हँसता-हँसता मस्ती भरा जीवन जियो

March 1997

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किसी की आत्मा पर अनावश्यक भर लदा है या नहीं, उसकी नाप-तौल इस आधार पर की जा सकती है कि यह कितना खिन्न और असंतुष्ट रहता है अथवा हँसता मुस्कुराता दिखाई पड़ता है। खीझ, असंतोष, रोष, उद्वेग से जलते भुनते व्यक्ति को देखकर सहज ही कहा जा सकता है कि यह विकृत चिंतन का शिकार है। इसके जीवन का नाव दृष्टि दोष के भँवर में फँस कर डूबने की तैयारी कर रही है। पटरी से उतरा हुआ इंजन जमीन में धँस जाता है तब उसके लिए न आगे बढ़ना संभव होता है और न पीछे हटना, कलपुर्जों की दृष्टि से बढ़ी-चढ़ी सामर्थ्यता तब निरर्थक सिद्ध होती है और वह अपने उद्धार के लिए क्रेन या जैक की सहायता चाहता है। रेलगाड़ी कीमती होती है, जैक की अपेक्षा इंजन अधिक शक्तिशाली होता है और अधिक मूल्यवान भी पर वह बड़प्पन पटरी से उतर जाने की दशा में व्यर्थ है। चिंतन की विकृति मनुष्य के चेहरे पर छाई खीझ और मस्तिष्क में भरी उद्विग्नता के अनुपात से नापी, आँकी जा सकती है।

कठिनाइयों से रहित मनोवाँछित परिस्थितियों और परिजनों से घिरा जीवन आज तक किसी का नहीं हुआ है। भविष्य में कोई सर्वांगपूर्ण सुविधा सम्पन्न मनुष्य इस संसार में जन्म ले सकेगा ऐसी आशा नहीं की जा सकती है। भगवान के अवतार कहे जाने वाले राम, कृष्ण तक की जो दुर्दशा हुई वह सामान्य मनुष्य से अच्छी नहीं, वरन् बुरी ही रही। दूसरे अवतार ऋषि, महापुरुष, ज्ञानी-विज्ञानी भी कठिनाइयों से घिरे और विपत्तियाँ सहन करते रहते हैं। महापुरुषों की महानता इसी आधार पर परखी जाती रही है कि उनने आदर्श और सुविधा में से किसे चुना और अपनी चरित्र निष्ठा को कितनी कठिन कसौटियों पर कसे जाने के लिए कितनी प्रसन्नता से प्रस्तुत किया।

धनी और दरिद्र, विद्वान और मूर्ख, पुण्यात्मा और पापी परिस्थितिवश अनुकूलता प्रतिकूलता के झूले पर प्रकृति व क्रम के अनुसार आगे-पीछे झूलते रहते हैं। प्रारब्ध-भोग विधि-विधान कर्मफल, समय चक्र आदि नाम कुछ भी दिया जाये लाभ-हानि सुख-दुख और यश-अपयश के अवसर हर किसी के जीवन में रात और दिन की तरह आते-जाते रहते हैं, न उससे ज्ञानी बचते हैं और न अज्ञानी। अनाचारों और दुष्कर्मों के फलस्वरूप दण्ड भुगतते हैं और सदाचारी पुण्य परमार्थ के लिए त्याग बलिदान करते हुए सादगी, संयम और तपश्चर्याजन्य कठिन परिस्थितियों से होकर गुजरते हैं। सुविधा-असुविधा की बहिरंग कसौटी पर कसने से कोई भी व्यक्ति अपने को सुखी नहीं कह सकता। पर दूसरी दृष्टि से देखने पर सुख सौभाग्य का उपभोग करने वाले इस संसार में कम नहीं हैं। इन सुखी लोगों में से प्रत्येक को विवेक दृष्टि प्राप्त होती है। वे अपने परिष्कृत दृष्टिकोण को हल्के-फुलके हँसते-खेलते स्वभाव में परिणित करते हैं और खिलाड़ी की तरह प्रत्येक स्थिति में संतुलित रहने का प्रयत्न करते हैं।

