हे प्रभु !मेरी केवल यही कामना है कि मैं संकटों से घबराकर भागूँ नहीं, उनका सामना करूँ । इसलिए मेरी यह प्रार्थना नहीं है कि संकट के समय तुम मेरी रक्षा करो, बल्कि मैं तो इतना ही चाहता हूँ कि तुम उनसे जूझने का बल दो । मैं यह भी नहीं चाहता कि जब दुःख-सन्ताप से मेरा चित व्यथित हो जाये, तब तुम सान्त्वना दो मैं अपनी अञ्जलि के भाव-सुमन तुम्हारे चरणों में अर्पित करते हुए इतना ही माँगता हूँ कि तुम मुझे अपने दुःखों पर विजय प्राप्त करने की शक्ति दो ।
जब किसी कष्टदायक संकट की घड़ी में मुझे कहीं से कोई सहायता न मिले तो मैं हिम्मत न हारूँ । किसी और स्त्रोत से सहायता की याचना न करूँ, उन घड़ियों में भी संकटों और समस्याओं के सामने भी दृढ़ रह सकूँ और तुम्हें हर पल अपने साथ देखते हुए मुसीबतों, परेशानियों को हँसी-खेल समझकर अपने चित को हलका रखूँ, मैं बस यही चाहता हूँ ।
मेरे आराध्य ! तुम्हारा विश्वास हमेशा मेरे हृदय-मन्दिर में दीपशिखा की तरह अखण्ड अविराम प्रज्वलित रहे । मेरे प्रारब्ध के प्रबल झंझावात, परिस्थितियों की भयावह स्वयं मेरी अपनी मनोग्रंथियाँ इस ज्योति को बुझा तो क्या कँपा भी न सकें, विश्वास की यह ज्योति हर पल मेरे अस्तित्व में आत्मबल की ऊर्जा एवं तात्कालिक सूझ का प्रकाश उड़ेलती रहे, यह विश्वास मेरे लिए शक्ति बने याचना नहीं, सम्बल बने क्षीणता नहीं । कहीं ऐसा न हो कि स्वयं के तमोगुण से घिरकर तुम्हारे विश्वास का झूठा आडम्बर रचकर कर्म से विमुख हो जा जाऊँ, कर्तव्य से मुख मोड़ लूँ । चाहे जैसी ही प्रतिकूलताएँ हों व्यवहार में मुझे कितनी ही हानि क्यों न उठानी पड़े इसकी मुझे जरा भी परवाह नहीं है, लेकिन प्रभु मुझे इतना कमजोर मत होने देना कि मैं आसन्न संकटों को देखकर हिम्मत हार बैठूँ और यह रोने बैठ जाऊँ कि अब क्या करूँ मेरा सर्वस्व छिन गया ।
मैं न अहंकारी बनूँ और न ही अकर्मण्य । स्वयं को तुम्हारे चरणों में समर्पित हुए मेरी इतनी ही चाहत है कि जीवन संग्राम में रणबांकुरों योद्धा की तरह जुझारू बनूँ । तुम्हारे विश्वास की शक्ति से भयावह संकटों के चक्रव्यूहों का बेधन करूँ उन्हें छिन्न-भिन्न करूँ।
प्रभु तुम्हारा और केवल तुम्हारा विश्वास ग्रहण कर लोगों ने अकिंचन अवस्था में रहते हुए भी इतिहास-पुरुष बनने का गौरव हासिल किया है, जीव और संसार की श्रेष्ठतम उपलब्धियाँ अर्जित की है । मेरी बस यही कामना है कि तुम्हारा विश्वास मेरे लिए वीरता का पर्याय बनें आलस्य नहीं, धीरता का सम्बल बनें आतुरता की अकुलाहट नहीं, बस इतनी ही कृपा करना ।