गंगा की गोद एवं हिमालय की छाया में एक अभिनव साधना-आरण्यक

June 1998

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अपने परिजनों की चिरसंचित लालसा थी कि कोलाहल-जनसंकुल से दूर उन्हें एकान्त साधना का अवसर सुलभ हों। विचारक्रान्ति अभियान की विविध-विधि गतिविधियों का केन्द्र बनने के कारण शान्तिकुञ्ज अब पूरी तरह क्रान्तिकुंज में बदल चुका है। यहाँ आने वाले परिजनों की व्यापक भीड़-भाड़ के साथ क्रान्तिकारी परिवर्तनों के लिए ताना-बाना हर पल बुना जाता रहा है समय का तकाजा भी यही है। युगसन्धि का अब थोड़ा ही समय शेष है, इसलिए इन दिनों इस तरह के प्रयत्नों में जितनी भी तीव्रता लायी जा सके, कम है। लोकसेवा के सत्प्रयोजनों में जिस पवित्रता, प्रखरता एवं तेजस्विता की कदम-कदम पर आवश्यकता है, वह साधना से ही अद्भुत होती है। शान्तिकुञ्ज के दिव्यक्षेत्र से आध्यात्मिक विभूतियों, सिद्धियों, शक्तियों के दिव्य-अनुदानों का सिलसिला तो लगातार चलता रहता है, परन्तु इन्हें ग्रहण वही कर पाते हैं, जिनमें साधना की समुचित योग्यता एवं पात्रता है।

इस योग्यता को अपना हर परिजन प्राप्त कर इसे, इसी उद्देश्य से शान्तिकुञ्ज के समीप ही एक साधना-आरण्यक के निर्माण की बात सोची गयी है। स्थान शान्तिकुञ्ज के समीप होने के कारण यहाँ निर्माण की गयी कुटीरों में साधकगण अपनी गम्भीर साधनाओं के लिए समुचित एकान्त पा सकेंगे। सभी जानते हैं कि साधना की सफलता में स्थान, क्षेत्र व वातावरण का असाधारण महत्व है। विशिष्ट साधनाओं के लिए घर छोड़कर अन्यत्र उपयुक्त स्थान पर जाने की आवश्यकता इसी लिए पड़ती है कि पुराने निवासस्थान का ढर्रा अभ्यस्त रहने से वैसी मनःस्थिति नहीं बन पाती, जैसी महत्वपूर्ण साधनाओं के लिए विशेष रूप से आवश्यक है।

यों यह कार्य घर से कुछ दूर एकान्त वाटिका, नदी तट जैसे स्थानों पर भी हो सकता है, पर सुविधा हो तो हिमालय एवं गंगातट की बात सोचनी चाहिए। बाह्य शीतलता के साथ आन्तरिक शान्ति का भी तारतम्य जुड़ा रहता है। हिमालय की भूमि ही ऊँची नहीं है यहाँ की साधनागत सुसंस्कारिता भी ऊँची है। प्राचीनकाल में हिमालय क्षेत्र ही स्वर्गक्षेत्र कहलाता था। देवमानवों की यही भूमि थी। दिव्यद्रष्टा जानते है कि अभी भी दिव्य आत्माएँ वहीं निवास करती है। कृपाचार्य, हनुमान आदि चिरंजीवी उसी क्षेत्र में निवास करते है। अपने मिशन की सूक्ष्म संचालक सत्ता के परमगुरु स्वामी सर्वेश्वरानन्दजी का निवास भी यहीं है।

इतिहास साक्षी है कि प्रायः सभी ऋषियों की तपश्चर्याएँ इसी क्षेत्र में सम्पन्न हुई हैं। सात ऋषियों की तपोभूमि हरिद्वार के उस स्थान पर थी, जहाँ आजकल सप्त-सरोवर है। उनके आश्रमों को बचाने के लिए गंगा ने अपनी धारा को सात भागों में बाँटा। पाण्डव इसी क्षेत्र में तप करते हुए स्वर्ग सिधारे थे। गुरु वशिष्ठ की गुफा यहीं थी। व्यास जी और गणेश जी ने मिलकर 18 पुराण इसी क्षेत्र के वसोधारा नामक स्थान में लिखे थे। भगीरथ, परशुराम, विश्वामित्र, दधिचि जैसे परम-प्रतापी तपस्वियों की साधना हिमालय में ही सम्पन्न हुई थी। संक्षेप में भारत की आध्यात्मिक विभूतियों की भूमि यदि हिमालय को माना जाए, तो इसमें तनिक भी अत्युक्ति न होगी। इस मूर्तिमान् देवता की छाया में कितनों ने न जाने क्या-क्या पाया है? अभी भी उसकी यह विशेषता अक्षुण्य है।

