स्वतन्त्रता की स्वर्णजयंती और जीवनमूल्यों का वर्तमान संकट

June 1998

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स्वतन्त्रता मानवीय अन्तःकरण की एक महत्वपूर्ण जरूरत है-उसे उसकी प्राप्ति का अवसर मिलना निहायत जरूरी है। इस दिशा में किए गए प्रयत्नों का समर्थन होना ही चाहिए। इन्हें सराहा ही जाना चाहिए। पर इसके साथ ही यह नहीं भुला दिया जाना चाहिए कि व्यक्ति और समाज में दुष्प्रवृत्तियों की भी कमी नहीं। यदि उन्हें भी स्वतन्त्र कर दिया गया तो जीवन-मूल्यों का भयावह संकट खड़ा हो जाएगा। इस संकट के चक्रव्यूह में पड़कर हजारों-हजार बलिदानों, भारी त्याग-तप से मिली हुई राष्ट्रीय आजादी भी अपने आप ही सिसक-सिसक कद दम तोड़ देगी। इन दिनों हम सब जिस सामाजिक, राष्ट्रीय एवं मानवीय संकट से गुजर रहे है, उसकी जड़ में जीवन-मूल्यों का संकट ही है।

सद्गुणों, सत्प्रवृत्तियों को सुविकसित होने के लिए, उन्हें फैलाने के लिए आजादी मिलना ठीक है। पर साथ ही दुर्गुणों, दुष्प्रवृत्तियों का दमन-नियन्त्रण भी उतना ही जरूरी है। सच तो यह है कि इस नियन्त्रण की आवश्यकता और भी अधिक है। क्योंकि आज की परिस्थितियों में बाहुल्य दुष्प्रवृत्तियों का हो चला है। सत्प्रवृत्तियाँ तो किसी अनजाने कोने में जा छुपी हैं।

आजादी का उज्ज्वल पक्ष सबके सामने है। उससे जनता को जो राहत मिली है उस पर हर किसी को सन्तोष और गर्व हो सकता है। स्वतन्त्रता आन्दोलन ने एकाधिकारवाद को चुनौती दी और शासन-व्यवस्था सामाजिक उत्पीड़न तथा अर्थपाश से जिस हद तक जनसाधारण को त्राण दिलाया, उतने अंशों में उसे सराहा ही जाएगा। परन्तु अचानक वे कौन-से कारण आ खड़े हुए कि भारत में आजादी की आधी शताब्दी पूरी होने के साथ-साथ समूची राष्ट्रीय राजनीति भ्रष्टाचारी ताकतों की गुलाम हो गयी। इसी के समानान्तर राष्ट्रीय मध्यम वर्ग भोगवाद की माँग से मदमस्त होता जा रहा है। पूरे देश में तामसिकता का प्रबल आवेग है और समाज अनैतिकता की आँधी की चपेट से घिरा हुआ है। जीवन-मूल्यों के महावटवृक्ष जो देश और समाज को अपनी शीतल छाँव से राहत पहुँचाते थे, आज टूट-उखड़ रहे हैं।

समाज मूलतः जीवनमूल्यों की सत्ता से संचालित होता है। ये जीवन-मूल्य देशकाल-पात्र सापेक्ष होते हैं, यह ठीक है। फिर भी इनका सनातन आधार सात्विकता है जिसका मूल तत्व करुणा है। परोपकार इनकी पृष्ठभूमि है। इससे सहयोग सम्भव होता है और सहयोग समाज की, मानवीयता की पहली शर्त है, अन्यथा समाज क्रमशः भीड़, फिर युद्धक्षेत्र और अन्ततः दबंग की जमींदारी बन जाया करता है। सहयोगी परस्परावलम्बन तथा शोषण पर आधारित समूहीकरण, मानव समाज की दो सतत् सक्रिय प्रवृत्तियाँ रही हैं। अनैतिकता समाज में अमानवीयता फैलाने का पहला अध्याय होती है। अतः किसी भी सजग व्यक्ति को अनैतिकता की हर आहट से सावधान हो जाना चाहिए।

स्वतंत्रता का अर्थ नैतिकता की अवहेलना या फिर जीवनमूल्यों की अवमानना नहीं है। स्वाधीनता के उत्साह के साथ-साथ यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि इस प्रभाव का लाभ उठाकर कहीं अवांछनीय दुष्प्रवृत्तियाँ ही छुट्टल न हो जाएँ। इस सम्बन्ध में समुचित सतर्कता न बरतना ही वह कारण है, जिसकी वजह से स्वतन्त्रता आन्दोलन की सफलता व उपलब्धियाँ स्वर्णजयंती की आभा के बावजूद धूमिल व कलंकित हो रही हैं।

