सुव्यवस्थित विचारों से रंगे अपने मन का कैनवास

March 1997

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बात मन की चल पड़े तो उसकी चंचलता के किस्से आएँगे ही । बालक, वृद्ध, विद्यार्थी, व्यापारी सभी अपने मन के हाथों परेशान रहते हैं । जिन्हें अपनी ताकत का भारी दम्भ रहता है, ऐसे समर्थ युवाओं को भी उनका मन छकाता रहता है। साधनारत योगी भी इससे कम हैरान नहीं होते । तभी तो गीतोपदेश के समय योगचर्चा के दौरान अर्जुन ने घबराकर भगवान श्रीकृष्ण से पूछ लिया, आखिर यह सब होगा कैसे प्रभु? क्योंकि - चन्चलहि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवदद्वम । यानि कि हे कृष्ण! यह मन तो बड़ा चंचल, प्रमथन स्वभाव वाला और बड़ा मजबूत है। सभी का यही मानना है कि इसे एक ही दिशा में देर तक बनाए रखना ही एकाग्रता है। लेकिन यह एकाग्रता आसान नहीं, बड़े प्रयत्नों के बाद ही थोड़ी-बहुत देर के लिए सम्भव हो पाती है ।

मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि मन एक बार में एक ही काम कर सकता है । अगर इस बात को ठीक तरह से ध्यान में समझ में आ जाएगा कि तमाम निरर्थक और निरुपयोगी बातों में उलझे रहने से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होंगे । छोटी बातों में जिनका जीवन में उपयोग नहीं, बेकार उलझे रहने से हानि ही है, अच्छा तो यही है कि इन सबसे मुँह मोड़कर मन को निश्चित लक्ष्य एवं प्रयोजन में लगाया जाये ।

मानव-मन के मर्मज्ञ जे. एटकिन्सन ने अपने ग्रन्थ ‘माइण्ड एण्ड इट्स पावर्स में इस विषय की विस्तार से चर्चा की है । उनका कहना है कि एकाग्रता सिद्धि का सबसे बढ़िया उपाय यही है कि मन को बेकार की उलझनों, समस्याओं से दूर रखा जाये । जिनसे अपने लक्ष्य का सीधा सम्बन्ध हो ऐसी ही बातों और विचारों तक सीमित रहा जाये । ज्यादातर लोग अपने को घर-परिवार मुहल्ले, समाज,

देश-दुनिया की तमाम छोटी-छोटी बातों में व्यस्त बनाए रखते हैं। इन फिजूल की बातों का न तो खुद से कोई सम्बन्ध होता है और न ही घर-परिवार मुहल्ले-समाज राष्ट्र की ही व्यवस्था-प्रगति में ही कोई योगदान । उलझने की वृति निरर्थक उत्सुकता की वृति ही है । यह वृति अपनी विचारधाराओं को संकीर्ण एवं विश्रृंखल बनाती है। उसमें उलझनें से मन अस्त-व्यस्त छिन्न-भिन्न और चंचल ही बना रहता है तथा उसकी एकाग्रता-शक्ति विकसित नहीं हो पाती। वाचाल और गप्पी लोगों की इधर-उधर की बातें सुन-सुनकर उन्हीं में उलझे रहना मनः शक्ति का अपव्यय ही है। ऐसे लोगों का संग करने से धीरे-धीरे स्वयं का विचार स्तर भी वैसी ही बनने लगता है ।

‘कन्सेप्ट ऑफ माइण्ड’ में लियोनिद सखारोव कहते हैं कि विचारधारा की प्रकृति एवं स्तर, संगति तथा साहित्य के अनुरूप ही बनता है। जैसे लोगों के साथ व्यक्ति रहता है और जिस तरह का साहित्य वह पढ़ता है, वैसी ही उसकी विचारधारा बनती रहती है अखबारों में से ढूँढ़-ढूँढ़कर सनसनीखेज बातें चित्र-विचित्र समाचार, जासूसी कहानियाँ, हलके दर्जे के उपन्यास और कामोत्तेजक साहित्य पढ़ने से मन की चंचलता ज्यादा ही बढ़ जाती है । एकाग्रता का मन के वैचारिक स्तर से नजदीकी रिश्ता है। गम्भीर, शालीन, विचारवान लोगों का साथ और श्रेष्ठ साहित्य के अध्ययन से वैचारिक

