देवसंस्कृति चिरपुरातन समय से ही समूचे विश्व के हर क्षेत्र एवं समुदाय को सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों से अनुप्राणित करने में समर्थ रही है। यदि विश्व को आज की परिस्थितियों में एक सूत्र में बाँधने की बात सोची जाए तो ‘एक ही संस्कृति-विश्वसंस्कृति की बात मस्तिष्क में आती है। ऐसा स्वरूप देवसंस्कृति का ही बनता है, जो सारे विश्व की अनेकानेक संस्कृतियों के उपयोगी एवं महत्वपूर्ण अंशों का समुच्चय है। हो भी क्यों नहीं, आखिर देव-संस्कृति ही तो प्रकारान्तर से विभिन्न संस्कृतियों की जन्मदात्री है। अब यदि प्रश्न सम्पूर्ण मानवजाति को आत्मबोध कराने का हो, तो भारतीय संस्कृति ही इसका सार्थक समाधान का सकती है।
युगनिर्माण मिशन की स्थापना का उद्देश्य देवसंस्कृति का प्रसार-विस्तार ही रहा है। विश्ववसुन्धरा के कोने-कोने में बसे 600 करोड़ मानवों तक देवसंस्कृति का आलोक वितरण करने का लक्ष्य तमाम कोशिशों के बावजूद अभी काफी दूर है। इसमें प्रमुख व्यवधान भाषाओं का अपरिचय है। जबकि युगसृजन के लिए धरती के हर कोने में बसे हुए, हर भाषा को बोलने और हर धर्म को मानने वालों तक युगचेतना का आलोक वितरण करना होगा। समय की इस माँग को पूरा करने के लिए आवश्यक हो गया है, संसार भर की प्रमुख भाषाओं के साथ देश की मुख्य भाषाओं को पढ़ाने की ऐसी व्यवस्था हो, जिसके आधार पर सृजनशिल्पी सर्वत्र अपने विचार वहाँ के निवासियों की भाषा में व्यक्त कर सकें। देवसंस्कृति के व्यापक विस्तार के लिए इससे कम में काम चलने वाला नहीं।
देवसंस्कृति की शिक्षणप्रक्रिया अभी तक प्रायः हिन्दू धर्मावलम्बियों तक सीमित रही है, पर छह सौ करोड़ मनुष्य इस छोटे-से-दायरे में नहीं आते। हिन्दुओं के अलावा भारी संख्या में ईसाई एवं मुसलमान है। छोटे-बड़े सभी धर्मों की गिनती को जाए तो संसार भर में प्रायः 60 प्रमुख धर्म है। जनमानस में धर्म क्षेत्र के प्रभाव को देखते हुए उन सभी क्षेत्रों में युगचिन्तन को पहुँचाना पड़ेगा। इसके लिए आवश्यक है कि उन्हीं धर्मों के लोग अपने-अपने शास्त्रों-परम्पराओं का उल्लेख करते हुए वे बातें कहें जो समय की आवश्यकता की पूर्ति करती है, अलगाव घटाती और एकता, समता, सहकारिता, शालीनता जैसी प्रवृत्तियों की मनोभूमि विकसित करती हैं।
बौद्धकाल में धर्मचक्र-प्रवर्तन के लिए नालन्दा विश्वविद्यालय में भाषाएँ पढ़ाई जाती थी और तक्षशिला विश्वविद्यालय में संस्कृतियाँ। उन दिनों सम्प्रदायों का वर्तमान अलगाववादी, विग्रही एवं असहिष्णु स्वरूप नहीं था, मात्र क्षेत्रीय संस्कृतियाँ ही प्रचलित थीं। धर्मप्रचारकों को अपनी बात जनसाधारण के गले उतारने के लिए क्षेत्रीय संस्कृतियों का स्वरूप भी पढ़ाना-समझना पड़ता था। युगपरिवर्तन के संदर्भ में इन दिनों विभिन्न संस्कृतियों-विशेषतौर पर भाषाओं का अध्ययन-अध्यापन आवश्यक समझा गया है। सृजन सैनिकों के बढ़ते हुए कार्यक्षेत्र को देखते हुए इन दोनों प्रयासों को क्रियान्वित किया जाना आवश्यक समझा गया है। भविष्य में निर्माणाधीन जिस देवसंस्कृति विश्वविद्यालय की संकल्पना है, उसमें भाषाओं के अध्ययन का एक महत्वपूर्ण विभाग होगा। इस हेतु नयी इमारत बनायी जानी है और वह सारा ढाँचा खड़ा किया जाना है, जिसके सहारे मिशन की बढ़ती हुई आवश्यकता की पूर्ति हो सके और मिशन को भाषाई अड़चनों के कारण किए छोटे समुदाय तक सिमटकर न रहना पड़े।