विचारों की अभिव्यक्ति लेखन-भाषण की स्वतन्त्रता को स्वतन्त्रता आन्दोलन का मुख्य आधार माना गया है। यह उचित भी है पर यह छूट अवांछनीय को नहीं मिलनी चाहिए, जैसी कि इन दिनों मिल रही है। उदाहरण के लिए, लेखन की स्वतन्त्रता सामने है। उसने जनता का कितना हितसाधन किया, इसका लेखा-जोखा किया जाना चाहिए। इन दिनों जो लिखा जा रहा है, जो छापा और बेचा जा रहा है, उस साहित्य पर गौर किया जाना चाहिए। इसमें से अधिकाँश ऐसा है, जो मनुष्य की पशुता को उभारता है, दुष्प्रवृत्तियों को भड़काता है, धूर्तता सिखाता है, भ्रम-जंजाल में फँसाता है। इसका परिणाम सामने आ रहा है। लोक-चिन्तन का स्तर गिरता जा रहा है। सोचने की दिशा विकृत होती जा रही है। चारित्रिक स्तर गिर रहा है, गतिविधियों में तेजी से अवांछनीयता प्रवेश कर रही है। पाप-पुण्य का जैसा विश्लेषण हमारे साहित्यकार कर रहें हैं, उससे यही समझा जाने लगा है कि उचित-अनुचित का भेद करना निरर्थक है। अपनी सुविधा और रुचि स्वतन्त्रता के आधार पर जो ठीक लगे सो कर गुजरना चाहिए।

लेखन व्यवसाय में संलग्न लोगों का श्रम और चिन्तन इसी दिशा में चल रहा है, क्योंकि प्रकाशन में जिनका पैसा लगता है, वो तुरंत–फुरंत लाभ कमाना चाहते हैं। यह तभी सम्भव है, जब लोगों की माँग का पोषण किया जाए। कहना न होगा कि प्रचलित वातावरण में कुरुचि का बढ़ना स्वाभाविक है। कुरुचि का पोषण ही पसन्द किया जा रहा है। ऐसे में व्यवसायी के लिए यही रास्ता लाभदायक है कि वह जल्दी और अधिक लाभ कमाने के लिए कुरुचिपूर्ण उत्पादन करे। पैसे देकर वह लेखक का श्रम, दिमाग और सहयोग खरीदता है और गाड़ी आगे चल पड़ती है। बाज़ार में उपलब्ध आज का सारा साहित्य इकट्ठा करके उसका वर्गीकरण किया जाए और उपयोगिता-अनुपयोगिता की कसौटी पर कसा जाए, तो इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ेगा कि लेखन और प्रकाशन की स्वतंत्रता का वैसा उपयोग नहीं हुआ, जैसा कि होना चाहिए था। यह उपक्रम जीवन-मूल्यों का उत्थान कम, पतन अधिक कर रहा है। इस निष्कर्ष पर कोई पहुँचता है तो गलत न कहा जा सकेगा। पत्र-पत्रिकाओं व पुस्तकों के माध्यम से इन दिनों जनसाधारण को जो दिशा मिल रहीं है, उस पर ज्यादा संतोष नहीं किया जा सकता। सुरुचिपूर्ण साहित्य की तुलना में कुरुचिपूर्ण लेखन और प्रकाशन की बाजी मार रहा है।

विचारों की अभिव्यक्ति का दूसरा माध्यम वाणी है। धार्मिक मंच पर कथा-प्रवचनों वाले महंत, महाराज जी जो कहते-बोलते रहते हैं, उसमें कितना विवेक, कितना सौंदर्य, कितना प्रकाश और कितना तथ्य रहता है-इसका विश्लेषण करने पर किसी उत्साहवर्द्धक नतीजे पर नहीं पहुँचा जा सकता। राजनैतिक मंच से अपनी पार्टी के हित को प्रधान रखने वाले धुँआधार भाषण सुनने को मिलते हैं। पिछड़े देश की जनता को जिस राष्ट्रीय कर्तव्यनिष्ठा के आरम्भिक शिक्षण की जरूरत है, उसे कौन सिखाता है? भड़काने वाले, विग्रह उत्पन्न करने वाले गरमागरम लच्छेदार भाषण कहीं भी सुन लीजिए। सृजनात्मक प्रशिक्षण के अभाव में वक्ताओं की वाणी जनता का कितना हितसाधन कर सकती है इस पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने की जरूरत है।

