अपना भूलोक सौरमण्डल के बड़े परिवार का एक सदस्य है। सारे परिजन एक सूत्र में बँधे हैं। वे सभी अपनी-अपनी कक्षाओं में घूमते और सूर्य की परिक्रमा करते हैं। सूर्य स्वयं अपने परिवार के ग्रह-उपग्रहों के साथ महासूर्य की परिक्रमा करता है। यह क्रम आगे बढ़ते-बढ़ते ब्रह्माण्ड के नाभिक महाध्रुव तक जा पहुँचता है। इतने सारे जटिल व्यवस्था-क्रम के बावजूद सारे ग्रह-नक्षत्र न सिर्फ एक-दूसरे के साथ बँधे हुए हैं। वरन् इनके बीच अत्यन्त महत्वपूर्ण आदान-प्रदान भी चलता रहता है। इन सभी के मिले-जुले प्रयास का ही परिणाम है कि ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति बनी रहती है। यदि ऐसा न बन पड़ता तो कहीं भी अव्यवस्था फैल सकने के अवसर उत्पन्न हो जाते। ग्रहों के बीच यह आपसी सहयोग एवं आदान-प्रदान इतना अधिक महत्वपूर्ण है कि इसे ब्रह्माण्डीय प्राण-प्रवाह की संज्ञा दी जा सकती है।
इस पृष्ठभूमि को जान लेने के बाद आज के वैज्ञानिक युग में भी ज्योतिर्विज्ञान को नए सिरे से समझने का प्रयास आवश्यक हो जाता है। विज्ञान के क्षेत्र में इसे उच्चस्तरीय स्थान प्राप्त है। ऋतु-परिवर्तन वर्षा, तूफान, चक्रवात, हिमपात, भूकम्प जैसी प्रकृतिगत अनुकूलता-प्रतिकूलताओं की बहुत कुछ जानकारियाँ वैज्ञानिक लोग अन्तर्ग्रही स्थिति के आधार पर ही प्राप्त करते हैं। खगोल भौतिकविदों का ऐसा अनुमान है कि मौसमों की स्थिति पृथ्वी पर अन्तरिक्ष से आने वाले ऊर्जा-प्रवाहों के सन्तुलन-असन्तुलन पर निर्भर होती है। साधारणतया पृथ्वी के ध्रुवों पर ही अन्तरिक्षीय ऊर्जा से होकर ही ब्रह्माण्डव्यापी अगणित सूक्ष्म-शक्तियाँ सम्पदाएँ पृथ्वी को प्राप्त होती है।
इनमें से जो उपयुक्त हैं उन्हें तो पृथ्वी अवशोषित कर लेती है एवं अनुपयुक्त को दक्षिणी ध्रुव द्वारा से अनन्त आकाश में खदेड़ देती है। जिस प्रकार वर्षा का प्रभाव प्राणिजगत एवं वनस्पति-समुदाय पर पड़ता है।, उसी प्रकार अन्तर्ग्रही सूक्ष्म-प्रवाहों का जो अनुदान पृथ्वी को मिलता है, उससे क्षेत्रीय एवं सामयिक स्थिति में भारी उलट-पुलट होती है। यहाँ तक कि इस प्रभाव से प्राणिजगत भी अछूता नहीं रहता। मनुष्यों की शारीरिक और मानसिक स्थिति भी इस प्रक्रिया से बहुत कुछ प्रभावित होती है ज्योतिर्विद्या के जानकार बताते हैं कि वर्तमान की स्थिति एवं भविष्य की सम्भावना के सम्बन्ध में इस वान के आधार पर पूर्व जानकारी से समय रहते अनिष्ट से बच निकलने और श्रेष्ठ से अधिक लाभ उठाने की विधा को यदि विकसित किया जा सके, तो यह मानव का श्रेष्ठतम पुरुषार्थ होगा। ऋषिगणों ने इसके लिए समुचित मार्ग भी सुझाया है। आवश्यकता पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर इस विज्ञानसम्मत प्रणाली को समझने की है।
