भारतीय विद्याओं का पुनर्जीवन समय की अनिवार्य आवश्यकता

June 1998

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

अतीत का विश्वगुरु भारत। बीसवीं सदी के अन्तिम दशक का अन्तिम चरण। पर्यावरण में प्रदूषण की अन्तहीन परतें। भ्रष्टाचार और विदेशी कर्ज के असह्य बोझ की विकल छटपटाहट। ज्ञान और तकनीक के लिए औरों के सामने अनोखी दयनीयता। बढ़ती हिंसा, अलगाव एवं आतंक के गहरे स्याह कुहरे में सहस्राब्दियों के प्रयत्न से विकसित देश की आत्म-छवि धूमिल, अदृश्यप्राय।

क्या यह वही देश है जहाँ याज्ञवल्क्य, वामदेव प्रभृति महर्षियों ने ज्ञान के अलौकिक आयाम खोजे थे, जहाँ की विचार-परम्परा में समस्त सृष्टि को ब्रह्म का प्रतिरूप माना गया था। वह देश, जहाँ नारी शक्ति मानी जाती थी और जिसकी पूजा को सामाजिक आदर्श बनाया गया था? जहाँ ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ने गायत्री महाविद्या का अन्वेषण करके धियो यो नः प्रचोदयात् के रूप में समस्त मनुष्य जाति को सन्मार्ग की राह सुझायी थी। क्या यह वही महादेश है, जहाँ गणित, विज्ञान के अनेकों नवीन सिद्धान्तों के साथ आयुर्वेद, ज्योतिषशास्त्र जैसी अलौकिक विद्याएँ जन्मी थीं।

इसी देश में वर्धमान महावीर ने जीव दया का सिद्धान्त प्रतिपादित किया था और अहिंसा को परमधर्म के रूप में प्रतिष्ठित किया था। वह देश जिसमें गौतम बुद्ध का महाकरुणा का सिद्धान्त जन्मा और पल्लवित-पुष्पित हुआ। क्या यह वही देश है, जहाँ दरिद्र-समुदाय में स्वामी विवेकानन्द ने नारायण के दर्शन किए थे, जहाँ की राजनीति में महात्मा गाँधी ने सत्य और शुचिता के बीज बोए थे। इसी देश की धरती में तो सुभाष बोस, भगतसिंह और चन्द्रशेखर आजाद सरीखे वीरों ने अपने लहू से बलिदानों की कथाएँ लिखी थीं।

आज तो सब कुछ बदला-बदला नजर आता है। पुराना कुछ भी तो पहचाना नहीं जाता। विचार हों या परम्पराएँ अथवा फिर जीवनशैली, विदेशों की नकल ही अपना राष्ट्रीय आदर्श बन चुका है। वैज्ञानिकता हो या अर्थनीति, हर कहीं हम विदेशियों के अनुयायी हैं। हिंसा मनोरंजन बन गयी है, क्रूरता उसका अन्तःकरण। नारी के प्रति आदर छेड़-छाड़ में अभिव्यक्त होता है, उसका चरम है बलात्कार। कम दहेज को निमित्त बनाकर कितनी स्त्रियाँ रुलाई जाती हैं, जलाई जाती है-यही है नारी का सम्मान, उसकी पूज? हिंसा के बढ़ते ज्वार ने जीव-दया और करुणा के प्रकाश-स्तम्भों को ध्वस्त कर दिया। भारतीय ज्ञान व विचार की परम्पराएँ इतिहास के पृष्ठों में जा छुपी हैं। समस्त भारतीय विधाएँ स्थिति की विपन्नता पर आँसू बहा रही हैं। उनके रुदन के स्वर स्पष्ट हैं।

यह विष का लावा कहाँ फूटा? राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के पाँच दशक में अपनी सीमित आर्थिक-प्राविधिक उपलब्धियों के बावजूद हम नैतिक, बौद्धिक, सामाजिक रूप से एकाएक अपंग क्यों हो गए? साँस्कृतिक विघटन की प्रक्रिया चुपचाप चलती रही, हमें उसका अहसास तब हुआ, जब उसने अपने एक तेज झटके से हमारी मूल आशाओं और मान्यताओं को ही तहस-नहस कर दिया। खण्डित परम्पराओं और विश्रृंखलित मूल्यों के अवशेषों को सहे जाते हुए हम आज यह सोचने के लिए विवश हैं। यह क्या हुआ कैसे हो गया? स्वाधीनता प्राप्ति के बाद माहौल इतनी तेजी से क्यों बदला? पाँच हजार वर्षों की परम्पराएँ पचास वर्षों में अवमूल्यित कैसे हो गयीं? विदेशी निर्भरता कैसे हमारे आत्म-सम्मान को बहा ले गयी?

