महत्वाकाँक्षाओं को आदर्शवाद के साथ जोड़ दें

March 1997

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मनुष्य के विषय में यदि उसकी आकृति, योग्यता और सम्पदा को आगे बढ़कर देखना, खोजना हो तो इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ेगा कि जो जैसा सोचता है वह वैसा ही बन जाता है। गीता में इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए कहा है - “यो यच्छ्द्धः स एव सः”, जिसकी जैसी श्रद्धा है वह वैसा ही बन जाता है। श्रद्धा अर्थात् आकांक्षा और मान्यता का समुच्चय। मस्तिष्क सोचने में स्वतंत्र नहीं है और न शरीर अपनी मर्जी से कुछ करता है। अंतराल की उमंगें ही उसे इधर-उधर लिये फिरती हैं। उसी प्रेरणा के अनुरूप मस्तिष्क को सोचना और शरीर को करना पड़ता है। अस्तु व्यक्ति का वर्तमान और भविष्य वस्तुतः उसकी इच्छा, आकांक्षा पर पूरी तरह अवलंबित समझा जा सकता है।

महत्व साधना सम्पदा का भी है। और परिस्थितियाँ भी मनुष्य को प्रभावित करती है। इतने पर भी यह मानकर चलना होगा कि उनका महत्व सीमित है। साधनों के सहारे की गयी प्रगति उनके हटते ही सादा के लिए समाप्त हो जाता है। परिस्थितियाँ बदलती, उलटती रहती हैं, आज अनुकूलता कल प्रतिकूलता। यदि उन्हीं पर प्रगति निर्भर हो तो मनुष्य को सर्वथा पराधीन ही मानना होगा।

व्यक्ति की निजी सम्पदा उसके अन्तराल में छिपी रहती है जो आकांक्षा बनकर उभरती, उछलती है। वही अपने प्रचण्ड चुम्बकत्व से ज्ञान सम्पदा, शारीरिक क्षमता, कुशलता, अन्यान्यों की सहायता, परिस्थितियों की अनुकूलता जैसे अनेक साधन अनायास ही इकट्ठे कर लेता है और मनुष्य वहाँ जा पहुँचता है जहाँ उसकी आरम्भिक क्षमता और परिस्थिति को देखते हुए यह कल्पना भी कर सकना कठिन था कि इतनी दूरी तक वह बढ़ा और इतनी ऊँचाई तक उठा जा सकता है।

समझा यह जाता है कि आकांक्षाएँ अनायास ही उठती हैं पर वास्तविकता वैसी नहीं। संचित पशु-प्रवृत्तियों के संस्कार मनुष्य पर रहते अवश्य हैं और गुरुत्वाकर्षण की तरह नीचे की दिशा में गिरते भी हैं। इतने पर भी यदि अन्यान्य उपलब्धियों की तरह आकांक्षा क्षेत्र को परिष्कृत करने का प्रयत्न भावनापूर्वक किया जाये तो दृष्टिकोण एवं रुझान--------------------- अधोगामी अभ्यासों से छुटकारा उत्कृष्टता के साथ नियोजित कर सकना भी संभव हो सकता है। आकांक्षा ही व्यक्ति को बनाती है, उठाने और गिराने का बहुत कुछ उत्तरदायित्व उसी पर रहता है।

इच्छाओं को पूर्ण करने और अभीष्ट साथ जुटाने में मन की कल्पना और बुद्धि की निर्धारणा संयुक्त रूप से महत्वपूर्ण भूमिका सम्पन्न करती है। किन्तु रुझान, चिंतन और प्रयास को दिशा देने में अंतःकरण का मार्गदर्शन होता है। अंतः कारण को कई भागो में बाँटा जाता रहा है पर उसे संक्षिप्त में अचेतन की वह परत कह सकते हैं जिसे स्वभाव एवं अभ्यास कहा जा सकता है। यह आदतें इतनी प्रबल होती हैं कि इसके सामने न बुद्धि के निर्णय ठहरते हैं और न परिस्थितियों के दबाव। इसलिए मानवी सत्ता का सबसे प्रबल पक्ष यह अचेतन या अंतःकरण ही माना जाता है।

मनोवैज्ञानिक अचेतन की उसी परत का विवेचन विश्लेषण करते हैं जो बहुसंख्यक पिछड़े वर्ग साथ जुड़ी होती है। मूल प्रवृत्तियों के नाम से उनने उसी ढेर का विश्लेषण किया है जो पशु स्तर से मिलते जुलते पिछड़ेपन से ग्रसित क्षुद्र जनों में पाया जाता है। यह प्रायः स्वकेंद्रित ही होता है और क्षुद्र प्रयोजन में उलझा उन्हीं के ताने-बाने बुनता रहता है।

