मरण की स्मृति ही वास्तविक अनुभूति है।

March 1997

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अवन्तिका के इस राजमहल की ख्याति सुदूर देश तक फैली रहती थी। हो भी क्यों न, दूर-दूर के विख्यात वास्तु विशारद, शिल्पी और चित्रकारों ने इसके निर्माण में अपनी श्रेष्ठतम प्रतिभा का दान किया था। महल की सर्वोत्तम अटारी पर चारों ओर स्फटिक जाली वाले रेलिंग और वातायन थे। बीचो-बीच स्फटिक का ही शयन कक्ष था। उसे देख कर लगता था कि जैसे छोर तरंगों पर चन्द्रमा उतर आया हो। फर्श के चारों ओर मरकत और इन्द्रनील मणि की शालायें जड़ी थीं। कक्ष के द्वार पर, खिड़कियों पर नीलम और मोतियों के तोटक लटक रहे थे, जिनकी मणि घण्टिकायें हवा में हिल-हिलकर शीतल शब्द कह रही थीं। उनके ऊपर सौरभ की लहरों से रेशमी परदे हिल रहे थे।

कक्ष के एक ओर गवाक्ष के पास ही पद्यरागमणि का पलंग बिछा था। उस पर तुहिन सी तरल मसहरी झूल रही थी। उसके पट आज उठा दिये गये थे। अन्दर फेनों पर उभार वाली शय्या बिछी थी। मनोखंचित छतों में मणिदीपों की झूमरें झूल रही थीं। एक ओर आकाश के टुकड़े सा विशाल बिल्लौरी सिंहासन था। उस पर कास के फूलों से बुनी सुख स्पर्श मृसण गद्दिया और तकिये लगे थे। उसके आस पास संगमरमर के उज्ज्वल हंस-हंसनियाँ खड़े थे जिनके पंखों में छोटे-छोटे कृत्रिम सरोवर चित्रित किये गये थे। इन कृत्रिम सरोवरों में तैरते नीले-नीले कमल, देखने वालो को आश्चर्य में डाल देते। कक्ष के बीचो-बीच काफी बड़े आकार का कल्प वृक्ष बनाया गया था। जिसमें लगी ----------------कल घुमा देने पर अनेक सुगंधित जलों की------------------ रंगबिरंगा बिखरने लगते थे। मणिदीपों की प्रभा में ये सीकर इन्द्रधनुष की लहरें बनकर शोभा की आलौकिकता का नृत्य रच रहे थे। कक्ष के दोनों कोनों में सुन्दर जालियाँ कटे दीपधार थे, जिनमें सुगंधित तेलों के दीप प्रज्वलित थे।

ऐश्वर्य के चकाचौंध से भरे-पूरे इस कक्ष में महाराज भोज अपने पलंग पर विश्राम कर रहे थे। उनके कवि हृदय में कभी कल्पना की एक तरंग उठती तो कभी दूसरी और कभी सारी तरंगें आपस में समा जातीं। कवि की भावुकता जब उमड़ पड़ती तो वह यदा-कदा क्षणिक सौंदर्य को ही शाश्वत मान लेता है और उसी प्रवाह में बहने लगता है। अवन्तिका के महाराजाधिराज इस समय इसी मनःस्थिति में थे।

उन क्षणों में उन्हें अपने जीवन की प्रचुर उपलब्धियों पर गर्व हो रहा था। लोकहित के लिए उन्होंने अनेकों उपयोगी कार्य किये थे। जनहित के लिए अनेकों लाभकारी योजनाओं का क्रियान्वयन किया था। उनकी प्रजा भी उन्हें ईश्वर की विभूति के रूप में पूजती थी। वह उज्जयिनी ही नहीं जन-जन के हृदय सम्राट थे। अपने विपुल ऐश्वर्य तथा जनता द्वारा मिलती हुई महती प्रशंसा पर उन्हें अभिमान था। दुर्भाग्य से वह अहंकार लोक कल्याण की भावना की जगह दम्भ की वासना द्वारा वंचित किया गया था।