ताश, शतरंज से लेकर हाकी, पोलो या दूसरे विश्व खेलों के खिलाड़ी घड़ी-घड़ी में हारते जीतते रहते हैं। कभी हार, कभी जीत की उलट-पुलट होते रहने से किंचित् मुसकान या किंचित् माथे पर पर सिकुड़न भर आती है पर उससे उसके उत्साह में कोई फर्क नहीं पड़ता है। हार में न वे रोते हैं और जीत में न वे उछलते हैं। नमक, शक्कर की तरह स्वाद बदलता रहता है, पर वह इतना हल्का होता है कि मानसिक स्थिति पर कोई प्रभाव नहीं डालता है और विनोद का दुरंग क्रम यथावत जारी रहता है। यदि हर काम को, हर बात को इसी दृष्टिकोण से देखा समझा जाये, प्रतिकूलता और अनुकूलता को बड़ी गम्भीरता से लिया जाये तो उस असंतोष, उद्वेग से सहज ही बचा जा सकता है और प्रगति के पथ को प्रशस्त करने एवं प्रस्तुत कठिनाइयों से निपटने का रास्ता निकल सकता है।

जिस प्रकार कठिनाई को वस्तु स्थिति की अपेक्षा अधिक बढ़ी-चढ़ी सोचने से उसका दबाव बढ़ जाता है और अनावश्यक परेशानी से मानसिक स्तर गड़बड़ा जाता है, इसी तरह उसे वस्तु स्थिति की अपेक्षा कुछ हल्का गिना जाये तो जितनी चिन्ता होनी चाहिए उतनी न होगी। हल्की मनःस्थिति में एक तो चिंता के कारण होने वाली क्षति से बचाव हो जाता है और शांत चित से उपयोगी गतिविधि का निर्धारण करना सरल हो जाता है। निश्चिन्तता, निर्भयता जैसे गुणों की इस लिए प्रशंसा की गई है कि वास्तविक कठिनाई आने पर उसका सामना कर सकने योग्य साहस और विवेक सुरक्षित बना रहता है। यदि संकट सिर पर आ जाये और उसे भुगतना ही पड़े तो हलकी मनःस्थिति वाला व्यक्ति उसे धैर्य पूर्वक सहन कर लेता है। वह सोचता है कि जब अच्छे दिन नहीं रहे तो बुरे दिन बहुत समय तक क्यों टिकेंगे। समय बदलेगा, अच्छी स्थिति आवेगी और फिर नये सिरे से प्रयत्न करके प्रस्तुत हानि की क्षतिपूर्ति कर लेंगे। अच्छे भविष्य की आशा करते हुए कठिन समय सरलता पूर्वक निकल जाता है, जबकि अच्छा समय भी बुरे भविष्य की निराशाजनक कल्पनाएँ करते रहने पर भार रूप में हो जाता है और सुखद वर्तमान का आनन्द लाभ ले सकना संभव नहीं रहता।

विपत्ति को टालने अथवा हलका करने का सबसे सस्ता और सबसे हलका नुस्खा यह है कि कठिनाई को हलकी माना जाये। सही और भरपूर प्रयत्न करना ऐसी ही मनःस्थिति में संभव हो सकता है। लड़खड़ाता हुआ चिंतन तो और भी अधिक गहरे दलदल में फँसा देता है। उज्ज्वल भविष्य की आशा छोड़ दी जाये तो फिर चारों ओर अंधकार ही अंधकार दिखाई देगा और हलकी सी कठिनाई को पार करना भी पहाड़ उठाने जैसा भारी पड़ेगा।