आधुनिक वान ने भी यह बात अच्छी तरह से समझ ली है कि मनुष्य पृथ्वी पर बसने वाला विराट सत्ता का एक घटक है एवं पृथ्वी उस विराट के प्रतीक सूर्यमण्डल का ही एक अंश है। तीनों में एक ही प्राण प्रवाहित हो रहा है। बच्चा गर्भावस्था में व जन्म के तुरन्त बाद एक रज्जुनाल से माँ से जुड़ा रक्त पाता रहता है। इस रक्त-प्रवाह से ही जो माँ हृदय की गंगोत्री से प्रवाहित होता है, शिशु के सारे क्रिया−कलाप चलते है। सारे जीवकोषों का निमार्ण, एक ही निषेचित डिम्बाणु से अरबों सेल्स का बनना इसी प्रक्रिया के सहारे बन पड़ता है। इसे वैज्ञानिक अपनी भाषा में एम्पेथी या समानुभूति कहते है। मनुष्य, पृथ्वी, सूर्य-महासूर्य एवं परब्रह्म-ये सभी इसी समानुभूति की एक कड़ी है। जो भी सूर्य पर घटित होगा, वह मनुष्य एवं अन्यान्य जीवधारियों के रोम-रोम में स्पन्दित होगा। मानवीय रक्त में तैर रही रक्त-कोशिकाएँ एवं न्यूक्लीय एसिड जैसा जीन्स, जीन्स बनाने वाला क्षुद्र घटक सूर्य के अणुओं से समानुभूति-ऐक्य रखता है एवं अच्छे-बुरे सभी प्रभावों में बराबर हिस्सा लेता है। सूर्य के हमसे करोड़ों मील दूर अवस्थित होने पर भी इस प्रभाव में कोई अन्तर आने वाला नहीं।
इस अन्तर्ग्रही प्रभाव को, सौर-गतिविधियों के मानवीय शरीर पर पड़ने वाले प्रभाव को जुड़वा बच्चों के उदाहरण से अच्छी तरह समझा जा सकता है। एक ही अण्डे से पैदा होने वाले दो बच्चे जो गर्भाशय से साथ-साथ विकसित होते है। उनको जन्मोपरान्त कहीं कितनी भी दूर क्यों न रखा जाए, उनके व्यवहार, चिंतन-आदतों में काफी कुछ साम्य मिलता है। यह एक अणु से एक पर्यावरण से विकसित होने की परिणति है। मानव, पृथ्वी, सूर्य भी इसी तरह से एक ही अणु से विनिर्मित होने के कारण समानुभूति के आधार पर परस्पर प्रभावित होते है। यही ज्योतिर्विज्ञान का केन्द्र बिन्दु है। हर क्षण, हर पल पृथ्वी के कण-कण का सूर्य के महाकणों से एक सम्बन्ध सूत्र जुड़ा हुआ है। इसी प्रकार मानवीय जीवकोषों का उस विराट से विभु से सम्बन्ध ऐसे जुड़ा है, जैसे दो बिजली के तार जुड़े होते है। जिनमें सतत् विद्युतधारा प्रवाहित होती रहती है।
इस समानुभूति को अब विज्ञान ने एक नयी परिभाषा दी है, क्लीनिकल इकोलॉजी अर्थात् पर्यावरण से प्रभावित जीव-विज्ञान इसी में सूर्य में घटने वाली सभी घटनाओं, धब्बों, सूर्य की लपटों, सौर-कलंकों भू-चुम्बकीय तूफानों, मौसम में अप्रत्याशित परिवर्तनों के जीवधारियों पर पड़ने वाले प्रभाव का आकलन किया जाता है, यह चेतन जगत की एक लयबद्धता का परोक्ष के प्रभाव का प्रत्यक्ष प्रमाण है। हर ग्यारहवें वर्ष सूर्य-कलंकों के आने व अति संवेदनशील वृक्षों में वर्तुल बने, यह देखकर उसकी आयु का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है। यदि मौसम अधिक गर्म होता है, तो ये वर्तुल चौड़े बनते हैं और जब मौसम अपेक्षाकृत ठण्डा व शुष्क होता है, तो ये वर्तुल संकरे होते है। मौसम के इतने से व्यतिरेक से भी इतनी दूर अवस्थित पृथ्वी के वनस्पति समुदाय पर बिलकुल सटीक प्रभाव पड़ सकता है, यह इसका प्रमाण है।
