चरैवेति-चरैवेति ‘ प्राचीनकाल के महर्षियों का आदर्श वाक्य रहा है। इसी का अनुसरण करे हुए उन्होंने प्रव्रज्या की पुण्य परम्परा स्थापित की, जिससे विद्या-विस्तार का प्रयोजन पूर्ण हो सके। वैदिक काल में विद्या−विस्तार के जितने भी प्रयोग किए गए-प्रव्रज्या उन सभी में अनिवार्य रूप से गुँथी रही। प्रायः सभी ऋषियों, सन्तों और धर्म प्रवक्ताओं को परिव्राजक बनकर ही रहना पड़ा है। एक स्थान को कभी भी उन्होंने अपना कार्यक्षेत्र नहीं बनाया। देवर्षि नारद के ढाई घड़ी से अधिक कहीं भी न ठहरने की कथा तो लोकविख्यात है। इतनी ही अवधि में उन्होंने ध्रुव, प्रह्लाद, पार्वती, सावित्री आदि न जाने कितनों को न जाने क्या-क्या मार्गदर्शन दे दिया। उसी के बलबूते उनका जीवन धन्य-धन्य हो गया।
आमतौर पर सुगमता और सुविधा लोगों को अपने परिचित, निकटवर्ती तथा सगे-सम्बन्धियों वाले क्षेत्र में बसने के लिए विवश करती है। परिचित-सम्बन्धियों से कई प्रकार की सहायता की आशा भी रहती है और भाषा आदि की सुविधा के कारण अनुकूलता भी। संसार में सामान्यजनों का निर्वाह इसी प्रकार होता रहता है, किन्तु महामानवों को इससे सर्वथा भिन्न रीति-नीति अपनानी पड़ती है। उनके लिए सभी अपने होते हैं। पराया कोई भी नहीं। इसीलिए अपनों की निकटता जैसा मोह उन्हें सताता नहीं। वे हमेशा उपयोगिता एवं आवश्यकता को ध्यान में रखते हैं और जहाँ भी पिछड़ापन दिखता है, वहाँ न देने, विद्या का आलोक पहुँचाने के लिए तत्परता से पहुँच जाते हैं।
बादल समुद्र से उत्पन्न होते हैं, पर बरसने के लिए जहाँ भी सूखी भूमि देखते हैं, वहीं चल पड़ते हैं। ऋषियों-सन्तों की भी यही नीति रही है। विद्या-विस्तार के महायोजना हेतु सदा-सर्वदा गतिशील रहने के कारण उनके गले राम-द्वेष दोनों ही नहीं पड़ते हैं, फिर सेवा प्रयास की परिधि का भी व्यापक विस्तार होता है। इसीलिए धर्मशास्त्रों में साधु-ब्राह्मण को प्रव्रज्या प्रवृत्ति अपनाना अनिवार्य धर्म-कर्तव्य कहा गया है। तीर्थ-यात्रा की पुण्य-परम्परा का प्रयोजन यही है।
विशाल भारत की सीमाएँ कभी विश्व के कोने-कोने तक फैली हुई थी। इसलिए धर्म-संरक्षकों ने उसके कोने-कोने में भ्रमण करने, रुकने और स्थानीय आवश्यकता को पूर्ण करने का सुनियोजित कार्यक्रम बनाया था। नदियों, समुद्रों पहाड़ों, दलदलों और वनों की कठिन यात्राओं का सामना करते हुए उनने विश्व का कोई भी कोना ऐसा नहीं रहने दिया था, जिसमें संस्कृति और ज्ञानसम्पदा के अभाव में मनुष्यों को पिछड़ी और गईबीती स्थिति में रहना पड़े। बीच-बीच में विश्राम करने और सुविधा-साधनों का आदान-प्रदान करने के लिए धर्मकेन्द्रों की स्थापना भी की गयी थी और उन्हें तीर्थ का नाम दिया गया था। ऋषियों-संतों को पारस्परिक संपर्क और स्थिति की जानकारी इन्हीं केन्द्रों के माध्यम से होती थी।
