दुर्लभ वनौषधि वाटिका

June 1998

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वनौषधि वाटिका आयुर्वेद-अनुसन्धान एवं वनौषधियों के विस्तार की अनिवार्य आवश्यकता है। परमात्मा ने अपने युवराज के रूप में मनुष्य की रचना की, तो उसे विशिष्टता सम्पन्न अंगों से भरपूर काया दी। कहीं कोई व्यतिक्रम होने पर रुग्णता की सम्भावना हो, तो निवारण एवं जीवनी-शक्ति-सम्वर्द्धन हेतु धरती पर हरीतिमा की चादर बिछा दी। यह हरियाली पोषक तत्वों से भरी-पूरी तो है ही, साथ ही इसमें अद्भुत गुणों वाली वनौषधियों का समुच्चय भी है। अमृतोपम गुणों वाली जड़ी-बूटियों को उसने अपने प्राकृतिक रूप में ही जीवित रखा, ताकि आवश्यकता पड़ने पर मनुष्य उनका प्रयोग कर सके।

इधर जब से मनुष्य ने भ्रम एवं भूल से हरीतिमा को उजाड़ने के साथ प्रकृति का दोहन-शोषण शुरू किया, वनौषधियाँ भी विलुप्त होती गयी। इसी का परिणाम है आज का भयावह स्वास्थ्य-संकट इसी के चलते वृद्धों एवं दुर्बलों को ही नहीं, युवाओं और बच्चों का भी बहुतायत में बीमार देखा जाने लगा है। आज की रुग्णता से भरी मानव समाज की परिस्थितियों को देखते हुए फिर से हमारा ध्यान उसी पद्धति की ओर आकर्षित होने लगा है, जो जड़ी-बूटियों के ऊपर आश्रित थी। आज यह बेजान काय-कलेवर के रूप में किसी तरह जिन्दा है। समय-परिवर्तन के साथ ही लोग इस क्षेत्र में अपनी विशेषता खोते चले गए, अन्यथा अपने समय में यही एकमात्र पद्धति जनसामान्य से लेकर विशिष्टजनों तक सभी को हर दृष्टि से स्वास्थ्य समर्थ बनाए रखती थी। रोगों से ही नहीं वरन् बुढ़ापे की जीर्णावस्था से भी मुक्ति दिलाने में इसे समर्थ विधा के रूप में जाना जाता था। कई तो ऐसी जड़ी-बूटियों का परिचय मिलता है, जो लोगों को मृत्यु तक से छुटकारा दिलाती थी।

ऐसी ही जड़ी-बूटियों में संजीवनी सुपरिचित नाम है। आयुर्वेद शास्त्रों में इसका उल्लेख सोम औषधि के नाम से मिलता है। इसके विषय में यह वर्णन किया गया है कि आरम्भ में इसका एक पौधा होता है। शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को उसमें एक पत्ते का उद्भव होता है। क्रमानुसार द्वितीय को दो, तृतीय को तीन तथा पूर्णिमा तक 15 पत्ते निकल आते हैं तथा कृष्णपक्ष की प्रतिपदा से क्रमशः एक-एक पत्ते नित्य झड़ने लगता है। अमावस्या तक यह पौधा सूखी लकड़ी के सदृश रह जाता है। परन्तु इस स्थिति में इसकी उपयोगिता बढ़ जाती है। यह घन-घोर अन्धकार में रेडियम की तरह चमकता है तथा अत्यन्त गुणकारी हो जाता है। शास्त्र इसके गुण को इस प्रकार प्रतिपादित करते हैं-

अणिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्तिः प्राकाम्यं महिमा तथा। ईशित्वं च वशित्वं च तथा कामाव संमिता॥

अर्थात्-अणिमा गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्रकाम्य, महिमा, ईशित्व, वशित्व ....... इन आठ ऐश्वर्ययुक्त सिद्धियों को संजीवनी उपलब्ध कराती हैं इनको पाकर व्यक्ति देवतुल्य बन जाता है।

शारीरिक स्तर पर संजीवनी अग्नि, जल, विष आदि का प्रभाव नहीं पड़ने देती। इसके सेवन से सुदृढ़ माँसपेशी, तेजस्वी दृष्टि, उच्च-श्रवण शक्ति तथा नवजीवन की प्राप्ति होती है। व्यक्तित्व में तेजस्विता तथा प्रतिभा का समन्वय होता है तथा व्यक्तित्व में अनूठापन आ जाता है। लघुस्तर पर तपेदिक, बाल रोग, शिरोशूल, मानसिक रोग, भूत-प्रेत बाधा, बुखार, दृष्टिदोष, सर्पदंश आदि से उत्पन्न रुग्णता को दूर करने में इसकी सक्षमता का उल्लेख शास्त्रों में मिलता है।

