पर्यावरण संरक्षण के लिए वनौषधियों का महत्व

June 1998

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पिछले कुछ सालों से पर्यावरण बड़े-बड़े आयोजन इस संदर्भ में हो रहे है। इसके बावजूद पर्यावरण का संकट है कि बढ़ता ही जा रहा है। इसका मूल कारण है कि प्रकृति के प्रति हमारी सोच में, हमारे व्यवहार में एक बुनियादी विकृति है। हम प्रकृति पर विजय प्राप्त करना चाहते है। गर्व से उस पर आधिपत्य जमाना चाहते हैं, जबकि जरूरत इस बात की है कि हम विनम्रता के साथ उससे सह-अस्तित्व का सम्बन्ध बनाएँ।

निश्चय ही इतिहास कभी भी ऐसा नहीं रहा। प्राचीन भारत के वैदिक वांग्मय में ऐसे अनेक सूक्त-ऋचाएँ उक्तियों कथानक मिलते है, जिनमें प्रकृति के प्रति गहरा श्रद्धाभाव है। वेदकालीन ऋषि-तत्त्ववेत्ता प्रकृति को माता कहकर वन्दना करते थे। अकेले भारत ही नहीं अमेरिकी महाद्वीप से लेकर बेबीलोन, मिश्र आदि की अनेक प्राचीन सभ्यताओं में प्रकृति के प्रति गहरी श्रद्धा-भावनाओं के अनेक उदाहरण मिलते है। उदाहरण के लिए, ग्वाटीमाला की माया सभ्यता की नैतिक सोच में जीवन के हर रूप की उत्पत्ति के स्रोत या बीज को एक ही माना गया। इनमें से कुछ बीज पेड़-पौधे बन गए, कुछ नदी बन गए। इस तरह सबको एक ही बीज से उत्पन्न हुआ मानकर इस सोच ने मनुष्य को प्रकृति के सभी रूपों के प्रति प्रेम और रक्षा की भावना अपनाने के लिए प्रेरित किया।

किन्तु जैसे-जैसे मनुष्य प्रकृति के अनुदानों से लाभान्वित होता गया, उसके लोभ में भी बढ़ोत्तरी होती गयी। लोभ की वृत्ति ने श्रद्धा के भाव को कम कर दिया। इस क्रम में यूरोपीय आधुनिक विधा के महत्वपूर्ण विचारक फ्राँसीसी बेकन ने तो यहाँ तक कह डाला कि मनुष्य का प्रमुख कार्य प्रकृति पर विजय प्राप्त करना है और उसे अपना गुलाम बनाना है। इसके साथ ही प्रकृति पर आधिपत्य जमाने की सोच बढ़ती गयी। प्रकृति पर आधिपत्य जमाने का मतलब यह है कि हम प्रकृति को कितना भी नुकसान पहुँचाएँ, इसकी तनिक भी चिन्ता नहीं। हम केवल अपने उपभोग और इसके लिए जरूरी उत्पादन-कार्य को अधिक से अधिक बढ़ाना चाहते है और इसका प्रकृति के विभिन्न रूपों जैसे-वायुमण्डल की शुद्धता, धरती के उपजाऊपन, जलस्रोतों की प्रचुरता आदि पर क्या असर पड़ेगा, उसकी हमें कोई परवाह नहीं।

दूसरी ओर प्रकृति के साथ विनम्र सह-अस्तित्व का अर्थ यह है कि हमें अपनी जरूरतों को पूरा करने के साथ-साथ इस बात का भी पूरा खयाल है कि हम प्रकृति पर अधिक दबाव डालकर उसके विभिन्न रूपों को नुकसान न पहुँचाएँ। प्रकृति पर हमारा दबाव कम से कम रहे। अतः उसके संसाधनों का उपयोग हम संयम से करना सीखते है। अपनी उपभोग की वस्तुओं को वास्तविक जरूरत तक सीमित कर हम सादगी का जीवन अपनाते हैं। प्रकृति की अपनी सीमाओं को समझे बिना उसके संवेदनहीन दोहन से प्रकृति में आश्रय लेने वाले सभी प्राणि-वनस्पतियों की तो क्षति होती ही है, साथ में मनुष्य का भी नुकसान होता है।