अचेतन की उच्चस्तरीय परत वह है जिसे समष्टिगत कह सकते हैं, इसे सामाजिकता, नीतिमत्ता, देशभक्ति, उदारता एवं संस्कृति के नाम से जाना जाता है। यह सचेतन निखिल ब्रह्माण्ड में विश्व चेतना की तरह संव्याप्त है। उसे ‘ईथर’ तत्व के समतुल्य समझा जा सकता है। इसकी प्रेरणा--------------------- की व्यक्तिगत अचेतन को सचेतन का सहयोग एवं अनुचर बनकर रहना चाहिए और उस विराट की विपुल संपदा से लाभान्वित होना चाहिए।

अदूरदर्शी अचेतन कुछ और तरह सोचता है। उसकी इच्छा एवं हठवादिता यह है कि समष्टि की उसको ‘स्व’ का वर्चस्व मानना चाहिए और अपने नियम निर्धारण छोड़कर उसी की इच्छापूर्ति से सारा प्रवाह एवं ढाँचा बदल देना चाहिए। विग्रह इसी बात का है कि अंतर्द्वन्द्वों का समाधान इसी विग्रह के कारण होता है और उस कलह में चेतना तंत्र को किंकर्तव्य विमूढ ही नहीं विक्षिप्तों की तरह इसे ऐसे मार्ग अपनाने पड़ते हैं जिस पर अवरोध व अधःपतन के काँटे ही काँटे बिछे पड़े हैं।

विकास क्रम पर चलते हुए अचेतन की क्षुद्रता सचेतन की महानता को स्वीकार शिरोधार्य करने लगती है। अनपढ़ बचपन ही बच्चे को स्वेच्छाचारी बनाये रहता है। वे जैसे-जैसे बड़े होते हैं अनुशासन और सामाजिक अनुसंधान के परिपालन में स्वेच्छापूर्वक श्रद्धा बढ़ाते चलते हैं। तब स्वार्थ और परमार्थ में अन्तर नहीं रहता और सदुद्देश्यों के परिपालन में भी उतना ही रस मिलता है जितना कि स्वार्थ साधन में। निजी सफलताओं और सुविधाओं के लिए जितनी आतुरता अविकसित स्थिति में पाई जाती है, चेतना का विकास विस्तार होते-होते उतना ही संतोष एवं आनन्द समष्टि सेवा की गतिविधियाँ अपनाने पर भी मिलता है और क्रमशः बढ़ता चला जाता है। यही है क्षुद्रता से महानता की ओर बढ़ चलने का प्रगतिक्रम।

शरीरगत इच्छाओं और आत्मिक आकांक्षाओं का अंतर समझा जाना चाहिए। इच्छाएँ कठिनाइयों के निराकरण एवं सुविधा संवर्द्धन को लक्ष्य कर उठती हैं। उसमें वैभव और वर्चस्व ही प्रधान रहता है किन्तु आकांक्षाओं की उमंगें अपने स्तर के अनुरूप ही सोचतीं और सफलता का मूल्याँकन करती हैं। उसकी तुष्टि एवं प्रसन्नता इतने उथले लाभ पर आधारित नहीं हो सकती है। छोटे बच्चों के लिए खिलौने ही सब कुछ हो सकते हैं पर बड़ों का समाधान इन छोटी उपलब्धियों से संभव नहीं। ललक और लिप्सा ऐसे स्तर के लोगों के लिए----------------------- महत्वपूर्ण लिप्साएँ एक स्तर के लिए महत्वपूर्ण हो सकता है। पर इस संसार में ऐसे भी लोग है जो उससे कुछ ऊँची वस्तु खोजते हैं।

संपन्नता कुछ लोगों के लिए सब कुछ हो सकती है। बड़प्पन और वैभव जिन लोगों को आकर्षित किये रहता है, उतने इस संसार में नहीं रहते। जो प्रदर्शन से दूसरों को प्रभावित करने पर विश्वास करते हैं ऐसे लोग हैं तो बहुत पर इन्हीं का आधिपत्य समूचे विचार क्षेत्र में प्रचलन पर नहीं है। जो लोग महानता को महत्व देते हैं और उसकी उपलब्धि में गौरव अनुभव करते हैं ऐसे लोग संख्या में भले ही कम हों पर अभ्युदय को सुविस्तृत एवं सुनिश्चित बनाने में उन्हीं का प्रमुख हाथ रहता है।

वैभव भी आकर्षण का केन्द्र और इच्छाओं के प्रवाहित होने का एक सर्वविदित और बहुप्रचलित मार्ग है। इतने पर भी सब लोग उतने से संतुष्ट नहीं हो सकते हैं, महानता उपलब्ध कर वे ‘मैन‘ नरहका सुपर मैन बनना चाहते हैं। परिपुष्ट व्यक्तित्व की आवश्यकता एवं आकांक्षा यही रहती है कि वे सम्पन्नता में नहीं, शालीनता में अन्य असंख्यों से ऊँचे उठेंगे और अपने पराक्रम का इस रूप में परिचय देंगे कि लोक प्रयोजन में ऊँचे उठकर उनने आदर्शों का मार्ग चुना और अवरोधों, व्यंग, उपहासों एवं अभावों को सहन करते हुए भी उस संकल्प को निष्ठापूर्वक निभाया।

