सम्मान वैभव को नहीं, गुणों को मिले

March 1997

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सच्चाई मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी सार्थकता है। इसके अभाव में हर मार्ग कंटकाकीर्ण हो जाता है। क्या वैयक्तिक, क्या सामाजिक और क्या राष्ट्रीय हर क्षेत्र में सच्चाई का बहुत अधिक महत्व है। व्यक्तिगत जीवन में मिथ्याचारी किसी प्रकार की आत्मिक उन्नति प्राप्त नहीं कर सकता, सामाजिक जीवन में अविश्वास एवं असम्मान का भागी है और राष्ट्रीय जीवन में तो वह एक आपत्ति ही माना जाता है।

व्यक्तिगत जीवन में आहार-विहार में मिथ्या करने से न जाने कितने प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक रोग पैदा हो जाते हैं, जिनसे संघर्ष करते ही बहुमूल्य मानव जीवन समाप्त हो जाता है। जिससे न तो वह वर्तमान में कोई सुख शाँति पा सकता है और न आगे उसकी कोई व्यवस्था कर पाता है।

मानव जीवन के परम लक्ष्य सुख शाँति को पाने के लिए जिस शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य की आवश्यकता होती है, मिथ्याचारी के जीवन में उसका कभी आगमन नहीं होता है। मिथ्याचारी का अर्थ ही यह है कि वह सब कुछ न करना जिसको करना चाहिए और वही सब करना जिसको नहीं करना चाहिए।

यद्यपि इस प्रकार के अकरणीय कार्यों को अज्ञानवश करने से कोई परिणाम के कुफल से बच नहीं पाता, तथापि जो जानता हुआ अकरणीय कार्य किया करता है उसकी दुर्दशा की कल्पना कर सकना ही कठिन है। धूर्त और मक्कार लोग ऊपर से कितने ही खुशहाल क्यों न दिखाई पड़ते हों किन्तु अन्दर से बड़े ही व्यग्र, विकल और दरिद्र ही रहा करते हैं। उनके हृदय में हर समय एक जलन, एक पश्चाताप एवं आत्मग्लानि कसक करती है। और यही आँतरिक अशाँति मनुष्य के लोक-परलोक में आग लगाने का हेतु होती है।

मिथ्याचारी सामाजिक जीवन में अविश्वास और असम्मान के परिणाम उपस्थित करता है। ऐसे व्यक्ति बेईमान, मक्कार और धूर्त सिद्ध हो जाता है, लोग उससे व्यवहार करने से बचते हैं। अपना कोई काम न तो मिथ्याचारी को सौंपते हैं और न कोई काम करने को तैयार होते हैं। उसके किये कर्मों और कहे वचनों में विश्वास नहीं करते। एक बार यदि मिथ्याचारी किसी काम अथवा कथन में सत्यता का व्यवहार भी करता है, तब भी उस पर कोई विश्वास नहीं करता और उससे दूर रहने का प्रयत्न किया जाता है।

मिथ्याचारी से घृणा किया जाना तो एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। लोग उसके मुँह पर उसे बेईमान, चोर, धूर्त तक कह देते हैं उसके एवज में वह क्यों न क्रोध करने लगे, क्यों न लड़ने को तैयार हो जाये ? किन्तु यह सब उसका ऊपरी दिखावा मात्र होगा, उसकी आत्मा इस सत्य को स्वीकार करती रहती है।

मिथ्या के दोष से मनुष्य में कायरता तथा दब्बूपन आ जाता है। वह खुलकर न तो समाज में बात कर पाता है और न विश्वासपूर्वक खुले तौर पर काम कर सकने का साहस कर पाता है। वह हर समय चोर की तरह डरा-डरा ओर दबा-दबा रहा करता है।

समाज में उसकी इज्जत दो कौड़ी की हो जाती है। वह अपने को बड़ा बुद्धिमान समझ कर प्रसन्न रहता है। किन्तु भेद खुलते ही, जो शीघ्र खुल ही जाता है और दयनीयता के पल्ले लग जाता है, फिर जीवन भर पछताने और दुखी होने के सिवाय कोई चारा नहीं रहता। राष्ट्रीय जीवन का मिथ्याचार सबसे भयानक होता है। राष्ट्रीय स्तर का मिथ्याचार ही पराधीनता, शोषण, अत्याचार का हेतु बना करता है। यही नहीं कभी-कभी तो राष्ट्रीय स्तर का मिथ्याचार राष्ट्रों को मिटा दिया करता है। आज खेद के साथ देखना पड़ रहा है और शोक के साथ कहना पड़ रहा है कि भारतवासियों के जीवन से ईमानदारी और सच्चाई दिन-दिन निकलती चली जा रही है। संसार में अपनी सच्चाई तथा नैतिकता के लिए प्रसिद्ध भारतीय राष्ट्र अपने मिथ्याचार एवं अनैतिकता के लिए बुरी तरह बदनाम हो रहा है।