जब वृक्ष-वनस्पति इतने संवेदनशील है कि करोड़ों मील दूर अवस्थिति सूर्य पर होने वाले परिवर्तनों को अपने ऊपर अंकित होने देते हैं। तब मानवीय काया के सूक्ष्मतम जीवकोषों एवं अतिसूक्ष्म स्नायुकोषों की तो इन प्रभावों के प्रति और भी अधिक गहरी समानुभूति होनी चाहिए। विज्ञानवेत्ताओं ने अपने शोध-अनुसंधान में पाया भी है कि सौरमण्डल स्थित पल्सार्ज एवं ब्लैकहोल से निकलने वाले न्यूट्रीनो कण जो प्रकाश की गति से भी तेज चलकर धरती को पार करते हैं, मानवीय मस्तिष्क के ‘माइन्जेन’ अणुओं से अधिक मेल खाते है। इसी प्रकार अतिसूक्ष्म न्यूक्लीय अम्लों पर भी उनका प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार सौर मण्डल के परिवार के किसी भी सदस्य के धरती स्थित जीवधारियों पर पड़ने वाले प्रभाव को झुठलाया नहीं जा सकता। यह तो ठीक तरह से तय नहीं हो सकता कि वृक्षों की तरह मानवी मस्तिष्क में भी हर ग्यारहवें साल वर्तुल पड़ते है या नहीं, किंतु यह सत्य है कि इस अवधि में मानसिक आवेग, उत्तेजना, उन्माद, बेचैनी बहुत तेज हो जाती है। आत्महत्या, परस्पर आक्रामक व्यवहार एवं दुर्घटनाओं में सहसा बढ़ोत्तरी हो जाती है। रेडियो-धर्मिता के परिवर्तन जो इतने विराट अन्तरीप में घटते हैं, इसका ठीक-ठाक अध्ययन ज्योतिर्विज्ञान के अंतर्गत ही सम्भव है।
विज्ञान ने इन दिनों अन्तरिक्ष का असाधारण महत्व समझा है। सभी जानते है कि वायु एवं जल की अथाह सम्पदा आकाश के पोले ईथर में भरी है। विज्ञान के ज्ञाता इस तथ्य से परिचित है कि बिजली, रेडियो, लैसर आदि की तरंगें आकाश में संव्याप्त होती है। ध्वनि, ताप, प्रकाश आदि की तरंगें आकाश में प्रवाहित होती है तथा अन्तर्ग्रही अनुदान भी उसी क्षेत्र में मिलते हैं। अदृश्य जगत की सम्पदा सूक्ष्म-अन्तरिक्ष में ही समाहित है। विचार तरंगें इसी परिसर में परिभ्रमण करती रहती है। ऐसे अनेकानेक आधार हैं, जिनसे स्पष्ट है कि भूमण्डल की तुलना में अन्तरिक्ष में विद्यमान साधन-सम्पदा का महत्व और स्तर असंख्य गुना अधिक है।
अध्यात्मवेत्ता अनादि काल से ही अपनी गतिविधियों को अन्तरिक्ष पर केन्द्रीभूत रखे रहे है। उनकी सामर्थ्यों का उत्पादन क्षेत्र अदृश्य जगत, सूक्ष्म-जगत रहा है। ऋद्धि-सिद्धियाँ भौतिक एवं आध्यात्मिक विभूतियाँ दिखाई तो प्रत्यक्ष रूप में पड़ती है, किन्तु इनका उपार्जन परोक्ष जगत से ही सम्भव हो पाता है। मानवी अन्तराल में तो उसकी बीज सत्ता भर विद्यमान है। लेकिन वह सुविकसित होने और विभूतियों को करतलगत करने में अदृश्य सूत्र जगत का ही अवलम्बन लेती है। साधना की तो जाती है अन्तराल में पर उसका प्रतिफल दैवी शक्तियों का सहयोग लेने पर ही मिलता है।