स्तर में क्रमशः निखार आता है । उसी क्रम से मन की एकाग्रता का अभ्यास भी बढ़ जाता है ।

सही पूछो तो एकाग्रता का मतलब गहराई में प्रवेश करने की प्रवृत्ति है। मनोविद एम.जैकब अपनी रचना ‘माइण्ड इट्स हेल्युसिनेशन एण्ड एल्यमिनेशन‘ में बताते हैं कि------------------------- एकाग्रता के इस असली मतलब को सही समझकर उसे एक जगह बाँधने में जुट जाते हैं । वैसे इस एकाग्रता से लाभ हैं। यह भी उपयोगी है, लेकिन यह शुरुआत की नहीं बाद की सीढ़ी है और इस विशेष एकाग्रता की रोजमर्रा के उपयोग में जरूरत भी नहीं पड़ती । कतिपय विशेष योग-साधनाओं में ही वैसी एकाग्रता अपेक्षित होती है । यदि प्राथमिक अभ्यास कर लिया जाये तो वैसी एकाग्र साधना भी कुछ खास कठिन नहीं रह जाती । पर होता है कि वैसी एकाग्रता के कुछ

ऊल-जलूल चमत्कारों को पढ़-सुनकर हम मन के साथ कुश्ती में उपलब्ध तो कुछ करते नहीं है विफलता, निराशा और तनाव से उपजी अस्त-व्यस्तता ही गले पड़ती है ।

जिस एकाग्रता की रोजमर्रा के जीवन में जरूरत है, वह लेखकों कवियों, दार्शनिकों, वैज्ञानिकों, गणितज्ञों, कलाकारों की एकाग्रता ही है । इसका अपने जीवन में यदि उचित समावेश किया जा सके तो जिन्दगी अपने आप ही सफलता की ओर भागने लगती है । एक ही निश्चित विषय क्षेत्र में पूरी गहराई तक तीव्रता से विचारशील बने रहना ही वह एकाग्रता शक्ति है, जो हमारे लिए रोज़ नयी उपलब्धियाँ जुटाती है । इसी के द्वारा वैज्ञानिक जटिल, गूढ़ वैज्ञानिक गुत्थियाँ सुलझाते हैं और नई-नई खोजें करते हैं। कवि काव्य सृजन करते हैं, लेखकों में एक ही विषय पर नए-नए लेख एवं वृहदाकार ग्रन्थ लिखने की सोच पैदा होती है, यही शक्ति कलाकारों में एक ही भावदशा का व्यापक चित्रण एवं प्रस्तुतीकरण कराती है। संगीतज्ञ इसी शक्ति की स्फुरणा से राग की गहराई को छू पाते हैं, दार्शनिक इसी एकाग्रता शक्ति का सहारा लेकर गम्भीर ऊहापोह कर निष्कर्ष निकालते हैं । डॉक्टर लोग शल्य क्रिया या निदान एवं चिकित्सा में निपुण बनते हैं मन की एकाग्रता का अर्थ विचारों की यह एक तानता एवं दिशाधारा ही है ।

ध्यान रहे कि गन्दे एवं निरुपयोगी विचार मन-मस्तिष्क में उमड़-घुमड़ कर ही नहीं अन्त होंगे वे हमसे वैसे ही गन्दे एवं निरुपयोगी काम भी करा डालेंगे भले ही इससे बाद में हमें शर्मिन्दगी उठानी पड़े ।