रोज की तरह उस रात भी महाराज भोज अपने सर्वाधिक आरामदायक एवं मणियों से जड़े उस बेशकीमती पलंग पर लेटे आनन्द के सागर में डुबकियाँ लगा रहे थे। आज उन्हें सबके द्वारा प्रशंसित अपने भाग्य पर अभिमान हो रहा था। उन्हें पूरी तरह से लग रहा था कि मेरे समान इस संसार में अन्य कोई दूसरा ऐश्वर्य सम्पन्न एवं सुखी नहीं है। वे प्रजा के मुँह से अपने प्रति सुने गुणगान को ही वास्तविक बड़प्पन की निशानी मान बैठे थे। सही भी है जो दूसरा ठकुरसुहाती कहे तो प्रखर प्रज्ञा के अभाव में मनुष्य उसी को सच मान लेता है। मनुष्य को चाहे जितनी भी प्रशंसा क्यों न मिले, उसे कभी भी तृप्ति नहीं होती बल्कि और अधिक की चाहत उसे ईर्ष्याग्नि में जलाती रहती है।

महाराज भोज विद्वानों का बहुत आदर करते थे। उन्होंने विद्या को मनुष्य की सर्वोत्कृष्ट उपलब्धि माना था। उनके दरबार में निरन्तर विद्वानों का बड़ा सम्मान-सत्कार होता था। उन्हें भरपूर पुरस्कृत किया जाता था। वे स्वयं विद्वानों के विचार सुनते और उन्हें पुरस्कृत करते। वे स्वयं भी उत्कृष्ट कवि थे। काव्य प्रेम और सहज मानवता सेवा उनके चरित्र के गौरव में सदैव बुद्धि करते रहते थे। वे प्रायः कहते भी रहते-

विद्वत्वं च नृपत्वं चनैव तुल्यं कदाचन्। स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान सर्वत्र पूज्यते॥

यानि विद्वान और राजा किसी भी तरह परस्पर बराबर नहीं हैं क्योंकि राजा अपने राज्य में ही पूजा जाता है लेकिन विद्वान अपने देश में ही नहीं सर्वत्र पूजा जाता है। सर्वत्र सम्मान पाता है। अतः विद्वान सब तरह से सबके द्वारा पूज्य है।

लेकिन जिस सरोवर में स्वच्छ जल काई से घिर जाता है, प्रज्वलित अग्नि धुएँ में आच्छादित हो जाती है, उसी तरह विद्याभ्यासी महाकवि उज्जयिनी नरेश का मन अपनी ही अहं वृत्ति में आच्छादित था। वह सोच रहे थे, मनुष्य जीवन ऐश्वर्य भोग एवं दुखी जनों पर दया करने के लिए मिला है। मैं कितना सौभाग्यशाली हूँ कि मेरी प्रजा दयालुता का सम्मान करती है। मुझे विष्णु के समान पूजती है और में भी इन्द्र की तरह ऐश्वर्य का भोग कर रहा हूँ।

संयोग से उसी क्षण पलंग पर लेटे कविता की कुछ पंक्तियाँ उनके भाव जगत में स्पंदित होने लगती हैं। इन स्पन्दनों ने मन में शब्द का आकार लिया और अधरों में स्फुटित हो उठे।

च्तोहरा युवतयः सुहृदोनूकुलाः।

वह गुनगुनाने लगे आह! मुझे, चित्त को मयूर की भाँति नृत्य से लुभाने वाली सुन्दर कामिनी युवतियों का प्यार और स्वभावानुकूल स्नेही मित्रों के सत्संग का सुख मिला है। मैं आज कितना सौभाग्यशाली हूँ। उन्होंने अति विह्वलता के साथ इसे कड़े स्वर में कई बार दोहराया। इस पंक्ति के पीछे उनका भोगविलास में निमग्न मन बोल रहा था। वे इतने प्रसन्न थे मानो दूसरे सर्वश्रेष्ठ इन्द्र हों। उस पंक्ति को बार-बार कहकर वे आत्म गौरव का अनुभव कर रहे थे। अपने सौभाग्य पर इतराते हुए वे मिथ्याभिमान में सब कुछ भूले हुए थे। लोक प्रचलन भी है कि इन्द्रिय सुख में मनुष्य मिथ्या गर्व से भर जाता है। प्रशंसा जनित अहं तुष्टि उसे विवेकहीन बना देती है। आज महाराज भोज की यही दशा थी। वह सोच रहे थे कि किसी राजा को वह विभूति नहीं मिली, जो आज मुझे प्राप्त है। मेरे भाग्य में कितना आनन्द समाया हुआ है। मन की इसी इतराहट में एक और पंक्ति स्फुटित हुई -