हजार वर्षों से मनुष्य वनों से अपनी जरूरत के तरह-तरह के फूल, फल, जड़ी-बूटियाँ-पत्ते लकड़ी लेता रहा और वन खुले दिल से देते रहे। किंतु फिर मनुष्य ने लकड़ी की उपयोग केवल जरूरत के लिए नहीं अपव्यय के लिए करना शुरू कर दिया। उसने अन्धाधुन्ध वनों की कटाई तो की, किन्तु नए वृक्ष रोपने की तनिक भी आवश्यकता नहीं समझी। उसने लकड़ी की लुगदी बनाकर उसके इतने विविध उपयोग सीख लिए कि लगने लगा कि अपने असीमित उपभोग का अधिकाँश बोझ वह वनों पर डाल देना चाहता है। नतीजा यह हुआ कि एक ही वर्ष में लाखों एकड़ वन उजाड़ने लगे। वहाँ रहने वाले तरह-तरह के जीव -जन्तुओं में त्राहि-त्राहि मच गयी। कितने ही लुप्त हो गए, कितने ही लुप्त होने के कगार तक पहुँच गए। हजारों तरह की वनस्पतियाँ जिनके तरह-तरह के उपयोग हो सकते थे, लुप्त हो गयी।

वनस्पतियों के नष्ट होने से वायुमण्डल में विषाक्तता बढ़ने लगी। आज की परिस्थितियों में वातावरण कितना विकृत एवं प्रदूषित हो गया है कि अकेले मानव स्वास्थ्य के लिए ही नहीं, अन्य जीव-जन्तुओं के स्वास्थ्य के लिए भी गम्भीर खतरा उत्पन्न हो गया है। वायुमण्डल की बहुत ऊपरी परत में भी उसके प्रदूषकों ने पहुँचकर ओजाने परत में छेद कर दिया। इससे सूर्य की किरणों में भी ऐसे हानिकारक तत्व आ गए जिनके त्वचा कैंसर, दमा, मोतियाबिन्द आदि ज जाने कितनी स्वास्थ्य-समस्याएँ पैदा हो गयी है।

पर्यावरण प्रदूषण का स्वरूप कोई भी हो, परन्तु उससे होने वाली हानि में सर्वप्रथम मानवीय स्वास्थ्य-संकट है। आए दिन ऐसी-ऐसी बीमारियाँ पैदा हो रही हैं, जिनके बारे में न तो कहीं पढ़ा गया और न कहीं सुना गया। देखने का तो खैर कोई सवाल ही नहीं पैदा होता। इस भयावह प्रदूषण को नियंत्रित करने, पर्यावरण को संरक्षण देने के सम्बन्ध में भी हमें उस उपाय को शीर्ष स्थान देना होगा, जो पर्यावरण संकट से उबारने के साथ हैं हमारे स्वास्थ्य-संकट से भी छुटकारा दिलाए।

इस क्रम में वनौषधियों को स्थान-स्थान पर लगाना सर्वमान्य उपाय है। गृहवाटिका हो या वन, हर कहीं इनकी उपस्थिति वातावरण में प्राणतत्त्व को बढ़ाने वाली सिद्ध होगी। इनका संपर्क एवं सान्निध्य मानव के गिरते स्वास्थ्य को सम्बल प्रदान करेगा। जिन औषधियों को वन में रोपा जाना चाहिए, उनमें जामुन, नीम, हरड़, बहेड़ा, आँवला, पीपल, बरगद, बेल, अर्जुन, अशोक, सहजन, कचनार, अमलतास, वरुण, शिरीष श्रेष्ठ है।

जहाँ वन या खुले मैदान सुलभ नहीं हैं, वहाँ गृहवाटिका में वनौषधियों को उगाकर पर्यावरण के समृद्ध किया जा सकता है। गृहवाटिका में उगायी जाने योग्य वनौषधियाँ तुलसी, घृतकुमारी, पोदीना, गुलाब, पथरचटा, गिलोय, पोई, अश्वगंधा, शतावरी, वचा, अकरकरा, ब्राह्मी, वासा, आज्ञाघास, गेंदा आदि मुख्य है। अपने घर में व समीप के परिसर में यदि उपरोक्त वनौषधियों को उगाने-रोपने की परम्परा चल पड़े, तो पर्यावरण-संकट का देखते-देखते सार्थक समाधान निकल सकता है। इन औषधियों का सामीप्य एवं इनके गुणों का परिचय हमें रोजमर्रा के जीवन में अपने वाली स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं से भी छुटकारा देता रहेगा। यह कार्य प्रकृति का श्रृंगार भी है और उसके प्रति अपनी श्रद्धा की भावभरी अभिव्यक्ति भी।


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