इन सारे महाप्रश्नों के पीछे झाँकती है, हमारी आत्म-उपेक्षा आत्म-अवमानना एवं आत्महीनता। ‘नात्मानंवसादयेत’ के महामंत्र को हम भारतीय प्रायः भूल चुके हैं। यदि कभी हम लोग इस राष्ट्रीय अवसाद से उबरने का प्रयत्न करते भी हैं, तो सिर्फ अतीतजीवी होकर। यह स्मरण ही हमारे लिए पर्याप्त होता है कि हमारे पूर्वज-पूर्व पुरुष महान थे और उन्होंने महानतम कार्य किए। इन उपलब्धियों की वर्तमान में कोई आवश्यकता है, यह सोचने के लिए न तो हममें हिम्मत है, न ही फुरसत। भारतीय विद्याओं के पुनर्जीवन हेतु इन पर गहन शोध-अनुसंधान की बात सोचने वाले कितने होंगे? यह शायद राष्ट्रीय सर्वेक्षण की वस्तु है, जबकि समस्या का समाधान, वर्तमान विपन्नता का एकमात्र हल समय की अनिवार्य आवश्यकता यही है।

भारतीय विद्याओं को पुनर्जीवन ही हमारे राष्ट्रीय माहौल को बदल सकता है। इसमें आमूलचूल परिवर्तन ला सकता है। इसकी ज्ञान की धाराएँ ही हमारी आस्थाओं, मान्यताओं, भावनाओं, विचारों प्रवृत्तियों, रूढ़ियों का शोधन कर सकती हैं। हमें आँतरिक अवसाद और आत्महीनता की पीड़ा से सदा-सदा के लिए छुटकारा ला सकती है और इसकी वैज्ञानिक धाराएँ आर्तक्रन्दन करते हुए राष्ट्रीय जीवन के लिए अमृत कलश हैं। आयुर्वेद एवं यज्ञ विज्ञान से समर्थ विधा भला स्वास्थ्य-संकट एवं पर्यावरण-संकट से उबरने कि लिए और क्या होगी?

भारतीय विद्याओं की इस महासामर्थ्य के बलबूते ही शान्तिकुञ्ज ने राष्ट्रव्यापी ही नहीं, विश्वव्यापी नैतिक, बौद्धिक एवं सामाजिक क्रान्ति का महासंकल्प लिया है। देवसंस्कृति के विश्वविद्यालय की स्थापना के साथ इन पर व्यापक शोध-अनुसंधान के महान आयामों को विकसित किया जाना है। शुरुआती दौर में यह प्रक्रिया आयुर्वेद, मंत्रविद्या, यज्ञविद्या, ज्योतिर्विज्ञान तक ही भले सीमित रहे, परन्तु थोड़े ही समय में इसकी विधि शाखाएँ-प्रशाखाएँ आना स्वरूप और आकार ग्रहण करने लगेंगी। इस प्रयास का एक ही उद्देश्य है, राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय गौरव की वापसी। यह इस महान सत्य की उद्घोषणा है- भारत के पास अभी भी विश्व को अजस्र अनुदान देने की सामर्थ्य है।

अपने समय की इस अनिवार्य आवश्यकता को पूरा करके ही हम सही ढंग से अपने राष्ट्रीय एवं मानवीय दायित्व का निर्वाह कर सकते हैं। भारतीय विद्याओं के पुनर्जीवन हेतु शोध और अनुसंधान का जो ढाँचा यहाँ खड़ा किया गया है और आगे किया जाना है, वह एक स्थानीय संस्था में चलने वाला प्रयोग-परीक्षण भर नहीं है। वरन् आशा की गयी है कि साधनों के अभाव में अभी छोटे रूप में प्रयोगात्मक आधार दिया जाए, तो आगे यह निश्चित रूप से विस्तृत रूप लेगा। इसकी सफलता ही-इक्कीसवीं सदी में राष्ट्रीय जीवन में उज्ज्वल भविष्य का स्वरूप ग्रहण करेगी।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118