अनुकूल परिस्थितियाँ सामने आने पर ही प्रसन्नता अनुभव करने की आदत रही तो जीवन में आनन्ददायक कुछ क्षण भी कदाचित नहीं मिल सकेगा। कारण कि थोड़ा लाभ होते ही उससे बड़ी आकांक्षा जग पड़ेगी और जो उपलब्ध हो सका है वह अपेक्षाकृत अपर्याप्त एवं असंतोषजनक प्रतीत होगा। इच्छा की तुलना में उपलब्धि कम हो तो संतोष ही नहीं आनन्द भी मिलेगा। उपलब्धियाँ उतनी मिल जाये जितनी कि इच्छा है, यह कदाचित ही संभव होता है क्योंकि प्राप्तियाँ सीमित ही रहेंगी और इच्छाएँ क्षण भर बाद पहले की अपेक्षा बढ़कर कई गुना हो सकती हैं। अस्तु इच्छा और तृप्ति का संतुलन कभी बनेगा ही नहीं। ऐसी दशा में यह तरीका सरल है कि उपलब्धियों की तुलना में इच्छा की सीमा घटा ली जाये और जो मिल सका हो उस पर पूरा संतोष और आनन्द अनुभव किया जाये। दृष्टि पसारने पर ऐसे असंख्य व्यक्ति मिलेंगे जो अपनी तुलना में कही अधिक गई गुजरी स्थिति में रहते हुए जीवन जी रहे हैं। उन्हीं का अनुकरण करके हम भी अपनी प्रसन्नता को सदा सर्वदा हर स्थिति में अक्षुण्ण बनाये रह सकते हैं।

उन्नति के लिए उत्साहपूर्वक प्रयास करना एक बात है और अपने आप को दीन दरिद्र अनुभव करना दूसरी। खिलाड़ी जीतने के लिए, पहलवान कुश्ती पछाड़ने के लिए, छात्र ऊँचा वज़ीफ़ा पाने के लिए प्रतियोगिता में उतरते हैं, प्रयत्न करते और विजयी उपहार पाते हैं पर इनके न मिलने तक अपने आप को दीन दरिद्र नहीं मानते रहते हैं। उन्हें अपनी सामयिक स्थिति पर संतोष भी होता है और गर्व भी। फिर भी अधिक सफलता पाने, अधिक ऊँचे उठने के लिए प्रयत्न जारी रखते हैं। हमारे प्रयास प्रगति की दिशा में निरन्तर चलें, पर इसके लिए वर्तमान स्थिति को असंतोषजनक मानना और खिन्न रहना आवश्यक नहीं है।

हलकी फुलकी हर्षोल्लास एवं संतोष, आनन्द से जिन्दगी जीने की योजना बनानी चाहिए और इस मार्ग में जो जो अवरोध हों उसे चुन चुनकर मार्ग से हटाना चाहिए। विचार करने पर सबसे बड़ी-बड़ी अपने को अभावग्रस्त कठिनाइयों से घिरा हुआ, विरोधी दुर्जनों के बीच रहता, भविष्य में विपत्ति की संभावनाओं से जकड़ा अनुभव करेंगे तो जी सदा खिन्न, उद्विग्न रहेगा। चिंतन की इस निषेधात्मक धारा को विवेकपूर्ण पर्यवेक्षण से बहुत कुछ हलका किया जा सकता है। भविष्य में क्या होना है किसी को पता नहीं, यदि यह बात है तो विपत्ति की आशंका करने की अपेक्षा उज्ज्वल संभावनाओं की कल्पना क्यों न की जाये, साथियों के दोष ही दोष क्यों देखे जायें ? उनमें जो गुण हैं उन्हें क्यों न समझें ? उनके द्वारा जो क्षति हुई उसी पर विचार क्यों करते रहें ? जो सहयोग, सद्भाव वे देते हैं उन सुखद प्रसंगों का स्मरण क्यों न किया जाये ? स्वजनों के दोष दुर्गुणों को देखना, सुधारना उचित है, पर क्या वह कार्य डाक्टर या रोगी को वयस्क और बालक की भावना के साथ उदारता पूर्वक बिना खोजे भी किया जा सकता है।