हिमालय की छाया-गंगा की गोद और वहाँ का भावभरा वातावरण, साथ ही यदि शक्तिशाली संरक्षण-मार्गदर्शन मिलता हो तो उसे साधना क सुअवसर एवं साधक का सौभाग्य मानना चाहिए। ऐसे ही वातावरण में साधना का स्वर्गीय दिव्य आनन्द प्राप्त करने के लिए राजा भर्तृहरि बेचैन थे। भर्तृहरि शतक में उनकी अभिव्यक्ति इस प्रकार है-

गंगातीरे हिमगिरि शिला वद्ध पद्मासनस्य ब्रह्मज्ञानाभ्यसन विधिना योगनिद्रांगतस्य।

अर्थात्- जीवन का सौभाग्य दिवस कब आएगा, जब मैं गंगा के तट की हिमालय शिला पर पद्मासन लगाकर ब्रह्मानंद में लीन समाधिस्थ होकर बैठूँगा।

अपने इसी उच्चस्तरीय मनोरथ को पूरा करने के लिए उन्होंने राजपाट का सारा जंजाल त्यागा और योगी का देव-जीवन अपना कर जीवन-लक्ष्य की सिद्धि प्राप्त की।

युगसाधकों की उच्चस्तरीय साधना के लिए जिस उपयुक्त स्थान एवं वातावरण की आवश्यकता थी, उसी के अनुरूप भूमि का चयन किया गया है। यह प्रस्तावित साधना आरण्यक गंगा की धारा से थोड़ी ही दूर पर है। सात ऋषियों की तपोभूमि इसी के पड़ोस में है। गंगा की जलधारा आगे शहरों में जाकर भले ही प्रदूषित हो चुकी हो, पर यहाँ अभी वैसी स्थिति नहीं बनी। यहाँ वह अपनी मौलिक विशेषता को पूर्ववत् बनाए हुए हैं।

यहाँ पर साधना का अपना महत्व होगा। नित्य गंगास्नान, मात्र गंगाजलपान, ठहरना, बैठना, गंगामाता की ही गोद में। इन सभी विशेषताओं के कारण अगले दिनों जिस साधना आरण्यक का निर्माण किया जा रहा है-वह सब तरह से उपयुक्त है। इसे दैवी-अनुग्रह एवं सहयोग के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता। इसके निर्माण के लिए परम सात्विक धन भी भावभरी श्रद्धा के लिए अपने को सार्थक बनाने के लिए मचलता हुआ चला आएगा, ऐसा विश्वास किया गया है।

आत्मोत्कर्ष की साधना सफलतापूर्वक सम्पन्न करने के लिए अपना श्रम करना तो आवश्यक है ही-वातावरण का उपयुक्त होना भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। जनकल्याण के लिए किए जाने वाले प्रयासों के साथ स्वयं पूज्य गुरुदेव के जीवन में हिमालय के अधिक एकान्त एवं गहन प्रदेशों में की जाने वाली विशेष तप-साधना की भिन्नता नहीं, अधिक उपयोगी वातावरण का अधिक प्रखर सान्निध्य का लाभ लेना ही था। उचित समझा गया कि अखण्ड-ज्योति के वे परिजन जो लेखों का पढ़ लेना ही पर्याप्त नहीं समझते, बल्कि साधना-क्षेत्र में कुछ साहस भरे विशिष्ट कदम बढ़ाना चाहते हैं, उनके लिए अन्य आधार अपनाने की तरह यह भी आवश्यक है कि वातावरण एवं सान्निध्य की प्रखरता का लाभ उठाते हुए अपनी साधना-प्रक्रिया सम्पन्न करें। गंगा की गोद एवं हिमालय की छाया में बनाए जाने वाले इस अभिनव साधना-आरण्यक का उद्देश्य यही है।


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