धन्वन्तरि परम्परा के पुनर्जीवन हेतु एक अद्वितीय अनुसंधान केन्द्र

June 1998

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आज के युग में जिस तरह से अशक्ति का दौर बढ़ रहा है, ऐसा लगता है कि विज्ञान ने अपने हाथ खड़े कर दिए हैं। इक्कीसवीं सदी के द्वार पर खड़ा चिकित्सा-विज्ञान कोई ऐसी नयी रामबाण दवा ईजाद नहीं कर पाया, जो व्यक्ति की जराजीर्ण होती जा रही जीवनीशक्ति का उपचार सुझा सके। एक औषधि नयी निकलती है, तो अनेकों बीमारियाँ जन्म लेने लगती हैं। दुष्प्रभावों से मुक्त तो कोई औषधि है ही नहीं। कृत्रिम रासायनिक औषधियों के दुष्प्रभाव इतने है कि प्रयोग की अवधि पूरी होने तक भी उनमें से एक अंश को ही समाप्त किया जा सकता है। अन्ततः रोगी एक बीमारी से मुक्त हो, औषधिजन्य दुष्प्रभावों से और अधिक बीमार व अशक्त होता चला जाता है।

आयुर्वेद के रूप में भारतीय संस्कृति की एक बड़ी महत्वपूर्ण देन संपूर्ण विश्ववसुधा को प्रदत्त है। इस चिरपुरातन विधा के होते हुए भी हम क्यों निर्बल, निस्सहाय-सी स्थिति में पाश्चात्य सभ्यता का अनुगमन करते व संश्लेषित रसायनों पर आधारित चिकित्सा-पद्धति का अंधानुकरण करते हैं। यह एक विचित्र-विडम्बना भरी स्थिति है। आयुर्वेद उतना ही पुराना है-जितना इस सृष्टि का इतिहास। पीड़ित मानवता के लिए सीधे ब्रह्माजी क्षरा इसे जन-जन के लिए सुलभ कराया गया। शरीरमाद्यं खलु धर्म साधन के अंतर्गत शरीर व उसके अंदर सुरक्षित रखे मन-मस्तिष्क एवं अंतःकरण रूपी दिव्य भाण्डागार की सुरक्षा करना, उसे सही स्थिति में बनाए रखना भगवान ने एक धर्म-उसका साधन बताया है। ब्रह्माजी से धन्वन्तरि के माध्यम से जिन्हें आयुर्वेद का जन्मदाता कहे जाने का श्रेय परमब्रह्म की सत्ता द्वारा दिया गया, यह विस्तार पाते हुए एक सुव्यवस्थित चिकित्सा-प्रणाली के रूप में सभी को सुलभ हुआ। धन्वन्तरि ऋषि थे या मुनि-यह चर्चा बाद में की जा सकती है-वे समुद्र-मंथन से निकले चौदह रत्नों में से एक हैं। इसी से भगवान के इस चिरपुरातन अनुदान के महत्व को समझा जा सकता है। सृष्टि शुभारंभ में मत्स्यावतार के बाद प्रकट कच्छपावतार के माध्यम से सुर व दानवों के मध्य एक समुद्र-मंथन की प्रक्रिया संपन्न हुई थी। उसमें से लक्ष्मी भी निकलीं, हलाहल भी निकला, किंतु सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि धन्वन्तरि अपने हाथ में अमृत-कलश लेकर मानवमात्र के लिए चिरयौवन एवं अक्षुण्ण स्वास्थ्य का संदेश लेकर अवतरित हुए एवं उन्हीं को आयुर्वेद के जन्मदाता मानकर पूजा भी जाता है। धनतेरस-धन्वन्तरि के धरती पर प्रकट होने का कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी के दिन पड़ने वाला एक महत्वपूर्ण पर्व है, पर कितने व्यक्ति यह जानते है कि वह धन्वन्तरि के रूप में आयुर्वेद के ब्रह्माजी के माध्यम से धरती पर अवतरित होने का पुण्यपर्व भी है।