उपलब्ध जानकारी के अनुसार संजीवनी का प्राप्तिस्थान हिमालय की पर्वत-श्रृंखला विंध्याचल पर्वत देवगिरि श्रीपर्वत, महेन्द्र, मल्लिकार्जुन पर्वत, सह्माद्रि एवं सिन्धु नदी का उद्गम माना जाता है। परन्तु वर्तमान समय में इसे दुर्लभ जड़ी-बूटी के रूप में जाना जा सकता है। यद्यपि जानकार बताते है कि उचित स्थान पर खोजने पर इसे अभी भी प्राप्त कर लाभ उठाया जा सकना सम्भव है। आयुर्वेद के अनुसार चमकने वाली अन्य दिव्य औषधियों के नाम इस प्रकार हैं-त्रिपदा गायत्री, रैक्त, अनिष्टम्, स्वयंप्रभ, एष्टम, पार्वत, जाग्रत, शांकर, अंशवान, करवीर लालवृत, प्रतानदान, कनकप्रभ, श्वेतान, कनियान, दूर्वा, रजतप्रभ, अंशुमान, मंजुमान, चन्द्रमा, महासोम आदि। इनसे सम्बन्धित कुछ विशेष विवरण अब तक अप्राप्त हैं।

अथर्ववेद में अपामार्ग नामक औषधि का उल्लेख भी मिलता है। 17वें सूक्त के 1-8 मंत्र के अंतर्गत इसके सहस्रवीर्य, रक्षोघ्न, कृमिघ्न, रसायन, क्षुधातृष्णा मारण, विषघ्न, अर्शोघ्न, अश्मरी नाशन तथा ओजोवर्धन प्रभाव की जानकारी दी गई है। यजुर्वेद के अंतर्गत इसके चूर्ण से हवन करने पर राक्षसों के अर्थात् दुष्ट चिन्तनजन्य विकारों के विनाश होने की बात कही गयी है। इसका प्रभाव पापनाशन, मृत्युनाशन तथा दुःखनाशन के रूप में भी प्रतिपादित किया गया है। शौनकीय अथर्ववेद संहिता (7।65।3) के अनुसार यह कुष्ठ रोगनाशक भी है। याज्ञवल्क्य शिक्षा तथा विष्णु धर्मसूत्र में इसके दातौन को अत्यन्त उपयोगी बनाया गया है। ज्योतिर्विज्ञान में कहीं-कहीं बुध ग्रह को सहायक बनाने हेतु भी इसको समिधा रूप में प्रयुक्त करने का विधान बताया गया है। इसे सौभाग्य-दायिनी घोषित किया गया है। अपामार्ग की मंजरी को सर्प-वृश्चिक आदि के भय से निवृत्ति के लिए भी घर में रखने का विधान है। अपामार्ग यों सर्वसुलभ औषधि है, पर अधिकाँश लोग इसके दुर्लभ गुणों से अनजान हैं।

हिमालय क्षेत्र में अमृत तालाब के निकट कूण्ठ नामक वनौषधि के पाए जाने का उल्लेख अथर्ववेद में मिलता है। नेत्र-रोग शिरोरोग, प्राणविकार, यक्ष्मा, कास-श्वास वातविकार के लिए इसका सेवन अति उपयोगी बताया गया है। रसायन तथा बाजीकरण के रूप में भी इसका प्रयोग अत्यन्त गुणकारी रूप में भी इसका प्रयोग अत्यन्त गुणकारी रूप में हुआ है। पिप्पलाद संहिता के अनुसार, यह शूलहर तथा विषघ्न भी है। केशव पद्धति (28।13) में इसके चूर्ण को नवनीत के साथ मिलाकर लेने से शिरोरोग, राजयक्ष्मा में लाभ मिलता है।

ऋग्वेद एवं अथर्ववेद में पर्ण नामक विशिष्ट बूटी का विवरण मिलता है। पहचान के रूप में इसके त्रिपदा गायत्री के सदृश तीन-तीन पत्ते एक साथ होने की बात कही गयी है। इसे ब्रह्म अर्थात् ज्ञान का प्रतीक माना गया है। अथर्ववेद में इसे बल, आयु, समृद्धि तथा यशदायक बताया गया है। इसके लिए पर्णमणि को शरीर में धारण करने का विधान है।

सुमेरु पर्वत पर 11,000 से 17,000 फीट तक पायी जाने वाली ‘रुदन्ती’ नामक बूटी प्राचीन काल में दिव्य रसायन के रूप जानी जाती थी। इससे उस समय में सोना बनाया जाता था। इसके लिए राँगा-ताँबा आदि को गलाकर इसे रुदन्ती के ताजे रस में डालते थे। परन्तु इसकी पूर्ण प्रक्रिया का ज्ञान आज उपलब्ध नहीं है। सामान्य रूप से सेवन करने पर भी यह बूटी शरीर को महान शक्ति प्रदान करती हैं। यह बुढ़ापे की जीर्णता तथा रोग-नाशक भी है। यह आयुवर्द्धक तथा मरणासन्न व्यक्ति को नवजीवन प्रदान करने वाली है। यह गर्म बूटी है, इसलिए जाड़े के मौसम में ही इसके सेवन करने का सुझाव दिया गया है। आयुर्वेद ग्रन्थों में इसे भी संजीवनी के रूप में घोषित किया गया है। अतिविशा, कटू, रोहिणी, घावपूर्णी आदि बूटियाँ भी इसी श्रेणी में आती हैं, जिनसे अनेक रोगों का निदान सम्भव हो सकता है।