इस नयी व्यवस्था का तात्पर्य है मिशन के कार्यक्षेत्र का कई गुना विस्तार। जनजागरण के दो ही माध्यम है-लेखनी और वाणी, स्वाध्याय और सत्संग। लेखनी से साहित्य सृजा जाता है और उससे स्वाध्याय की आवश्यकता पूरी होती है। विभिन्न भाषाओं को प्रयोग करते हुए युग-चिन्तन का विस्तार करना सत्संग के स्वरूप को स्पष्ट करता है। इन दोनों की कार्यों के लिए अभी से ताना-बाना बुना जा रहा है। हिन्दी से जो लोग अंग्रेजी, गुजराती, तमिल, तेलगू, मलयालम, कन्नड़ आदि भाषाओं में अनुवाद कर सकें, ऐसे परिजनों को इन पंक्तियों के माध्यम से आमंत्रित किया जा रहा है।
भाषाई क्षेत्रों में प्रवेश करते हुए उनका साहित्य निर्माण करने की ही तरह सत्संग की, प्रचार-प्रवचन-परामर्श की आवश्यकता पड़ेगी, अन्यथा मात्र साहित्य छाप लेने भी से क्या बनेगा? इस साहित्य को व्यापक बनाने में प्रचारकों-प्रवचनकर्ताओं की अहम् भूमिका होती ह। कार्यक्षेत्र बढ़ेगा तो देश-विदेश में शाखा-संगठनों का विस्तार होगा। उनके वार्षिक अधिवेशन एवं छोटे-बड़े आयोजन समारोह भी होते रहेंगे। इसके लिए प्रचारक, कार्यकर्ताओं की भरी संख्या में आवश्यकता पड़ेगी, अन्यथा इतनी भाषाओं के क्षेत्रों में काम कौन करेगा और बिना प्रत्यक्ष कार्यक्रम के मिशन आगे कैसे बढ़ेगा? मात्र प्रकाशित साहित्य ही तो वातावरण बनाने और जनजागरण की आवश्यकता पूरी नहीं कर लेगा।
इक्कीसवीं सदी द्वार पर खड़ी है। अब अधिक समय नहीं बचा है। इस बीच युगान्तर चेतना के आलोक को किसी भी कीमत पर विश्व एवं राष्ट्र के सभी कोने में पहुँचाना ही है। इसे समझते हुए मिशन के विस्तार के क्रम में जो नए कदम उठाए जाने हैं, उनमें भाषाओं की आवश्यकता भी खूब पड़ेगी। वे उसी अनुपात में जुटाने पड़ेंगे। प्रशिक्षणार्थियों एवं प्रशिक्षकों के निवास, निर्वाह, प्रवास आदि में भारी व्यय होना लाजमी है। यह सभी धनसाध्य है। इस कार्य का आरम्भ भले ही छोटे रूप में हो, पर समयानुसार कार्य-विस्तार के अनुरूप उसका भी विस्तार हो जाएगा।
भाषाई विस्तार की दृष्टि से साहित्य-सृजन एवं प्रकाशन भी अपने आप में बहुत बड़ा काम है। अन्यान्य भाषाओं की पत्र-पत्रिकाओं में मिशन की विचारधारा के लेख भेजना भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। इसके लिए विभिन्न भाषाओं को जाने वाले सुयोग्य व्यक्तियों को बुलाया जाना है। आशा की जानी चाहिए कि जिस महाशक्ति ने देवसंस्कृति को विश्वसंस्कृति का स्वरूप देने का संकल्प किया है- वही भाषाओं के प्रशिक्षण-व्यवस्था के सरंजाम जुटाएगी। समय ने अपनी माँग को पूरा करने के लिए जो ताना-बाना बुना है, उसे अपने प्रिय परिजन साधन-सरंजाम के अभाव में अपूर्ण-असफल नहीं रहने देंगे, ऐसा विश्वास किया जा रहा है। उनके इन्हीं प्रयासों से देवसंस्कृति विश्वसंस्कृति बनकर रहेगी।