वैदिक काल की इस प्रव्रज्या परम्परा को अपनाकर ही महात्मा बुद्ध ने धर्म चक्र-प्रवर्तन किया। उनके धर्मध्वज एवं ज्ञान-उपदेशों को लेकर महेन्द्र, संघमित्रा, कौडिन्य, कुमारजीव ने सुदूर देशों की यात्रा की। शंकराचार्य ने इसी प्रक्रिया को और अधिक प्रखर बनाने के लिए चार धामों की स्थापना की। न वे स्वयं कभी एक स्थान पर रहे और न ही उन्होंने अपने शिष्यों, अनुयायियों को कभी एक स्थान पर जमे रहने की सलाह दी। चैतन्य महाप्रभु बंगाल में जन्मे पर उनका कार्यक्षेत्र अधिकतर उत्तर प्रदेश रहा। समर्थ गुरु रामदास ने महाराष्ट्र का कोना-कोना छाना और उससे लगे हुए जिन प्रान्तों में पहुँच हो सकी, वहाँ जाने में झिझकें नहीं। सन्त ज्ञानेश्वर अपने दोनों भाइयों निवृत्तिनाथ, सोपानदेव एवं छोटी बहिन मुक्ताबाई के साथ आजीवन अविवाहित रहकर प्रव्रज्या की पुण्य-परम्परा का निर्वाह करते हरे। जन-जन तक पहुँचकर उन्होंने ज्ञान-सम्पदा का विवरण किया। दक्षिण भारत के रामानुजाचार्य, बल्लभाचार्य आदि उत्तर भारत में रहे और उन्होंने अपना मध्यवर्ती कार्यक्षेत्र वृन्दावन को बनाया।
व्रजभूमि में बल्लभ कुल का गोस्वामी सम्प्रदाय जन्मा, पर वह गुजरात में फला-फूला अयोध्या के निकट जन्मे स्वामी नारायण की जीवनचर्या प्रायः गुजरात में ही बीती। एकनाथ, नामदेव, तुकाराम की मंडलियाँ एक दिन के लिए भी चैन से न बैठी। महाराष्ट्र से उनका कार्यक्षेत्र आरम्भ हुआ और मध्य भारत तक बढ़ता ही चला गया।
सिद्धयोगी सम्प्रदाय के मत्स्येन्द्र नाथ, गोरखनाथ, नेपाल, बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश आदि के सभी महत्वपूर्ण स्थानों पर छाए रहे, इनमें से मत्स्येन्द्रनाथ आसाम के, गोरखनाथ गोरखपुर के और जालन्धर नाथ पंजाब के थे। गहिनीनाथ महाराष्ट्र के थे। ये अपने महान तप से अर्जित ज्ञान-सम्पदा को समूचे भारत में फैलाते-बाँटते रहे। कबीर, सुर, तुलसी, मीरा आदि सन्तों में से कोई ऐसा नहीं हुआ, जिन्होंने अपना कार्यक्षेत्र अपनी जन्मभूमि तक सीमित रखा हो। नानक पंजाब में जन्मे और उनके शिष्यों ने सिख धर्म को सारे भारत में फैला दिया।
आज के दौर में सन्तों की बात जाने भी दें, तो भी लोकसेवा के सार्वजनिक क्षेत्र में यदि उदात्त भावनासम्पन्न कार्यकर्ताओं की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जाती, तो आज की विश्वव्यापी उलझन का समाधान मिल जाता। शान्तिकुञ्ज का उद्देश्य ऐसे ही परिव्राजक, कार्यकर्ता उत्पन्न करने का है, जो यश-लोलुपता से प्रेरित होकर नहीं अन्तरित प्रेरणा, आत्मा को-परमात्मा का प्राप्त करने की आकांक्षा से विद्या−विस्तार के क्षेत्र में उतरें और इसे ईश्वरीय पूजा मानकर पवित्रतम मनःस्थिति में पूरा करें।
त्याग और बलिदान को जो योग-साधना एवं तपश्चर्या के स्तर की श्रेयसाधना मानते है, उन्हें इन पंक्तियों को अपने लिए लिखा गया आमंत्रण-पत्र मानना चाहिए। आज की विश्वव्यापी मानवी दुर्दशा पर जिन्हें वस्तुतः दुख है, जिनके मन में विकृतियों के प्रति आक्रोश है, जिन्हें उत्कर्ष-उत्थान के नवयुग में आस्था है, उनका पवित्रतम कर्तव्य हो जाता है कि परिव्राजक बनने की महान परम्परा का सच्चे मन से समर्थन करें और उसे क्रियान्वित करने के लिए आवश्यक वातावरण विनिर्मित करें। प्रव्रज्या की पुण्यपरम्परा के बिना विद्या−विस्तार का विश्वव्यापी आयोजन किसी अन्य तरह से पूरा नहीं हो सकता। उच्च मनोभूमि एवं प्रचण्ड कर्मठता को ही अपना सब कुछ मानने वाले परिव्राजक ही विश्वमानव की ठोस एवं गम्भीर सेवा कर सकेंगे।