इच्छाशक्ति से गुणसूत्र भी बदले जा सकते हैं

March 1997

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

आनुवंशिक विज्ञान के अंतर्गत पिछले दिनों यह सिद्ध किया जाता रहा है कि प्राणी अपने पूर्वजों के प्रतिकृति होते हैं। माता पिता के डिम्ब कीट और शुक्र कीट मिलकर भ्रूण कलन में परिणित होते हैं और अपना शरीर बनना आरम्भ हो जाता है । उस शरीर में जो मनःचेतना रहती है उसका स्तर भी पूर्वजों की मनः स्थिति के अनुसार मिलता है। शरीर की संरचना और शारीरिक मानसिक बनावट के लिए वह हद तक पूर्वजों के उन जीवाणुओं को ही जिम्मेदार ठहराया गया है, जो परम्परा के रूप में वंशधरों में उतरते चले जाते हैं ।

इस प्रतिपादन से यह निष्कर्ष निकलता है कि व्यक्ति अपने आप में कुछ बहुत अधिक महत्वपूर्ण नहीं है पूर्वजों के ढाँचे में ढला हुआ एक खिलौना मात्र है । यदि संतान को सुयोग्य सुविकसित बनाना हो तो वह कार्य पीढ़ियों पहले आरम्भ किया जाना चाहिए, अन्यथा साँचे में ढाले हुए इस खिलौने में महत्वपूर्ण परिवर्तन हो सकेंगे ।

आनुवांशिकी का यह प्रतिपादन जहाँ तक मानव प्राणी का संबंध है, बहुत ही अपूर्ण और अवास्तविक है । पशु -पक्षियों में एक हद तक यह बात सही भी हो सकती है पर मनुष्यों के लिए कहना अनुचित है कि वह पूर्वजों के साँचे में ढला हुआ एक उपकरण मात्र है । यह मानवी इच्छाशक्ति, विवेक-बुद्धि स्वतंत्र चेतना और आत्म निर्भरता को झुठलाना है । समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री और मनोविज्ञानवेत्ता वातावरण एवं परिस्थितियों के उत्थान पतन का कारण बताते रहे हैं । आत्मवेत्ताओं ने एक स्वर से सदा यही ही कहा है - मनुष्य की अंतःचेतना स्वनिर्मित है । यह वंश परम्परा से नहीं, संचित संस्कारों और प्रस्तुत प्रयत्नों के आधार पर विकसित होती है । इच्छा शक्ति और संकल्प शक्ति के आधार पर अपने मानसिक ढाँचे में कोई चाहे तो आमूल चूल परिवर्तन कर सकता है ।

आनुवांशिकी की मान्यता एक हद तक ही सही ठहराई जा सकती है । चमड़ी का रंग, चेहरा, आकृति, अवयव आदि पूर्वजों की बनावट के अनुरूप हो सकते हैं पर गुण, कर्म, स्वभाव भी पूर्वजों जैसे हों यह आवश्यक नहीं । यदि ऐसा नहीं होता तो किसी कुल में सभी अच्छे और किसी कुल में सभी बुरे होते । रुग्णता, सज्जनता, स्वास्थ्यता, बुद्धिमत्ता, मूर्खता, दुष्टता, कुशलता भी परम्परागत होती तो प्रगतिशील परिवार के सभी व्यक्ति सुविकसित होते और पिछड़े लोग सदा के लिए गये गुजरे ही बने रहते । तब उत्थान पतन के लिए किये गये प्रयत्नों की भी कुछ सार्थकता न होती, वातावरण का भी कोई प्रभाव न पड़ता । पर ऐसी स्थिति नहीं है, पूर्वजों की स्थिति से सर्वदा भिन्न स्तर की संतानों के अगणित उदाहरण पग-पग पर सर्वत्र बिखरे हुए देखे जा सकते हैं । इससे मनुष्य की स्वतंत्र चेतना और इच्छा शक्ति की प्रबलता का लक्ष्य ही स्पष्ट रूप से समाने आता है ।