सद्बान्धवाः प्रणतिगर्भश्चः भृत्याः।

यानि की अपने निजी स्नेही बन्धुओं का साहचर्य और अनुरागी सेवकों की अविचल सेवा वृति मुझे प्राप्त हुई है। अहो ! मुझ सा भाग्यशाली भला दूसरा कौन है ?

फिर से अपनी हथेली और दूसरी पंक्ति बार-बार दर्प में गुनगुनाने लगे। अब अपनी कल्पनाओं के जगत में उनकी आत्मचेतना डूबने लगी। कवि का हृदय तो कल्पनाओं का सागर है। इसी कल्पनाओं के महासागर से काव्य के मोतियों की एक नयी लहर छिटक कर बाहर आयी -

गर्जन्ति दन्तिनिवहास्तरलास्तुरड्ढा।

अर्थात् मेरे दरवाजे पर गर्व और शक्ति सम्पन्न चंचल घोड़े हिनहिनाते तथा मदमस्त बड़े बड़े दाँतों वाले हाथी चिंघाड़ते हैं। अहा! मेरी शक्ति का पारावार नहीं है। मुझसे शक्ति सम्पन्न भला और कौन है ? मेरे ऊपर भगवान की असीम कृपा है। मुझे अपने अप्रतिम भाग्य पर गर्व है। सचमुच मैं अनन्त भाग्यशाली हूँ।

अब तो वे तीनों शक्तियों को एक साथ जोड़कर बार-बार हर्षित मन से उच्च स्वर में गाने लगे। काफी देर तक वे छन्द की चौथी पंक्ति जोड़ने की कोशिश करते रहे, किन्तु सफलता न मिल पायी। वे निर्णय नहीं कर पा रहे थे कि चतुर्थ पंक्ति क्या हो, जो उनके अहंकार की तुष्टि करे ? भावनाएँ उद्वेलित हो रही थीं।

अहंवृत्ति की दुर्बलता मनुष्य की आत्मा को क्षीण करती है। उसकी चेतना में कलुष घोलती है। मनुष्य को भोग और विनाश के मार्ग पर ले जाती है। उसका हर काम काज अपने अंतर के स्वार्थ से प्रेरित होता है। स्वार्थ और अहं से बँध कर वह और अत्याचार करने की कोशिश में लग जाता है। वह झूठे और अंधकारमय जगत में जीने लगता है।

कुछ इसी प्रकार की अवस्था इस समय महाराज भोज की थी। वह अपने को हर प्रकार से धन्य समझकर मिथ्या गर्व में चूर थे, लेकिन छन्द की चौथी पंक्ति की रचना नहीं हो पा रही थी।

तभी ठहाके की गूँज के साथ छन्द की एक और पंक्ति वातावरण में स्फुटित हो उठी -

सम्मीलने नयननोर्नहि किंचिदस्ति।

यानि की मृत्यु बेला में जैसे ही आँखें बन्द होती हैं, यह सब कुछ भी नहीं रहता। कहने वाले के स्वर में कुछ ऐसा तेज, कुछ ऐसी प्रखरता थी कि ऐश्वर्य और वैभव का समूचा साम्राज्य थर्रा उठा था। काँप तो गये स्वयं महाराज भी। उन्होंने नजरें उठाकर देखा तो पाया भगवान महाकालेश्वर के अनन्य आराधक अवधूत विक्रांत भैरव खड़े हैं। महान सिद्धियाँ, आलौकिक शक्तियों और दैवीय विभूतियों से सम्पन्न इस महान व्यक्ति के चरणों में भारतवर्ष के सभी राज्यों के राजमुकुट स्वयं झुकते थे। उज्जयिनी निवासी तो उन्हें स्वयं महाकाल का रूप मानते थे। वे कब कहाँ और किस तरह पहुँच जायेंगे, वह जानना किसी के लिए संभव न था। लेकिन यह सुनिश्चित था कि वे जब भी जहाँ जाते हैं किसी न किसी पर आलौकिक कृपा करने जाते हैं।