आयुर्वेद चरण व्यूह के अनुसार ऋग्वेद का एक उपवेद भी माना जाता है। एवं भावप्रकाश के अनुसार यह अथर्ववेद का उपवेद है। अथर्ववेद में बहुत से मंत्र मानवी काया व मन के स्वास्थ्य के संवर्द्धन व उनके माहात्म्य के संबंध में मिलते है। वेदों का ज्ञान जिसमें समाहित हो ऐसा विलक्षण ज्ञान का भण्डार कैसे उपेक्षा का व अप्रामाणिकता का शिकार होता चला गया-यह जब हमें ज्ञात होता है, तो मन को बड़ी पीड़ा होती है। जब-जब मानव-जाति ने वेद भगवान के आदेशों-अनुशासनों की अवज्ञा की है, तब-तब उन्हें अशक्ति, अभाव, अज्ञान के त्रिविधि तापों, कष्टों से गुजरना पड़ा है। आयुर्वेद की चिरपुरातनता के बावजूद भी उसमें समाहित विज्ञानसम्मत प्रतिपादन एक स्वस्थ शरीर, मन व अंतःकरण की सर्वांगपूर्ण आचारसंहिता का निर्माण करते हैं। ऋषि मुनियों ने निश्चित ही अपनी काया के एक-एक सूक्ष्मतम अवयव तक जाकर साधना की गहनतम स्थिति में ये अनुसंधान किये होंगे, तभी तो वे वह सब कुछ तब लिखकर दे गए जबकि आज का सूक्ष्मदर्शी इलेक्ट्रान-माइक्रोस्कोप उनके पास नहीं था। इसी आधार धन्वन्तरि एवं उनके बाद आयुर्वेद को विस्तार देने वाले चरक, सुश्रुत से लेकर बाग्भट्ट शांग्र्र्डगधर आदि सभी ने स्रष्टा के उस विज्ञान को नये आयाम दिए। वनौषधियों से काया व मन की चिकित्सा, रस-भस्मों के माध्यम से समग्र कायाकल्प एवं शल्यक्रिया द्वारा असाध्य रोगों से मानवमात्र को मुक्ति दिलाने का भागीरथी कार्य इसी समग्र आयुर्वेद के माध्यम से संपन्न होता चला गया।

आज जो आयुर्वेद हम सबके सामने है, वह विश्वभर के जिन-मानस द्वारा स्वीकार किया जा सके, उसके लिए विज्ञान की दृष्टि से परखे जाने की आवश्यकता है। कारण संभवतः यह है कि विज्ञान सम्मत उपचार-प्रक्रिया के बावजूद विगत पाँच-छह सौ वर्षों में इसके साथ समन्वित हुई अन्य चिकित्सा-पद्धतियों के कारण, साथ ही साथ कुछ मानव-जाति द्वारा स्वयं अप्रामाणिकता का समावेश इसमें होने के कारण यह संदिग्धता के घेरे में आ गया है। आयुर्वेद समग्र रूप में मनुष्य को शरीर, मन व आत्मा का समुच्चय मानता रहा है। जब तक इस चिकित्सा-प्रक्रिया में यम-नियम से लेकर ‘स्वस्थवृत्त समुच्चय’ के सभी सूत्रों एवं पातंजलि योगसूत्र के दर्शन को भी साथ लेकर चलने की विधि अपनायी जाती रही, तब तक यह अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होता रहा व मानव जाति को रोगमुक्त ही नहीं, अक्षुण्ण यौवन का वरदान भी देता रहा। मध्यकाल में एक ऐसा समय आया जब आयुर्वेद के कुछ वनौषधि प्रधान एवं रस-भस्म प्रधान योगों का बाजीकरण-शरीर-सुख हेतु शक्ति संवर्धन के निमित्त अधिक प्रयोग किया जाने लगा। संभवतः यूनानी-तिब्बती चिकित्सा-पद्धति के समावेश के कारण यह विकृति आयी हो। साथ ही नाड़ी विज्ञान के आधार पर वात-पित्त-कफ के कुपित होने की स्थिति जानकर तदनुसार चिकित्सा करने वाले वैद्यों की पीढ़ी समाप्त होते चले जाने एवं उस परम्परा में नयी पीढ़ी समाप्त होते चले जाने एवं उस परम्परा में नयी पीढ़ी के न जुड़ने के कारण भी आयुर्वेद इतना उपयोगी नहीं सिद्ध हो पा रहा था। अप्रामाणिक लोगों द्वारा डिस्पेन्सिग-पंसारियों द्वारा केमिस्ट ड्रगिस्ट बन जाना व वीर्य कालावधि तथा गुण समाप्त होने की अवधि के बाद भी जड़ी-बूटियों के प्रयोग न इस पर एक ग्रहण-सा लगा दिया। आधुनिक चिकित्सा-पद्धति का समावेश इसके साथ होने पर इंटीग्रेटिड चिकित्सा प्रणाली (समन्वयात्मक चिकित्सा पद्धति) के लोकप्रिय होने का एक दुष्परिणाम यह सामने आया कि आयुर्वेद के अधिकाँश नए स्नातक वैद्यक को नहीं, आधुनिक तुरंत प्रभाव दिखाने वाली औषधियों को वरीयता देने लगे व उसी आधार पर चिकित्सा करने लगे। इससे आयुर्वेदिक योगों, घटकों में भी मिलावट होने लगी, क्योंकि लोग स्वरूप तो वैसा ही चाहते थे, किंतु प्रभाव तुरंत देखना चाहते थे। संभवतः आयुर्वेद हमारी देवसंस्कृति की तरह एक लम्बे समय तक अप्रामाणिकता के लाँछन से ग्रसित रहा।