वाणी का दूसरा क्षेत्र है-रंगमंच संगीत अभिनय को मनोरंजन की दृष्टि में प्रयोग में लाया जाता है, पर उसमें छिपी हुई ऐसी क्षमता भी है, जो मस्तिष्क और चरित्र को आश्चर्यजनक रीति से प्रभावित करती है। इसलिए उस अभिव्यक्ति को मात्र मनोरंजन कहकर महत्त्वहीन नहीं ठहराया जा सकता। यंत्रीकरण के इस युग में संगीत और अभिनय का केन्द्र सिनेमा हो गया है। हजारों सिनेमाघरों में करोड़ों लोग रोज सिनेमा देखते हैं। उसमें क्या दिखाया अथवा सिखाया जाता है और मनोरंजन के लिए जाने वाले दर्शक वहाँ से क्या प्रभाव लेकर लौटते है।, इसकी ओर गम्भीरता से ध्यान दिया जाना चाहिए। उसमें कितना सुरुचिपूर्ण अंश है और कितना कुरुचिपूर्ण, उसका विश्लेषण किया जान चाहिए। मनोरंजन की उपयोगिता-आवश्यकता को समझा जा सकता है पर उसे विषाक्त करने की स्वतन्त्रता क्यों मिलनी चाहिए, जो सामाजिक जीवन के आधारभूत मूल्यों के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लगा दें?

जन-जीवन यदि इतना प्रबुद्ध होता कि विष और अमृत का भेद कर सकता और हंस की तरह दूध पीने और पानी छोड़ने में प्रवीणता दिखा सकता तब तो खैर कहना ही क्या था? फिर तो धर्मशास्त्र से लेकर राज्यशासन तक की भी आवश्यकता ही न पड़ती। जनमानस की बालक जैसी सुरक्षा करना, प्रबुद्ध नेतृत्व का कर्तव्य इसीलिए है कि दुष्प्रवृत्तियों के उभरने की परिस्थितियाँ उत्पन्न न होने पावें। जिन्दगी के हर क्षेत्र में जो कुरुचि घुस पड़ी है, उसे प्रस्तुतकर्ताओं की नागरिक स्वतन्त्रता पर समर्थन दिए जाने का प्रचलन है। यही नहीं आगे भी दिनों-दिन अश्लीलता का विष और भी अधिक मात्रा में घुलाने की छूट मिलती जा रही है। इसके प्रभाव के रूप में शारीरिक और मानसिक विकृतियों के चक्रव्यूह में और भी बेतरह फँसना पड़ेगा। अभिव्यक्तियाँ की स्वतन्त्रता यदि इस प्रकार के अनर्थ सँजानेे लगे तो उससे वह नियंत्रण-बन्धन क्या बुरा है जो पराधीनता की स्थिति पैदा करके अवांछनीय अभिव्यक्तियों को कड़ाई के साथ रोक दे।

मनुष्य के मौलिक अधिकारों के नाम पर न जाने क्या-क्या करने की छूट मिल चुकी है और भविष्य में न जाने आगे वह और क्या क्या करके रहेगा। हिप्पी संस्कृति इसी उच्छृंखल स्वाधीनता की परिणति है। जहाँ-तहाँ नवयुवक-नवयुवतियाँ भौंड़ी वेश-भूषा बनाए नशे में धुत्त, शील और मर्यादाओं के घोर विरोधी बने हुए जहाँ-तहाँ निरुद्देश्य घूमते दिखाई पड़ते हैं। इन्हें कुछ सिरे-फिरे लोग नहीं मान लेना चाहिए। यह एक संस्कृति है, जो नई पीढ़ी के मस्तिष्कों पर ग्रहण की तरह आच्छादित होती चली जा रही है। इनका मानना है कि स्वतन्त्रता तो पूरी स्वतन्त्रता। बन्धन तोड़ने तो फिर पूरे तोड़ने। आजादी तो फिर पूरी आजादी। दाम्पत्य जीवन, परिवार व्यवस्था, सामाजिक सदाचार सभी एक-एक करके ढहते-मिटते जा रहे है। गम मिटने के लिए नशे के देवता की आराधना का प्रचलन बढ़ा है। अपराधों की स्वतन्त्रता के लिए भी तेजी से कदम बढ़े हैं। राष्ट्रीय स्वाधीनता के इन पचास वर्षों में जीवन-मूल्य बेतरह ध्वस्त हुए हैं। इनमें बुरी तरह गिरावट आयी है।