जो ईश्वर ने दिया है वह कम नहीं है। पशु-पक्षियों और दुखी-दरिद्रों की, रुग्ण-अपंगों की तुलना में अभी भी अपनी स्थिति कहीं अच्छी है, इस पर मोद मनाया जा सकता है और अधिक प्राप्त करने के लिए उत्साह एवं आशा भरी मनःस्थिति में प्रयत्न रखा जा सकता है। हमारे अधिकाँश मानसिक बोझ अवास्तविक और निराधार होते हैं। चिंतनपरक विकृतियाँ ही हमें अशान्त बनाये रखती हैं। सन्तान न होने पर कितने ही व्यक्ति दुखी रहते हैं जबकि उत्तरदायित्वों का बोझ हलका होने पर उन्हें संतान का भार वहन करने में पिसते हुए लोगों की तुलना में अधिक प्रसन्न होना चाहिए था। इसी प्रकार अनेकों अनावश्यक महत्त्वाकाँक्षाएँ दुखी बनाये रखती हैं जिनके बिना जीवन क्रम का सामान्य निर्वाह क्रम रुकता नहीं है। ऐसी अनावश्यक महत्वाकाँक्षाओं की तृष्णाओं को बोझ आसानी से हलका किया जा सकता है और सादगी के सौम्य जीवन का आनन्द लिया जा सकता है। प्रस्तुत कठिनाइयों से लड़ा जूझा जाये, उन्हें हटाने के लिए पूरा कौशल प्रयुक्त किया जाये फिर भी यदि वे न हटें तो प्रारब्ध निपट जाने की बात सोची जा सकती है। अधिक सतर्कता बरतने, अधिक क्षमता जुटाने एवं अनुभव संपादित करने का अवसर भी उसे माना जा सकता है। दृढ़ता, साहसिकता, संतुलन आदि सद्गुणों की परीक्षा का अवसर भी उसे माना जा सकता है। कठिन समय में चिंतन का परिष्कृत स्तर मन का भार हलका करने में बहुत सहायक सिद्ध होता है। खोज करने पर प्रतीत होगा कि दुखी मनःस्थिति का बहुत बड़ा कारण सही ढंग से सोच सकने में त्रुटि रहना ही था। उसे सुधार लेने पर अधिकाँश समस्याओं का हल मिल जाता है। फिर भी जो रह जाये उसे हर किसी को कुछ न कुछ कमी, कठिनाई रहने के सामान्य क्रम को ऐसे ही हँसते-खेलते सहन किया जा सकता है।

इस प्रकार अन्य अप्रिय प्रसंग हर किसी के जीवन में कभी न कभी घटित हुए ही होते हैं। यदि उन्हें ढूँढ़ कर एकत्रित किया जाये और उन्हीं का स्मरण किया जाये तो लगेगा कि सारी जिन्दगी दुख कष्ट सहते सहते असफल बीत गई। इसके विपरीत यदि सुखद प्रसंगों को ढूँढ़ा जाये तो वे भी इतने अधिक दिखाई पड़ेंगे जिनके आधार पर सुखी जीवन को जी लेने का गर्व किया जा सके। एक स्मृति दुखी बनाती है और दूसरी के कारण होठों पर मुस्कान आती है। दोनों में से जिसका का भी चुनाव करना हो प्रसन्नता पूर्वक किया जा सकता है।

हँसी-खुशी का हलका-फुलका जीवन शारीरिक, मानसिक, पारिवारिक एवं आर्थिक सभी पक्षों को प्रभावित करता है और सुखद भावनाएँ विनिर्मित करने में भारी योगदान देता है। यह कठिन नहीं अति सरल है। चिंतन का थोड़ा हेर-फेर करके हम खिन्न, उद्विग्न जीवन को हँसता-हँसाता बनाने में अभीष्ट सफलता प्राप्त कर सकते हैं।


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