आयुर्वेद को शुद्ध रूप में प्रयोग करने वालों ने एक सबसे बड़ी सेवा यह की है कि उसे आज विश्वस्तर पर लोकप्रियता के शिखर पर उन्होंने उसे पहुँचा दिया है, साथ ही शुद्ध आयुर्वेद में मात्र स्थूल शरीर प्रधान नहीं-उसके सूक्ष्मतम प्रभावों के विषय में जन-जाग्रति लाने में भी वे सफल हुए है। परमपूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य की यह हार्दिक इच्छा थी कि आयुर्वेद का आधुनिकतम विधाओं की तरह अनुसंधान हो, साथ ही वनौषधियों के रसायनपरक से लेकर सभी प्रभावों का विश्लेषण कर उन्हें सार्वजनीन-जनसुलभ बनाया जाए। पूज्यवर जन-जन को अगली सदी के आगमन तक उत्तम स्वास्थ्य रूपी अनुदान देना चाहते थे। ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान की स्थापना के मूल में साधना-अनुसंधान के साथ-साथ वनौषधियों के स्थूल प्रयोगों व यज्ञपरक प्रभावों का विश्लेषण इसीलिए रखा गया था।

अब तक के अनुसंधानक्रम में प्राप्त निष्कर्षों ने परमपूज्य गुरुदेव एवं परम वंदनीय माताजी के विश्वास को प्रबल ही किया है। प्रायः पाँच सौ से अधिक वनौषधियाँ अब सबको शुद्ध रूप में चूर्ण स्वरूप उपलब्ध है। उनकी निर्माण व प्रभाव समाप्ति की तिथि घोषित रूप में छापकर विक्रय करने से इन औषधियों की प्रामाणिकता भी बढ़ी है, लगभग सभी प्रकार के रोगों के लिए स्वयं पूज्यवर द्वारा बतायी गयी औषधियों ने रामबाण का काम किया है। घटती जा रही जीवनी-शक्ति के लिए रसायन रूप में अश्वगंधा-मुलहठी-शतावर हृदय रोगों के लिए अर्जुन-पुनर्नवा-शंखपुष्पी उदर रोगों के लिए कालमेध-शरपुंखा-कुटकी-विल्व-हरीतकी तथा मानसिक रोगों के लिए ब्राह्मी-मण्डूकपर्णी जटामासी-ज्योतिष्मती-वचा-अमृता आदि के सफल प्रयोगों ने सारे भार व विश्व में कीर्तिमान बनाए है। प्रज्ञापेय अपने आप में चाय व काफी के विकल्प के रूप में एक स्नायु-संस्थान के सशक्त टानिक के रूप में विशुद्ध आयुर्वेदिक योग की तरह अत्यधिक लोकप्रिय हुआ है।