मद्यप् मनुष्यों की संतान क्या स्वजन्मजात रूप से उस लत से ग्रसित होती है ? इस खोजबीन में पाया गया है कि ऐसी कोई बात नहीं हैं, वरन् उलटा यह हुआ कि बच्चों के बाप को मद्यपान के कारण अपनी बरबादी करते देखा तो वे उसके विरुद्ध हो गये और उन्होंने न केवल मद्यपान से अपने को अछूता रखा वरन् दूसरों को भी उसे अपनाने से रोका ।

मनुष्य के गुण सूत्रों के हेर-फेर से जो परिणाम सामने आये उनसे स्पष्ट है कि बिगाड़ने में अधिक और बनाने में कम सफलता मिली है । विकलांग और पैतृक रोगों से ग्रसित संतान उत्पन्न करने में आशाजनक सफलता मिली है क्योंकि विषाक्त मारकता से भरे रसायन सदा अपना त्वरित परिणाम दिखाते हैं यह गति विकासोन्मुख प्रयत्नों की नहीं होती । नीलाथोथा खाने से उल्टी तुरन्त हो सकती है पर पाचन शक्ति सुधार देने के प्रयोग उतने सफल नहीं होते हैं । देव से असुर की शक्ति को अधिक मानने का यही आधार है । मनुष्यों में मनचाही संतान उत्पन्न करने का प्रयोग सिर्फ उतनी मात्रा में कुछ अधिक सफल हुआ है कि रंग-रूप और गठन की दृष्टि से जनक-जानकी का सादृश्य दृष्टिगोचर हो सके । काया की आँतरिक दृढ़ता, बौद्धिक तीक्ष्णता एवं भावनात्मक उत्कृष्टता उत्पन्न करने में वैज्ञानिक प्रयोगों का उत्साह वर्धक परिणाम नहीं निकलता है ।

गुण सूत्रों को बदलने में इन दिनों विद्युत ऊर्जा एवं रासायनिक हेर-फेर के साधन जुटाये जा रहे हैं । पर वे यह भूल जाते हैं कि यह बाहरी थोप-थाप स्थिर न रह सकेगी, उसमें क्षणिक चमत्कार भले ही देखा जा सकें । शरीर के प्रत्येक अवयव को मस्तिष्क प्रभावित करता है और मस्तिष्क का सूत्र संचालन इच्छा शक्ति के हाथ में रहता है । अस्तु शारीरिक, मानसिक समस्त परिवर्तनों का तात्त्विक आधार इस इच्छा शक्ति को ही मानना पड़ेगा ।

अभीष्ट स्तर की पीढ़ियाँ क्या रासायनिक हेर-फेर अथवा वुतीय प्रयोग उपकरणों द्वारा प्रयोगशाला में विनिर्मित हो सकती है ? यह एक जटिल प्रश्न है । यदि ऐसा हो सकता तो यह मानना पड़ेगा कि मनुष्य इच्छा शक्ति का धनी नहीं, वरन् रासायनिक अभिक्रियाओं का परावलम्बी प्रतिक्रिया मात्र है । यदि यह सिद्ध हो चुका हो तो इसे मनोबल और आत्मबल की गरिमा समाप्त कर देने वाली दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति ही कहा जायेगा, पर ऐसा हो सकना संभव दिखाई नहीं पड़ता भले ही इसके लिए एड़ी चोटी के प्रयत्न कितने ही किये जाते रहें ।

