभी भी है। पुरातनकाल की ग्रन्थावली का विशालकाय कलेवर इन दिनों भी उपलब्ध है, परन्तु उसमें अब वैसी प्रखरता नजर नहीं आती, जो चमत्कारी परिणाम प्रस्तुत कर सके। इसकी प्रखरता के रहस्य की खोज-बीन में जो तथ्य उजागर होते है उनसे पता चलता है कि प्राचीनकाल का आयुर्वेद तप-साधना तथा मंत्र-विद्या से गुँथा हुआ था। वैद्यक कर्म ऐसे प्रखर व्यक्तित्व वाले महर्षिगण करते थे, जिनमें प्राण-अनुदान देने की अलौकिक सामर्थ्य होती थी। जिनका संकल्प अचूक होता था। जो अपनी गहन अन्तर्दृष्टि द्वारा रोगी के रोग ही नहीं, उसके व्यक्तित्व की गहरी छान-बीन करने में समर्थ होते थे।
आयुर्वेद से जुड़ी हुई तप-साधना किन्हीं कर्मकाण्डों या फिर क्रिया-उपचार विशेष तक सीमित नहीं है। यह अखिल ब्रह्माण्ड में संव्याप्त प्राणऊर्जा को ग्रहण एवं संग्रह की विधि है। ब्रह्माण्ड में अनन्त ऊर्जा संव्याप्त है, परन्तु उसे धारण करने के लिए अपने व्यक्तित्व में कतिपय परिवर्तन आवश्यक होते है। असंयमी, वाचाल, कुविचारी इसे ग्रहण नहीं कर सकते। इसीलिए तप का पहला और अनिवार्य चरण है संयम। इसके अंतर्गत अपने व्यक्तित्व में निहित ऊर्जा का क्षरण रोकना होता है। तप-साधना का अगला एवं महत्वपूर्ण चरण है-परिशोधन विकारों से ग्रस्त व्यक्ति ब्रह्माण्डव्यापी महाप्राण को धारण नहीं कर सकते। इसके लिए स्वयं का शोधन अनिवार्य है। इस शोधन के पश्चात् ही यह सम्भव हो पाता है कि व्यक्ति प्राणऊर्जा का अजस्र भण्डार बन सके। शोधन के पश्चात् अर्जन की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है और प्राणऊर्जा स्वयमेव ही संग्रहित होने लगती है।
जिस हम रोग कहते हैं, उसकी शुरुआत प्राणों के क्षरण से ही होती है। जब प्राण निर्बल होने लगते है, तो अपने आप ही अगणित बीमारियाँ घेर लेती है। चिकित्सा के सारे उपाय प्राणों को सबल-सुदृढ़ बनाने के लिए होते हैं। खान-पान औषधियाँ सब कुछ इसी के लिए है। परन्तु ऐसे अवसर भी आते है, जब औषधियाँ एवं पौष्टिक खान-पान भी लाभदायक नहीं होता। ऐसे में वैद्य के तपःपूत व्यक्तित्व द्वारा किए गए प्राण-अनुदान ही काम आते हैं।
अथर्ववेद के अनेकानेक मंत्रों में इस प्रकार की चिकित्सा का वर्णन मिलता है। वैद्य रोगी से कहता है, सोरिष्ट न मरिष्यसि न मरिष्यसि मा बिभेः। (अथर्व 5.30.8)। अर्थात् है रोगी, तू भयभीत न हो, तू नहीं मरेगा। मैं तुझे जीवन देकर शतवर्ष की आयु दे रहा हूँ। प्राणानुदान की इस प्रक्रिया में वैद्य अपनी तप-साधना से प्राप्त प्राणऊर्जा का एक अंश देकर रोगी को स्वास्थ्य-लाभ प्रदान करता है। प्राणऊर्जा प्राप्त करके रोगी जीवनी-शक्ति इतनी सुदृढ़ हो जाती है कि रोगों का नामोनिशान नहीं रहता है।
आयुर्वेद की प्राचीन चिकित्सापद्धति में मंत्रविद्या का भी महत्वपूर्ण स्थान था। मंत्र-चिकित्सा ध्वनि-तरंग चिकित्सा है। मंत्रों से जो ध्वनियाँ उत्पन्न होती हैं, वे तरंग के रूप में ऊपर जाती हैं और सूर्य की सूक्ष्म शक्तियों को आत्मसात् करके साधक के शरीर में प्रविष्ट होती है। इन शक्तियों के प्रभाव से शरीर के रोग दूर होते है।
ऋग्वेद और अथर्ववेद में मंत्रशक्ति का उल्लेख है। ऋग्वेद का कथन है कि मंत्र तेजोमय हैं। ये रोगों और रोग कृमियों को नष्ट करते है (ऋग्वेद 7.8.6)। एक अन्य स्थान पर कहा गया है, यस्मिन् इन्द्रो वरुणो देवा ओकांसि चकिरे? अर्थात् वेद मंत्रों में इन्द्र आदि देवों का निवास है। अथर्ववेद का कथन है अन्तर्गायत्र्याममृतस्य गर्भे (अथर्व 13.3.20) अर्थात् गायत्री में अमृत का बीज है। इसी मंत्रशक्ति से देवों ने असुरों को हराया। वैदिक विवरण के अनुसार अथर्व ऋषि को मन्त्रविद्या का विशेषज्ञ माना गया है। उनके सिर में दिव्यशक्तियों का खजाना भरा हुआ था।
मंत्रों के सस्वर पाठ से सूक्ष्म तरंगें उत्पन्न होती हैं, वे शरीर और मन को पुष्ट करती है। इससे शरीर में विद्यमान दूषित तत्व नष्ट होते हैं। इसका फल यह होता है कि मनुष्य मानसिक तनाव, शिरोरोग, स्नायुरोग आदि से मुक्त होता है। मंत्रशक्ति से दुर्विचारों का नाश होता है, अतः मन शुद्ध और पवित्र रहता है। मन की पवित्रता से अनेक रोग तो अपने आप शान्त हो जाते है।
आधुनिक काल में यदि आयुर्वेद के प्राचीन गौरव की फिर से स्थापना करती है, तो उपयुक्त दोनों ही तथ्यों पर ध्यान देना होगा। मंत्रविद्या के विशेषज्ञों ने गायत्री मंत्र को सभी वेदों का सार कहा है। इसमें समस्त वैदिक-तांत्रिक मंत्रों का सार निहित है। गायत्री मंत्र का सविधि अनुष्ठान का पालन आयुर्वेद के मर्मज्ञों के जीवन में उसी प्रखरता का समावेश कर सकता है, जो कभी पुरातन काल में थी।