इच्छाएँ मनुष्य को भटकाती रहती हैं, आतुर हो उठे तो गिरा भी सकती हैं। किन्तु आकांक्षाएँ सदा उच्चस्तरीय ताने बाने बुनती हैं और असफल रहने पर भी ऐसे गर्व गौरव का अनुभव कराती हैं कि टूट गये किन्तु अनौचित्य के सामने झुके नहीं।

आदर्शवादिता अपनाने के लिए प्राथमिक तैयारी यह करनी होती है कि बड़प्पन की महत्त्वाकाँक्षाएँ घटाएँ और सादगी की निर्वाह पद्धति अपनायें। जिनकी आवश्यकताएँ बढ़ी चढ़ी हैं, उन्हें उसके लिए साधन जुटाने में अत्यधिक व्यस्त रहना पड़ता है। इच्छाओं की तीव्रता कई बार आतुरता के स्तर तक जा पहुँचती है और कम समय में अधिक पाने की पगडंडी खोजते-खोजते अनीति के झाड़-झंखाड़ों में जा फँसती है। ऐसा न हो तो भी अभिलाषाएँ चिंतन क्षेत्र को इतना खाली नहीं छोड़ती कि वहाँ आदर्शवादी जीवन पद्धति पर विचार कर सकना और वैसा वातावरण बनाने के लिए ठोस कदम उठा सकना संभव हो सके।

श्रेष्ठ जीवन का निर्माण भी किसी बड़े कृषि फार्म व्यवसाय, शासन संचालन, एवं सैन्य शिक्षण की तरह समूचे मनोयोग की अपेक्षा करता है। चुटकी बजाते संग्रहित आदतों से छुटकारा पाना और देव संस्कृति के ढाँचे में अपने को ढालना भी श्रमसाध्य और समय साध्य है। इसके लिए चिंतन तंत्र को गम्भीरता पूर्वक सोचने और प्रयास परिश्रम की दृष्टि से भी बहुत कुछ करना होता है। इसकी सुविधा उन्हें ही मिल सकती है जिनने अपनी बड़प्पन परक आकांक्षाओं को संचित करके निर्वाह को आवश्यकताएँ पूरा करते रहना ही पर्याप्त माना है। अमीरी और गरीबी को एक साथ प्राप्त कर सकना कदाचित ही कभी किसी के लिए संभव हुआ है।

मनुष्य की सामर्थ्य सीमित है, वह एक निश्चित दिशा में अवतरित गति से चल सकती है। दो विपरीत मार्गों पर एक साथ चल सकना भला किस प्रकार संभव हो सकता है ? महत्त्वाकाँक्षाएँ यदि किसी समृद्ध संसाधन के लिए गगनचुम्बी बनी हुई है तो मनःतंत्र का महत्वपूर्ण अंश उसी का ताना बाना बुनेगा। फिर आदर्शवादी निर्धारणों में न उसे उतनी रुचि रहेगी न तत्परता, जितनी की महानता का साधन जुटाने के लिए आवश्यक है। उथले प्रयासों के परिणाम भी उथले होते हैं। शौकिया स्तर की महानता सदा दिवास्वप्न ही बनी रहती है। साधन न जुटे तो सफलता कैसी ? मनोयोग की प्रखरता उत्पन्न हुए बिना साधन और सहयोग का अभीष्ट परिमाण में मिल सकना किस प्रकार संभव हो सकता है ?

सदा उच्च विचार का सिद्धांत अक्षरशः सत्य है। महामानव को अपनी आवश्यकताएँ घटाने और और वैभव परक महत्त्वाकाँक्षाएँ दबानी पड़ती हैं। मनोयोग और पुरुषार्थ की इस प्रकार की गई बचत ही महानता खरीदने के काम आती है।

आदतें हठीली होती हैं पर वे कभी परिस्थितियाँ बदल जाने पर छूटतीं और नयी बदलती रहती हैं। ठीक उसी प्रकार आकांक्षाएँ भी शाश्वत नहीं हैं, वे समीपवर्ती लोगों पर प्रभाव तथा मन मस्तिष्क के चिंतन की सामग्री देने से बदलती रहती हैं। महत्वाकाँक्षाओं को आवश्यक उपयोगी एवं शक्तिशाली माना गया है पर यह बात तभी सच बैठती है जब उन्हें आदर्शवादिता के साथ नियोजित किया जाये, निकृष्टता के साथ जुड़ जाने पर वह पतन और पराभव का ही पथ प्रशस्त करती हैं।


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