हिमालय क्षेत्र चिरपुरातन काल से अनेकों प्रकार की एवं विभिन्न गुणों वाली बूटियों एवं वनौषधियों को केन्द्र मान जाता रहा है। शास्त्रों में एक आख्यान इस प्रकार आता है कि समुद्र-मन्थन के उपरान्त प्राप्त अमृतकलश को धन्वन्तरि देवलोक की ओर ले जा रहे थे। रास्ते में अमृत की चन्द बूँदें छलकती हुई भूमि पर गिरती गयी। जहाँ-जहाँ ये बूँदें गिरीं, वहाँ जड़ी-बूटी एवं दिव्य औषधियों प्रकट होती चली गयी। इस प्रकार से लाखों-करोड़ों जड़ी-बूटियों के उद्भव की सम्भावना व्यक्त की जाती है।

अब आवश्यकता इस बात की है-मनुष्य आधुनिकता की अन्धी दौड़ में जीवजगत-वनस्पतिजगत एवं पर्यावरण के बीच तारतम्य को नष्ट न करें, अन्यथा उसकी भौतिक प्रगति उसकी जीवन-रक्षा न कर सकेगी। इसलिए पुनः नए सिरे से उपयोगी जीवनदायी वनस्पतियों का आरोपण करने उन्हें विकसित एवं प्रसारित करने की आवश्यकता जान पड़ी है। शान्तिकुञ्ज ने समय की इस महान जरूरत को पहचाना है और वनौषधि अनुसंधान केन्द्र के साथ ही दुर्लभ वनौषधि वाटिका लगाने का निश्चय किया है।

यह दुर्लभ वनौषधि वाटिका पाने नाम के अनुरूप ही दुर्लभ वनौषधियों से भरी-पूरी होगी। इन दिनों शान्तिकुञ्ज के आयुर्वेदाचार्य एवं वनस्पति-विशेषज्ञ हिमालय के गहन प्रदेशों के साथ देश के अन्य भू-भागों से औषधि पादपों का संकलन एवं चयन करने में लगे हुए है। इस संदर्भ में नष्टप्राय एवं बहुमूल्य प्रजातियों को प्राथमिकता दी गयी है। गंगा की गोद एवं हिमालय की छाया में शान्तिकुञ्ज के निकट बनने वाले आयुर्वेद अनुसंधान केन्द्र में ही इनका रोपण किया जाएगा।

यह वनौषधि उद्यान कई मायने में अनोखा एवं अनूठा होगा। उद्यान परिसर में ही एक यज्ञशाला होगी, जिसमें नियमित यज्ञ-हवन होगा, ताकि यज्ञ के माध्यम से बरसने वाले प्राणपर्जन्य को आत्मसात् करके औषधियाँ वैदिकयुग की भाँति प्राण संपन्न हो सकें। साथ ही यज्ञधूम के वाँछित हो सकें। साथ ही यज्ञ धूम के वाँछित प्रभावों को उन पर देखा जा सकेगा। इसी क्रम में प्रातः-सायं वनौषधि वाटिका में प्राचीन वैदिक मंत्रों का सस्वर संगीत बजाया जाएगा। पिछले दिनों कई स्थानों पर संगीत के प्रभाव से पेड़-पौधों का असाधारण विकास देखा गया है। वैदिक मंत्रों की सस्वर गूँज का प्रभाव तो सर्वथा असन्दिग्ध है। इस बात के लिए पूरे प्रयत्न उगाये जाने वाले औषधि पादपों का स्तर वैदिक काल से तनिक भी न्यून न रहे।

बाद में इस बात की व्यवस्था की जाएगी कि अपने परिजन, मिशन के कार्यकर्ता यहाँ से इन दुर्लभ औषधि पादपों की पौधों को प्राप्त कर सकें और इनकी रोपाई अपने गृहउद्यान एवं स्थानीय स्तर पर बहुतायत में करें। दुर्लभ वनौषधि वाटिका का स्वरूप प्रारम्भ में भले ही छोटा हो, परन्तु धीरे-धीरे इसका विराट विस्तार होता चलेगा। इस केन्द्रीय उद्यान की सहायता से ही क्षेत्र की प्रत्येक शक्तिपीठ-प्रज्ञापीठ में अनेकों वनौषधि उद्यानों की सम्भावना साकार होगी। इसके दुहरे लाभ होंगे। एक तो मनुष्य को शक्ति व सामर्थ्यों से युक्त नया जीवन मिलेगा तथा दूसरा वातावरण में संव्याप्त प्रदूषण की समस्या सुधरेगी। आयुर्वेद के पुनर्जीवन की सम्भावना इस माध्यम से साकार करके ही मानवता की सबसे बड़ी सेवा की जा सकेगी। विश्वास किया जाता है कि अपने प्रियपरिजनों में से प्रत्येक इसे धर्मकार्य-पुण्यप्रयोजन का श्रेष्ठतम स्वरूप मानकर अपनी श्रद्धा-संवेदना श्रम एवं मनोयोग को इस हेतु नियोजित करने के लिए प्राणपण से कोशिश करेगा।


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