महाराज उन्हें अपने कक्ष में देखकर हड़बड़ा से गए। उन्होंने तुरन्त उठकर अवधूत विक्रान्त भैरव को प्रणाम किया। धारानगरी के अधीश्वर को अपनी बाँहों में उठाये हुए वे अपनी कही नयी पंक्ति का अर्थ समझाने लगे। हे राजन् ! यह ठीक है कि आपको अपने पुण्य और सत्कर्मों से ये सब लौकिक शारीरिक सम्पदायें और वैभव प्राप्त हो गये हैं। आज आपके पास साँसारिक भोग-सुख के समस्त साधन उपलब्ध हैं। किन्तु मनुष्य के अंतिम समय जब मृत्यु की छाया में उसके नेत्र बन्द होने लगते हैं उस समय उसके पास कुछ नहीं रहता है। यह सब साँसारिक सुख-वैभव क्षणिक और अस्थिर हैं। इन सब सम्पदाओं में से स्थायी रूप से तुम्हारे साथ तो कुछ भी नहीं है। यह सब भ्रम मात्र है। याद रखो, केवल आत्मतत्त्व ही स्थायी है।

मुझे यहाँ देखकर चौंकिये मत अवन्तिकेश्वर। मैं आपको अहंकार के क्षुद्र काल्पनिक जगत से बाहर निकाल ठोस वास्तविकता की ओर ध्यान दिलाने आया हूँ। इसी वार से मैंने आपका छन्द पूरा करने के लिए चौथी कड़ी जोड़ी है। अब छन्द पूरा हो गया -

च्ोतोहरा युवतयःसुहृदोऽनुकूलाः । सद्बान्धवाःप्रणतिगर्भश्च भृत्याः॥ गर्जन्ति दन्तिनिवहास्तरलास्तुरड्ढा। सम्मीलने नयननोर्नहि किंचिदस्ति॥

चित्त को लुभाने वाली कमनीय युवतियाँ, स्वभावानुकूल मित्रजन, स्नेही बन्धुओं का साहचर्य, अनुरागी सेवकों की अटूट सेवावृत्ति, द्वार पर चिंघाड़ते मदमस्त हाथियों एवं हिनहिनाते हुए शक्ति सम्पन्न चंचल घोड़ों का वैभव, मृत्यु की छाया में आँख बन्द करते ही कुछ भी नहीं रह जाता है।

छन्द की अंतिम पंक्ति मनीषी अवंतिका नरेश के अंतर्मन में शूल की तरह चुभ जाती हैं। उन्होंने अवधूत विक्रान्त भैरव से क्षमा माँगी। अब वे मोह निद्रा से जाग उठे थे। न जाने कब किस रूप में मृत्यु आ जायेे। अतः जो समय बचा है, उसे तप साधना एवं लोक सेवा में लगाना चाहिए। मोह निशा के समाप्त होते ही त्याग और वैराग्य का भाव तरंगित होने लगा। उन्हें ऐसा लग रहा था कि जैसे इसी क्षण उनकी जिन्दगी का नवप्रभात हुआ है। उनके भावजगत में काव्य का नया छन्द आकार लेने लगा था -

अनित्यानि शरीराणि विभवो नैव शाश्वतः। नित्यं सनिहितो मृत्युः कर्तव्यों धर्मसंग्रह॥

अर्थात् - यह शरीर अनित्य और क्षणिक है। साँसारिक वैभव भी हमेशा सदा साथ रहने वाला नहीं है। मृत्यु सदैव निकट रहती है। इसलिए सदा धर्म को ही महत्व देना चाहिए। संग्रह वृति हर तरह से त्यागने योग्य है।

महाराज भोज के होठों से यह छन्द अभी प्रस्फुटित हो रहा था कि तभी अवधूत विक्रान्त भैरव अंतर्ध्यान हो गये। शायद उन्हें किसी और को मोहान्धकार से बाहर निकालना होगा।


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