किंतु इतने मात्र से वह लक्ष्य पूरा नहीं होता दीख रहा था, जिसकी अपेक्षा गुरुसत्ता को थी। वे चाहते थे कि इन सब औषधियों के अतिरिक्त शतपुटी-सहस्रपुटी-रस-भस्मों के ऊपर वैज्ञानिक प्रयोग हो। सभी वनौषधियों, रसायनों व रस-भस्मों का वैज्ञानिक विश्लेषण कर कौन-सी किस रोग में श्रेष्ठ पायी गयी है- आयुर्वेद में कहाँ-कहाँ उनके बारे में वर्णन आया है, तदनुसार उनके प्रयोग किस तरह न्यूनतम दुष्प्रभावों को लक्ष्य में रख किए जा सकते है, यह समग्र कार्य एक प्रोजेक्ट के रूप में किए जाने की पूज्यवर की इच्छा थी। गैस लिक्विड क्रोमेटोग्राफ, हाई परफार्मेन्स लिक्विड क्रोमेटोग्राफी, डार्क फील्ड रिफ्रेक्टोमेट्रीन, डार्क विजन एवं इलेक्ट्रान माइक्रोस्कोप के माध्यम से सूक्ष्मीकृत वनौषधियों व उनके सम्पुट या भावना के माध्यम से शोधी गयी रसायनों, भस्मों पर विशद कार्य किए जाने के लिए बड़े स्थान पर पूरी तरह से इस कार्य के लिए समर्पित एक संस्थान व टीम की आवश्यकता समझी जा रही थी, जिसे अब शान्तिकुञ्ज के समीप मिली नवीन भूमि में बनाए जा रहे अनुसंधान संस्थान के माध्यम से पूरा किया जाना है। यहाँ पर रिसर्च व थैरेपी इस तरह की दो प्रयोगशालाएँ अलग-अलग बनायी जा रही है। एक में जड़ी-बूटियों के एकाकी व योगिक प्रयोगों पर रसभस्मों, लौह, स्वर्ण, हीरा-मुक्ता अभ्रक-यशद आदि के अति सूक्ष्मीकृत स्वरूपों के निर्माण व उनके प्रायोगिक जन्तुओं पर परीक्षण किए जाएँगे। टाॅक्सिटी लेवल व थेराप्यूटिक लेवल को परखा जाएगा। कैसे किसी योग को इस रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है कि वह सबके द्वारा स्वीकार किया जा सके-यह सारा अनुशीलता रिसर्च विंग में होगा।

थेराप्यूटिक विंग में आयुर्वेद की समस्त निदान की पद्धतियों को आज के आधुनिक परिप्रेक्ष्य में विकसित किया जाएगा। वात, पित्त, कफ के कुपित होने की स्थिति में नाड़ी देखकर निदान कैसे किया जाता है-यह भी यहाँ स्थापित होगा। साथ ही ज्योतिर्विज्ञान का आश्रय लेकर किसी के लिए कोई जड़ी-बूटी या योग व नक्षत्र विशेष में तोड़ा गया ही क्यों प्रभावी होता है, यह भी परखने हेतु वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग किया जाएगा। वात, पित्त, कफ की कुपित स्थिति में रक्त में व अन्य घटकों में क्या परिवर्तन होते है- यह आधुनिकतम यंत्रों से जाँचकर अंतिम निष्कर्ष पर पहुँचकर कौन-सी औषधि किस रोग में उपयुक्त होगी-यह सारा निर्धारण यहाँ किया जाएगा। रोगी यहाँ एक दिन के लिए आकर जाँच-पड़ताल करवा के उसी दिन अपनी औषधि लेकर जा सकेंगे।

कहना न होगा कि पीड़ित मानवता के लिए आयुर्वेद रूपी अनुदान को विश्वव्यापी स्वरूप देने का प्रयास निश्चित ही अपने आप में एक अद्वितीय-अभूतपूर्व स्तर का पुरुषार्थ माना जाएगा। इसमें साधनों को भी अत्यधिक परिमाण में लगना है- बहुमूल्य उपकरणों से इसे इसे सज्जित किया जाना है-साथ ही वैसे ही प्रतिभाशाली चिकित्सकों, वैद्यों की भी आवश्यकता यहाँ पड़ेगी। सभी परिजनों से इस कार्य में पूरा सहयोग देने, ऐसे उदारमना श्रीमन्तों को जोड़ने एवं विशेषज्ञ स्तर के चिकित्सा की सभी विधाओं से जुड़े लोगों से संपर्क कर उनका संबंध शान्तिकुञ्ज के केन्द्रीय तंत्र से जोड़ने का अनुरोध इन पंक्तियों द्वारा किया जा रहा है।


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