उन विचारों को रोकने और निकाल फेंकने में शुरुआती कठिनाई तो जरूर है । लेकिन थोड़े से ही प्रयास से यह काम सरल लगने लगता है । सावधान रहने और सक्रिय रहने का थोड़े दिनों तक लगातार अभ्यास करते रहने पर यह स्वभाव में आ जाता है । हमारा मन इस अभ्यास में कुछ ऐसा रम जाता है कि अनावश्यक विचारों की घुसपैठ नहीं हो पाती । सतर्कता एवं क्रियाशीलता, निरुपयोगिता और अस्त-व्यस्तता की विरोधी स्थितियाँ है । मन दोनों स्थितियाँ में एक साथ नहीं रह सकता -------------विचारों को बुलाते और भगाते हैं-------- यहाँ यह बात ध्यान रखने लायक है कि हमारे मन में जैसे विचार तरंगित होंगे वैसे ही विचार आएँगे ।

सतर्क एवं क्रियाशील मनःस्थिति में घटिया, गन्दे एवं निरुपयोगी विचार आने से सहमते एवं कतराते हैं । इसके विपरीत यदि सस्ती संगति में रहा गया, अस्त-व्यस्त मनोदशा को तहज़ीब दी गयी और उथले दर्जे का साहित्य पढ़ा

गया तो मन में प्रमाद देह में आलस्य तथा जीवन में पतनोन्मुखता की बढ़ोत्तरी होगी । इससे सतर्कता एवं क्रियाशीलता में कमी आएगी । ऐसी दशा में मन में उपजे घटिया एवं हलके विचारों के स्पन्दन इसी स्तर के विचारों को चुम्बक की तरह आकर्षित करेंगे, गन्दे विचारों का रेला हमारे मन में घुसता चला जाएगा ।

चंचलताएँ मन को अस्त-व्यस्त बनाती हैं और इससे उसकी स्फूर्ति खत्म हो जाती है, स्फूर्ति नाम है शक्ति के व्यवस्थित------ एवं स्फूर्ति नाम है शक्ति के हो जाती है स्फूर्ति नाम है-------- । शक्ति यदि बिखरती रहे तो उसकी कितनी भी मात्रा क्यों न लगा दी जाये---------- एक छोटा सा अंश भी लगाने पर अनेकों कार्य एक साथ कर लिए जाते हैं -----------इस बेकार के बिखराव से ढीलापन आता है यही स्फूर्तिहीनता की स्थिति है । जब मानसिक ऊर्जा को किसी खास दिशा एवं खास प्रयोजन के लिए केन्द्रित करते हैं तो परिणाम भी आशाजनक एवं उत्साहवर्द्धक होते स्थिति मन के उल्लास एवं स्फूर्ति को और ज्यादा बढ़ाती है । फिर तो जैसे मन शक्ति -समुद्र हो जाता है ।

इससे मनुष्य के अन्दर सोई हुई शक्तियाँ जाग उठती हैं और वह असम्भव कर दिखाता है, बिखरे मन ---------की कहे जाने वाले कामों को भी सम्भव कर दिखाता है बिखरे मन और विश्रृंखल शक्ति से संसार का कोई भी काम पूरा नहीं हो पाता इसलिए काम सिद्ध करने की एक ही सर्वमान्य विधि है मन की एकाग्रता । मन की एकाग्रता ही विचारशक्ति को सुव्यवस्थित करती है और इस सुव्यवस्था से मनचाहे काम होते चले जाते हैं ।

इस बात को ऐसे भी समझ सकते हैं कि यदि चित्रपटल पर अलग-अलग रंगों को बेतरतीब से पोत दिया जाये तो उनका वैसा प्रभाव न होगा, यदि इन्हीं रंगों को को एक विशेष अन्दाज में व्यवस्थित कर सजा दिया जाये तो सौंदर्य खिल उठता है यह सुव्यवस्था ही चित्रकला है । कैनवास पर बिखरे रंगों को चित्रकला का नाम देने में हर किसी को हिचकिचाहट होगी । यही रंग जब एक व्यवस्थित क्रम में किस निश्चित प्रयोजन के लिए सजा दिये जाएँ सभी कह उठेंगे वाह क्या कला है, चित्राकृति की चारों ओर प्रशंसा गूँज उठेगी।