यह वही भारतीय राष्ट्र है, जहाँ घरों में ताले नहीं डाले जाते थे, प्रहरी नहीं रखे जाते थे, एक दूसरे के रक्षक स्वयं ही बने रहते थे, धोखे से मिथ्याचार हो जाने से प्राण देकर प्रायश्चित किया करते थे, अनजान में किये गये पाप को भी प्रकाशित कर दिया करते थे और जब तक उसका परिमार्जन नहीं कर लेते थे अपने को सामाजिक जीवन के योग्य नहीं समझते थे।

आज के बढ़े हुए आर्थिक दुराचार, घोटालों आदि के मूल में धन की अपरिमित लिप्सा ही काम कर रही है। यह स्पष्ट है कि जीवन की वास्तविक आवश्यकताएँ किसी भी भ्रष्टाचार के लिए विवश नहीं कर रही हैं। क्योंकि मनुष्य की अनिवार्य आवश्यकताएँ इतनी कम होती हैं कि ईमानदारी की कमाई से भी यदि मितव्ययिता और सादगी का जीवन जिया जाये तो आवश्यकताएँ सहज ही पूरी हो सकती हैं। आज का सारा मिथ्याचार आवश्यकताओं और आडम्बर पूर्ण फिजूलखर्ची की आदतों के कारण ही फैला हुआ है। आज के लोग बड़े प्रदर्शनवादी और दुर्व्यसनी बन गये हैं। अनावश्यक अपव्ययता ने उनकी आवश्यकताएँ जमीन से आसमान तक बढ़ा दी हैं। हमारे जीवन में आदर्शवाद का स्थान भोगवाद ने ले लिया है। ‘सादा जीवन उच्च विचार’ का भाव भुलाकर ओछे विचार और दिखावे का जीवन पसन्द करने लगे हैं। कम से कम परिश्रम में अधिक से अधिक धन पैदा करने की प्रवृत्ति ने लोगों को भ्रष्टाचार के पाप की ओर अग्रसर कर दिया है। जहाँ इस पतन में मनुष्य की मानसिक दुर्बलता काम कर रही है वहाँ------------- और खर्चीले सामाजिक रीति रिवाज भी इसके उत्तरदायी हैं। ब्याह, शादी, दान-दहेज प्रीति भोज, मृत्यु भोज जैसी सामाजिक कुरीतियाँ भी ऐसी ही रीति-रिवाज हैं जो हमें किसी प्रकार भी अधिक पैसा कमाने को मजबूर कर रही हैं। इसके साथ ही समाज में पैसा ही आदर, सम्मान और बड़प्पन का मापदण्ड बनता चला जा रहा है। जिसके पास जितना पैसा है वह आदमी उतना ही अधिक बड़ा और आदर का पात्र माना जाने लगा है। पैसे को बड़प्पन का चिन्ह मानने वाले अथवा उससे प्रभावित होकर किसी को आदर-सम्मान देने वाले यह क्यों नहीं देखते कि इसने उतना पैसा कमाया किस मार्ग से है ? पाप से पैसा कमा कर भी जब आदर मिल सके तो कोई पसीने की कमाई में विश्वास क्यों करने लगे ?

यह बात सही है कि पैसा बड़प्पन का चिन्ह माना जाता रहा है। उसका कारण यही था कि आसानी से न मिल सकने के कारण लोगों को इसके लिए कठिन परिश्रम व पुरुषार्थ करना पड़ता था। इस प्रकार जिसके पास जितना पैसा होता था वह उतना ही परिश्रमी, सद्गुणी और पुरुषार्थी माना जाता था। इस कारण धन के कारण दिया जाने वाला बड़प्पन वास्तव में उस परिश्रम एवं पुरुषार्थ का ही सम्मान हुआ करता था, जो पैसा कमाने में लगाया था। किन्तु अब स्थिति बदल गयी है, लोग परिश्रम एवं पुरुषार्थ के बजाए धूर्तता, भ्रष्टाचार तथा बेईमानी से पैसा अधिक इकट्ठा करने लगे हैं। इसीलिए पैसे के कारण किसी को सम्मान देने का मतलब है कि भ्रष्टाचार एवं बेईमानी की प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन देना।

यदि समाज में बेईमानी तथा भ्रष्टाचार की प्रवृत्तियों को कम करना है तो पैसों के बजाए मनुष्य को गुणों का आदर करना होगा। जीवन में यथासंभव उस वस्तुओं का बहिष्कार कर देना होगा, जिनमें लोगों को भ्रष्टाचार करने का अवसर मिलता है।


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