व्यक्तिगत जीवन में स्वेच्छापूर्वक गतिविधियाँ अपनाने की छूट का समर्थन किया जाना चाहिए, पर वह एक सीमा तक। व्यक्त एकाकी नहीं है। उसका व्यक्तिगत जीवन भी समाज को प्रभावित किए बिना नहीं रह सकता। व्यसन, व्यभिचार, नशेबाजी, उद्धत रहन-सहन जैसी कुरुचिपूर्ण छूट आज व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के नाम पर मिली हुई है, सो लोग उसका पूरा-पूरा उपयोग करने में लगे हैं? क्या इनका प्रभाव उनके परिवार पर नहीं पड़ता? समाज की गतिविधियाँ बिना प्रभावित हुए रहती हैं क्या? ये तथ्य समझे ही जाने चाहिए और इस समस्या पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए कि स्वतन्त्रता के दूध में उच्छृंखलता का, असामाजिकता का विष कहीं इतना तो नहीं मिल रहा है कि वह खाद्य ही अखाद्य बन जाए।

स्वाधीनता की स्वर्णजयंती मनाने वाले राष्ट्र के सम्मुख उपरोक्त सभी प्रश्न यक्ष की चुनौती बनकर सामने खड़े हैं। धर्मराज युधिष्ठिर की तरह वनवास की पीड़ा भोगते जगद्गुरु भारत की प्यास तब तक नहीं बुझेगी, जब तक वह इन प्रश्नों के न्यायोचित उत्तर न तलाश लें। स्वतन्त्रता का सही अर्थ खोजना आज एक राष्ट्रीय कर्तव्य बन चुका है। स्वतन्त्रता, स्वाधीनता के नाम पर पारिवारिक-सामाजिक प्रशासनिक, राजनैतिक हर स्तर पर जो अनुशासनहीनता, उच्छृंखलता पनपी है, नैतिकता सिसक रही है। आज की दशा में जीवनमूल्यों का वर्तमान संकट, सामाजिक की अपेक्षा राष्ट्रीय अधिक है। यह एक ऐसी प्रबल राष्ट्रीय चुनौती है, जिसे स्वीकार करना राष्ट्र के प्रत्येक विचारशील नागरिक एवं प्रगतिशील वर्ग का कर्तव्य है।

विचारक्रान्ति आन्दोलन का केन्द्र कहे जाने वाले शान्तिकुञ्ज ने इस राष्ट्रीय कर्तव्य को गहराई से समझा और स्वीकार किया है। देश की स्वतन्त्रता के पचासवें वर्ष पूरे होने के अवसर पर ‘देवसंस्कृति के खुले विश्वविद्यालय’ की स्थापना की प्रस्तावित योजना के पीछे जीवनमूल्यों के संरक्षण व प्रशिक्षण का स्वप्न निहित है। इसके माध्यम से विविध रूपों में देशवासियों को यह बोध कराया जाएगा कि आजादी का अर्थ अनुशासनहीनता या उच्छृंखलता नहीं है। यह भूलने की बात नहीं है कि पिछले दिनों जो वातावरण रहा है-इन दिनों जो परिस्थितियाँ है।, उनने मनुष्य की दुष्प्रवृत्तियों को बहुत आगे तक परिपुष्ट किया है। सत्प्रवृत्तियाँ अभी तक एक प्रकार से अविकसित स्थिति में पड़ी हैं। स्वतंत्रता सत्प्रवृत्तियों को मिले, दुष्प्रवृत्तियों को नहीं। इस तथ्य को यदि ध्यान में रखा गया तो ही हजारों-लाखों बलिदानों एवं कुर्बानियों से मिली हुई आजादी वह प्रयोजन पूरा कर सकेगी, जो उसका उद्देश्य है। इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए कृतसंकल्प शान्तिकुञ्ज प्रत्येक हृदयवान एवं विचारशील से अपना सक्रिय सहयोगी होने की अपेक्षा करता है। इस अपेक्षा को पूरा करना ही आज के समय का वैयक्तिक एवं राष्ट्रीय कर्तव्य है। 5 पैराग्राफ नहीं जुड़े हैं यहाँ पर!


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