इसी तरह कोई आदमी भले ही संगीत जानता हो लेकिन यदि वह सरगम के अलग-अलग स्वरों को यों ही आलाप करता रहे तो उस पर किसी का ध्यान नहीं जाएगा, ध्यान गया भी तो लोग उपहास से हँस पड़ेंगे । इन्हीं स्वरों को यदि सुव्यवस्थित रीति से निश्चित लय-ताल में बाँध दिया जाये तो राग सम्वेदनाओं की अनुभूतियों से श्रोता झूम उठेंगे एवं गायक भी इसमें विभोर हो जाएगा।

मन में उठने वाली विचार तरंगों की दशा भी स्वर-लहरियों एवं रंगों की तरह है । कार्ल रोर्ट अपनी पुस्तक 'मिस्टीरियस वेज आफ माइण्ड' में कहते हैं कि, मन को यदि निश्चित कर्म में सुव्यवस्थित कर दिया जाये तो उसकी रहस्यमय शक्तियों में उफान आ जाता है, यही सफलता, सुख एवं सन्तोष का आधार है । इनके अव्यवस्थित रहने की दशा में तो असफलता, उपहास एवं उपेक्षा ही मिलती है । रंगों एवं स्वर लहरियों के बिखराव से मन का बिखराव कही अधिक नुकसानदेह है । चित्र खराब हुआ और संगीत बेसुरा हुआ तो श्रोता ही नाराज होगे । लेकिन यदि मन बिखरा और कुराह पर चल पड़ा तो जिन्दगी के पतन-गर्त में समाते देर नहीं लगती । यह ऐसी पीड़ा है जो सारे जीवन को सिसकियों से भर देती है ।

बिखरी मनोभूमि में ही प्रमाद एवं पाप उपजते एवं पनपते हैं । इस रूप में मनोभूमि इतनी उपजाऊ होती है कोई न कोई गहरा असर शरीर एवं व्यक्तित्व पर पड़ता ही है । यही नहीं अनियन्त्रित मन के बिखराव में अनेकों शेखचिल्ली सरीखी उमंगें रहती है । नेता बनेंगे, तुरत-फुरत धनवान् बन जाने, पहलवान कहलाने की तरह-तरह की तरंगें ऐसी मनः स्थिति में बनती बिगड़ती रहती हैं । ये कल्पनाएँ आकांक्षाएँ यदि योजनाबद्ध एवं स्थिर हो तो कुछ बात बने भी । दूसरों की जिन्दगी की देखा-देखी कुछ वैसा ही करने की यह ललक प्रायः ------------------------------अस्थिर एवं अव्यवस्थित हो उसमें कुछ गम्भीरता से सोचने का सलीका हो बँटे -बिखरे एवं अस्थिर मन में ऐसी समस्त आकांक्षाएँ लालच भरे सपने बनकर रह जाते हैं ।

वाँछित प्रगति के लिए जरूरी है हमारी सारी आकांक्षाओं के तन्तु एक दूसरे से सलीके से बुने हों । इच्छाएँ जिन्दगी की किन्हीं-किन्हीं परिस्थितियों से जुड़ी होती हैं, इनके परस्पर पूरक बनने की स्थिति में ही एक शक्ति का आधार तैयार होता है । परस्पर विरोधी इच्छाएँ हमको कहीं का नहीं रहने देतीं । आवश्यक है अपने विचारों में लयबद्धता, एक संगीतमय स्थिति, इसीलिए नीतिकार प्रसिद्ध कवि रहीम ने कहा है - 'एकहि साधे सब सधे', तो मन को साधने से ही सब सिद्ध होगा । सधा हुआ मन बढ़ती रुचि और रसमयता के साथ लक्ष्य पूर्ति में लगा है रास्ते की कठिनाइयाँ अपने आप हल होती रहती है मार्ग प्रशस्त होता है और हमारे पाँव तेजी से सफलता की मंजिल तक अपने आप पहुँच जाते हैं ।


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