विषाक्तता बढ़ने से आकाश में प्रदूषण बेतरह भर गया है। इसकी वजह मनुष्यों के जीवनस्तर में भारी गिरावट आयी है, साथ ही अन्यान्य प्राणियों, इनसानों को भी दुर्बलता और रुग्णता का अभिशाप सहते हुए अकाल मृत्यु के मुँह में जाने के अलावा और कोई चारा नहीं रहा। प्राकृतिक प्रकोप इन्हीं दिनों अधिक परिमाण में दिखाई दे रहे हैं। पृथ्वी अनय ग्रहों के प्रवाहों से निश्चित ही प्रभावित होती है। सौरमण्डल के चक्र में बँधी होने के कारण पृथ्वी का वातावरण भी अन्यान्य ग्रहों पर प्रभाव डालता है। अतएव असन्तुलनों और प्राकृतिक विपदाओं में मनुष्य द्वारा प्रदूषित पृथ्वी के वातावरण का भी सहयोग हो सकता है, ऐसा पर्यावरण विशेषज्ञ मानने लगे हैं। इस विषाक्तता के परिशोधन का आज किसी को कोई कारगर उपाय नहीं सूझ रहा। अनन्त अन्तरिक्ष के किसी कोने में जो आणुविक एवं अन्यान्य कचरे को फेंकने की बात सोची जाती है, वह मनुष्य के लिए कोई हानिकारक प्रभाव नहीं उत्पन्न करेगी यह सन्देहास्पद है। अन्तरिक्ष क्षेत्र में बढ़ते हुए तकनीकी कदमों के साथ बढ़ते उपग्रहों की संख्या भी भावी विभीषिकाओं का एक निराशाजनक पहलू प्रस्तुत करती है, जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता।
भौतिक विज्ञान तथा उसका तकनीकी ज्ञान प्राचीनकाल में भले ही इतना सुविकसित न हो, पर जिन उपलब्धियों के लिए आज अन्तरिक्षविज्ञानी प्रयत्नशील है, वे सारे प्रयोजन ज्योतिर्विज्ञान द्वारा गणना आदि के माध्यम से पूरे किए जाते थे। अन्तरिक्ष के अन्तराल में ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति उनसे मिलने वाले अनुदान तथा उनके हानिकारक प्रभावों की जानकारी ज्योतिर्विज्ञान देता था। आत्मविज्ञान उससे लाभ उठाने, प्रतिकूलताओं से सुरक्षा-उपचार की विधि-व्यवस्था जुटाता था। अतीत की खोई हुई इस महान विद्या ज्योतिर्विज्ञान की विलुप्त कड़ियों को ढूँढ़ने की पुनः आवश्यकता है। इस विज्ञान को नए सिरे से समझने का प्रयास हो सके तो वान के कदम से कदम मिलाकर चलते हुए विना किसी क्षति के अन्तरिक्ष जगत से एक से बढ़कर एक भौतिक एवं अन्यान्य अनुदानों से लाभान्वित होना सम्भव है।
अखण्ड ज्योति अध्यात्म एवं विज्ञान को परस्पर सहयोगी बनाने के निमित्त दार्शनिक स्तर पर ही नहीं, अनेक आधारों को लेकर प्रयत्नरत है। इन्हीं अनेकों में से एक ज्योतिर्विज्ञान को नए सिरे से समझने का प्रयास भी है। इससे ऋषि-परम्पराओं के आधार पर चलते रहे भूतकालीन प्रयासों की गरिमा को समझा जा सकता है और उसका आधुनिक विज्ञान सम्मत स्वरूप प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। इस संदर्भ में अगली दिनों बनाए जाने वाले देवसंस्कृति विश्वविद्यालय के अंतर्गत ज्योतिर्विज्ञान प्रभाग को अपने ढंग का अनोखा ही समझा जा सकता है। यह प्रयास अभी आरम्भिक रूप में है। क्रम यथावत चलता रहा तो प्रदान चल पड़ने की सम्भावना है, जैसा कि कुटुम्बी-पड़ोसियों के साथ आमतौर से चलता रहता है।