भ्यो औषधिषु, यो वनस्पतिषु-तस्मै देवाय नमो नमः

March 1997

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जीव जन्तुओं में ही नहीं, वृक्ष वनस्पतियों में भी प्राण चेतना विद्यमान है । तुच्छ समझे जाने वाले पेड़-पौधे भी मनुष्य की तरह दुख सुख का अनुभव करते और स्नेह सद्भाव का प्रत्युत्तर अपनी भाषा में उसी प्रकार देते हैं जैसे जीवनधारी परस्पर अभिव्यक्ति करते हैं । हिंसक क्रूर स्वभाव वाले प्राणियों को वे दूर से ही पहचान लेते हैं और डरे सहमे हुए जीवन रक्षा की मूक भाषा में सृष्टिकर्ता से प्रार्थना करते हैं । यह अलग बात है कि बुद्धि कौशल एवं शक्ति सामर्थ्य के मद में मदान्वित होकर मनुष्य उनकी सूक्ष्म हलचलों को न पहचान पाता है और न उनकी संवेदना को समझ पाता है । प्राचीन काल में ऋषि मनीषी इस तथ्य से भली भाँति परिचित थे । उनका सारा जीवन उन्हीं के मध्य बीतता था । वे जीवित प्राणियों की तरह उससे व्यवहार करते और हरीतिमा संवर्द्धन को प्रमुखता देते थे। आर्ष साहित्य में पीपल जैसे वृक्षों की गणना देवताओं में इस लिए की गयी है।

विज्ञानवेत्ताओं का भी ध्यान जब इस ओर आकृष्ट हुआ तो विविध अध्ययन अनुसंधानों द्वारा उनने सिद्ध कर दिया कि पेड़-पौधों में भी प्राण होते हैं । इस संदर्भ में अपने देश के प्रख्यात वैज्ञानिक गाडवेस्की ने वनस्पतियों में प्राणशक्ति सिद्धांत को प्रतिपादित किया । इन वैज्ञानिक प्रतिपादनों में हजारों वर्ष पूर्व भारतीय मेधा के प्रतीक महर्षि कृष्ण द्वेपायन व्यास ने वनस्पति चैतन्य को बड़ी निर्भीकता एवं विश्वासपूर्वक बताया था ।

एक बार जगदीशचंद्र बसु फरीदपुर के मेले में सम्मिलित हुए । उन्हें वहाँ प्रार्थना में लीन रहने वाले एक वृक्ष की जानकारी मिली । सायंकालीन जब मंदिरों की घण्टियाँ लोगों को प्रार्थना में सम्मिलित होने का आमंत्रण देती थीं, तो वह वृक्ष भी घण्टनाद के साथ ही धरती पर साष्टांग दण्डवत करता दिखाई देता और प्रातः फिर तन कर खड़ा हो जाता । श्रद्धालु लोग इसे विशिष्ट वृक्ष मानकर मनौती चढ़ाते और पूजा अर्चना करते । आचार्य बसु के समाधान हेतु स्वनिर्मित यंत्र द्वारा जब उस वृक्ष का तापक्रम मापा तो ज्ञात हुआ कि तापक्रम गिरने व चढ़ने के साथ वृक्ष के रूप रंग में भी परिवर्तन होता है । गहन जाँच पड़ताल के पश्चात् उनने निष्कर्ष प्रस्तुत किया की यह तथ्य प्रत्येक पौधे पर लागू होता है । उन्होंने यह भी प्रमाणित किया कि जीवधारियों की तरह ही स्थावर वनस्पतियों में भी प्राण है तथा उन्हें भी सुख दुख रुग्णता तथा जन्म मरण का शिकार होना पड़ता है ।

महाभारत के शाँति पर्व में यह प्रश्न उठाया गया है कि वृक्षों के शरीर में प्राण चेतना है अथवा नहीं ? इसके उत्तर में कहा गया है कि वृक्षों के शरीर में पाँच इन्द्रियाँ एवं चेतना का अस्तित्व होता है । वृक्ष भी देखते हैं, सुनते हैं, अनुभव करते हैं और खाते-पीते हैं । प्राण चेतना के कारण वे पंच तत्वों से प्रभावित भी होते हैं । अनेक कोशों में जीवनीशक्ति का स्पन्दन भी होता है । ऋग्वेद में भी इस तथ्य का स्पष्ट उल्लेख है कि जब मरुत नार्यागणों के साथ आकाश में विचरण करते हुए गुजरते हैं तो वन के वृक्ष भय से काँप जाते हैं और छोटी-छोटी झाड़ियाँ इधर-उधर हो जाती हैं । लतायें अपने आधार के साथ लिपटकर अपने जीवन की रक्षा करती हुई सी प्रतीत होती हैं । ग्रीष्म और शीत ऋतु में भी इन्हें भय लगता है । जिस तरह मानवी काया में त्वचा, माँस, अस्थियाँ, मज्जा एवं स्नायु तंत्र के समूह होते हैं और उनसे समूचा कार्यकीय संचालन होता है, उस तरह इनमें भी उन सबके समूह रूप में तेज जठराग्नि, क्रोध, चक्षु और ऊष्मा होती है । श्रोत्र, प्राण, मुख, हृदय, कोष्ठ भी होता है। श्लेष्मा, कफ, पित्त, स्वेद, वसा, शोणित और जल ये वृक्षों के शरीर में भी काम करते हैं ।

आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी अपने गहन अध्ययन एवं अनुसंधान के आधार पर ऋग्वेद के उक्त कथन की पुष्टि कर दी है। इन वैज्ञानिकों में दाल्हमन, सारेन्सन, राइस, हाटकिन्स एवं रॉयल सोसाइटी के अध्यक्ष विलियम क्रूक्स जैसे प्रख्यात वैज्ञानिक सम्मिलित थे । इन सभी ने एक मत से स्वीकारा है कि वृक्ष वनस्पतियों में प्राण तत्व का सिद्धांत वैदिक काल से ही प्रचलित था । पिछले दिनों अज्ञान, अंधविश्वास एवं अहमन्यता के कारण इसकी अवहेलना होती रही है । इससे भी एक कदम आगे बढ़कर विलियम क्रूक्स ने कहा है कि सूक्ष्म प्राण एक शक्ति है जिसे जीवन का आधार कहा जा सकता है । इसी शक्ति से शरीर के समस्त भीतरी और बाहरी व्यापार संपन्न होते रहते हैं । वनस्पति शास्त्रियों ने इस शक्ति के लिए अनेक परिभाषित शब्दों का प्रयोग किया, जैसे मैग्नेटिज्म-चुम्बकत्व वाइटिलिटी-प्राणशक्ति वाइटलफोर्स -प्राण, आदि । प्राण, अपान, उदान, व्यान, समान ये पाँच प्राण वनस्पतियों के शरीर में भी काम करते हैं । उसमें शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध की अनुभूति होती है । ऊष्मा से न केवल कोमल पुष्प और फल मुरझा जाते हैं वरन् पत्ते और शाखाएँ भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहती। इसी तरह इन पर शीत का भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, अतः वे शब्द ग्रहण करते हैं और उस पर संगीत एवं भावनाओं का भी व्यापक प्रभाव पड़ता है । लतायें वृक्ष को आवेष्टित करते हुए आगे बढ़ती हैं ।---------------------, अतः इसमें दृष्टि भी है।

महाभारत के अनेक ऋषि-मनीषी स्थावर जंगम में प्राण तत्व और चेतना का विकास समान रूप से मानते थे । महर्षि व्यास इष्ट, अनिष्ट, मधुर, कटु, स्निग्ध, रुक्ष, निर्हारिया, बाहर निकालने वाला, संहर भीतर रहने वाला, विशद् स्पष्ट या उत्कट ये नौ प्रकार की सुगंध वृक्षों में मानते हैं । उसी प्रकार वे उनमें मधुर, अम्ल, लवण, कटु, कषाय, तिक्त आदि इन रसों का भी अस्तित्व मानते हैं । व्यास के अनुसार जिन विविध ज्योतियों का अनुभव वृक्षों को होता है, वे इस प्रकार है शुक्ल, कृष्ण, रक्त, नील, पीत, अरुण, हस्य, दीर्घ, स्थूल, चौरस, अणुवृतवान । इसी प्रकार वृक्षों को कठोर, चिकना, विलक्षण, पिच्छल, मृदु, दारुण, उष्ण, शीत, सुख, दुख और विशद् इन 12 गुणों का भी अनुभव होता है । आचार्य बसु एवं अन्यान्य वैज्ञानिक मैग्नेटिक रिकार्डर, डाइमेट्रिक, कान्ट्रक्शन, आर्स आदि जैसे यंत्रों के माध्यम से उक्त गुणों को सिद्ध कर दिखाने में सफल हुए हैं । देखा गया है कि पशु एवं वनस्पति में सूक्ष्म जाल तन्तु समान रूप से होते हैं । वनस्पतियों में भी प्राण प्रवाहित होता है । जिस प्रकार जीवधारियों की मृत्यु होती है, उसी प्रकार प्राण शक्ति क्षीण हो जाने के बाद पौधे भी मर जाते हैं ।