शरीर के विभिन्न अंगों पर दबाव डाले जाते रहे हैं, पर प्राणी की मूल इच्छा ने उस दबाव को आवश्यक नहीं समझा तो उस तरह के परिवर्तन ही नहीं हो सके । चीन में शताब्दियों तक स्त्रियो के पैर छोटे होना, सौन्दर्य का चिन्ह माना गया है इसके लिए उन्हें कड़े जूते पहनाये जाते थे । उससे पैर छोटे बनाने में सफलता मिलती पर वंश परम्परा कि दृष्टि से वैसा कुछ भी नहीं हुआ । हर नई लड़की के पैर पूरे अनुपात में ही होते थे । प्राणियों के क्रमिक विकास में इच्छा शक्ति का ही प्रधान स्थान है । मनुष्य तो मनोबल का धनी है, उसकी बात जाने भी दें और अन्य प्राणधारियों पर दृष्टिपात करें तो प्रतीत होगा कि उनकी वंश परम्परा में बहुमुखी परिवर्तन होता है । इसका कारण सामयिक परिस्थितियों का चेतना पर पड़ने वाला दबाव ही प्रभाव कारण रहा है । असुविधाओं को हटाने और सुविधाएँ बढ़ाने की आँतरिक आकांक्षा ने प्राणियों की शारीरिक स्थिति और आकृति में नहीं, प्रकृति में भी भारी हेर फेर प्रस्तुत किया है । जीव विज्ञानी इस तथ्य से भली भाँति परिचित हैं ।

यदि पूर्वजों का गुण लेकर ही संतानें उत्पन्न होने वाली बात को सही माना जया तो जीवों की आकृति प्रकृति में अन्तर कैसे संभव हुआ ? उस स्थिति में तो पीढ़ियों का सत्र एक ही प्रकार से चलता रहना चाहिए ।

लोमार्क ने प्राणियों का स्तर बदलने में वातावरण को, परिस्थितियों को श्रेय दिया है । वे कहते हैं इच्छा शक्तिओं-दबावों नहीं रहता ।-------------------कवके कारण उभरती है । सुविधा संपन्न परिस्थितियों के प्राणियों के ऊपर किसी प्रकार का दबाव नहीं रहता अतएव उनका शरीर ही-------- बुद्धि कौशल भी ठप्प पड़ता है । अमीरी के वैभव में पाले हुए लोग अक्सर छुईमुई बने रह जाते हैं और उनका चरखा बखेर देने के लिए एक छोटा सा आघात ही पर्याप्त है ।

जीवों का विकास इतिहास के पन्ने पन्ने पर यह प्रमाण भरे पड़े हैं कि प्राणियों का अंग प्रत्येक निष्क्रियता के आधार पर कुण्ठित हुए है और सक्रियता ने उन्हें विकसित किया है । प्रवृत्ति, प्रयोजन और चेष्टाओं की मूल इच्छा शक्ति है । असल में यह इच्छा शक्ति ही प्राणिसत्ता में विकास, अवसाद उत्पन्न करती है । रासायनिक पदार्थों के गुण सूत्रों की वंश परम्परा विज्ञान में कायिक क्षमता को एक अंश तक प्रभावित करने वाला आधार भर माना जाना चाहिए । आधुनिक विज्ञान वेत्ता मौलिक भूल यह कर रहे है कि मानवी सत्ता को उन्होंने रासायनिक प्रतिक्रिया मात्र समझा है और उसका विकास करने के लिए जनक जननी को, उनके जनन रसों को अत्याधिक महत्व दे रहे हैं । इस एकाकी आधार को लेकर मनचाही आकृति प्रकृति पीढ़ियाँ वे कदाचित् ही पैदा हो सके ।

वैज्ञानिक वेजमेन ने चूहों और चुहियों को लगातार बीस पीढ़ियों तक पूँछ काटी और देखा कि क्या इसके फलस्वरूप बिना पूँछ वाले चूहे पैदा किये जा सकते हैं ? उन्हें अपने प्रयोग में सर्वथा असफल होना पड़ा । बिना पूँछ के माँ-बाप भी पूँछ वाले बच्चे ही जनते चले गये । इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि कि मात्र शारीरिक हेर फेर से वंशानुक्रम नहीं बदला जा सकता है । इसके लिए प्राणी को अपनी रुचि एवं इच्छा का समावेश करना नितान्त आवश्यक है ।