केनोपनिषद् के चतुर्थ खण्ड में वन संज्ञक ब्रह्म की उपासना का फल बताते हुए कहा गया है कि यह ब्रह्म ही वन है, उसकी वन नाम से उपासना करनी चाहिए । जो उसे इस प्रकार जानता है, उसे सभी भूत अच्छी तरह चाहने लगते हैं । वन की उपासना करने का अर्थ है कि पृथ्वी को हरा भरा रखना । इसके लिए हरीतिमा संवर्द्धन किया जाये और वृक्ष वनस्पतियों के विनाश को रोका जाये । इसी को सस्य संवर्द्धन रूपी महापुण्य कहा गया है ।

वैशेषिक दर्शन के अनुसार पेड़-पौधों को पंचतन्त्राओं से युक्त माना गया है । जड़ समझे जाने वाले वृक्षों को इन व्यापारों को अनुप्रेरित करने वाले प्राण चेतना के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता । यह क्रिया पत्तियों में होने वाले सूक्ष्म मुख होते हैं, जिन्हें वनस्पति विज्ञान की भाषा में ‘स्टोमेटा’ कहते हैं । गैसों का यह आदान-प्रदान श्वसन के लिए होता है । प्रकाश की उपस्थित में स्टोमेटा द्वारा प्रविष्ट हुई कार्बनडाइआक्साइड फोटोसिन्थेसिस प्रक्रिया द्वारा पौधों का खाद्य पदार्थ निर्मित करती है । महाभारत में वनस्पतियों में प्राण तत्व की अवस्थिति को सिद्ध करने के लिए जो तर्क दिये गये हैं, वे आधुनिक वनस्पति शास्त्रियों को भी मान्य हुए हैं । वनस्पति शास्त्रियों ने प्रोटोप्लाज्म को जीवन का भौतिक आधार माना है । वृक्षों में जीवों की तरह प्रोटोप्लाज्म होता है । जो उनकी प्राण चेतना को सम्पन्न करने का सबसे बड़ा प्रमाण है । वैशेषिक दार्शनिकों की तरह आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी प्रोटोप्लाज्म द्वारा सम्पादित श्वसन, चयापचय, पोषण, वृद्धि, गति और प्रजनन आदि को जीवधारियों के लक्षण माना है।

विख्यात विकास वादी वैज्ञानिक चार्ल्स डार्विन के अनुसार समूचे जन्तु जगत एवं वनस्पति जगत बहुत सरल एवं निम्न श्रेणी के जीवधारियों एवं वनस्पतियों का विकास होते होते विकास की इस अवस्था में पहुँचा है । इस प्रकार जब हम विकास मार्ग को खोजते हुए पीछे जाते हैं, तो हम पौधे तथा जानवरों के आदिम रूप में पहुँचते हैं । डार्विन का मानना है किस स्तर तक पौधे और जन्तुओं में कोई अन्तर नहीं था और तब दोनों का मूल एक था । कालान्तर में किन्हीं कारणों से इन मूल प्राणियों का विकास दो दिशाओं में हुआ, जिससे वनस्पति जगत और जन्तु जगत का प्रादुर्भाव हुआ । तात्पर्य यह है कि डार्विन ने भी अपने विकासवादी सिद्धांत को प्रक्रिया में वनस्पतियों को प्राणयुक्त माना है।

आचार्य बसु से लेकर विलियम क्रूक्स प्रभूत विज्ञानी अपने रहस्यवादी अध्यात्मवादी थे, बाद में वैज्ञानिक । अतः वेद, उपनिषद्, महाभारत जैसे प्राच्य ग्रंथों में प्रतिपादित वनस्पतियों की प्राणचेतना से अवगत रहे हो और वर्षों तक प्रकृति के इन रहस्यों का अवलोकन करने के बाद इन्हें वैज्ञानिक धरातल पर प्रामाणिक सिद्ध करने के लिए दृढ़ संकल्पित हुए हो ।

वृक्ष-वनस्पति प्राणतत्त्व सम्पन्न है, चेतना उनके अन्दर भी है । अतः उनकी सुरक्षा एवं पोषण समस्त चर-अचर जीव जन्तुओं की सुरक्षा एवं पोषण करने के समान है । हरितक्राँति करने का अर्थ है कि जीवों को प्राणदान देने जैसा पुण्य । एक पेड़ लगाने और उसे बड़ा करने का तात्पर्य है कि एक बच्चे को पाल पोष कर बड़ा करना । इस तथ्य से यदि हृदयंगम किया जा सके तो जंगलों को, वनों को उजाड़ने का क्रम रुकेगा और अपनी ही प्राणचेतना को विकसित करने के लिए वृक्षारोपण का क्रम चल पड़ेगा । सचमुच “आत्मवत् सर्वभूतेषु” वचन तभी सार्थक होंगे ।


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