हर्बर्ट स्पेन्सर ने खोजों में ऐसे कितने ही प्राणियों के उदाहरण प्रस्तुत किये हैं, जिन्होंने शरीर के किसी अवयव को निष्क्रिय किया है कि वह क्षीण होता चला गया । इसके विपरीत ऐसे उदाहरण भी कम नहीं हैं जिसमें “आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है” वाले सिद्धांत को सिद्ध करते हुए अपने शरीर में किसी तरह के नये पुर्जे विकसित किये और पुरानों को आश्चर्यजनक स्तर पर परिष्कृत किया ।

समुद्रतल की गहराई में रहने वाली मछलियों को प्रकाश से वंचित रहना पड़ता है अतएव उनकी आँखों के चिन्ह रहते हुए भी उनमें रोशनी नहीं रहती है । आँखों वाले अन्धों में उनकी गणना की जा सकती है । अंधेरी गुफाओं में जन्मने और पलने वाले थलचरों का भी यही हाल होता है । उनकी आँखें ऐसी होती हैं कि जो अंधेरे में ही कुछ काम करती हैं प्रकाश में तो बेहतर ही चौंधा जाते हैं ।

समर्थ का चुनाव मात्र शारीरिक बलिष्ठता पर निर्भर नहीं है वरन् सच पूछा जाये तो उनकी मनो स्थिति ही परख की कसौटी होती है । पशुवर्ग और सरीसृप वर्ग के विशालकाय प्राणी आदिम काल में थे । उनकी शरीर गत क्षमता अद्भुत थी । फिर वे भी मन्द बुद्धि अदूरदर्शिता, आलस्य जैसी कमियों के कारण दुर्बल संज्ञा वाले ही सिद्ध हुए और अपना अस्तित्व ही खो बैठे । जबकि उसी समय के छोटी काया वाले अपने मनोबल के कारण अपनी सत्ता सँभालने रहे वरन् क्रमशः विकासोन्मुख भी होते चले गये । जीवों के विकास का क्रम एक ही महत्वपूर्ण आधार यह है कि उन्हें परिस्थिति यों से जूझना पड़ा अवरोध के सामने टिके रहने के लिए अपने शरीर व स्वभाव में अंतर करना पड़ा । यह परिवर्तन किसी रासायनिक हेर फेर के कारण नहीं, विशुद्ध रूप से इच्छा शक्ति की प्रवाह धारा बदल जाने से ही संभव है । जीवन संग्राम में जूझने की पुरुषार्थ परायणता का उपहार ही अल्प प्राण जीवों को महाप्राण स्तर में बदले सकने का रूप मिलता है जिन्होंने विपत्ति में लड़ने की हिम्मत छोड़ दी थी और हताश होकर पैर पसार बैठे । उन्हें प्रकृति ने कूड़े कचरे की तरह बुहार कर घूरे में पटक दिया । किसान और माली भी तो अपने खेत बाग में अनुपयोगी खर पतवार को ऐसी उखाड़ पछाड़ करते रहते हैं ।

विकास की उपलब्धि पूर्णता संग्राम में विजय प्राप्त करने के फलस्वरूप ही मिलती है और इस संघर्षशीलता का पूरा आधार साहसी एवं पुरुषार्थी मनोबल के साथ जुड़ता रहता है ।

आनुवांशिक विज्ञान की अनन्य शोधें कितनी ही महत्वपूर्ण क्यों न हों पर वह प्रतिपादित स्वीकार नहीं हो सकता कि प्राणियों का विशेषतया मनुष्यों का स्तर पूर्वजों की परम्परा गुणसूत्रों पर निर्भर है । इच्छा शक्ति की प्रचण्ड सार्थकता के आधार पर शारीरिक, मानसिक और सामाजिक परिवर्तनों की संभावना की मान्यता देने के उपरान्त ही वंशगत विशेषताओं की चर्चा की जाये यही उचित है ।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118