जीवन मूल्यों का यक्ष प्रश्न और उसका हल

March 1997

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

जीवन मूल्यों के बेतहाशा पतन ने मानवी मेधा को चुनौती दे रखी है। इस यक्ष प्रश्न का हल ढूँढ़ने के लिए सभी परेशान हैं। विभिन्न देशों की सरकारें, मानवाधिकार संगठन आये दिन इस संकट पर अपनी चिंता प्रकट करते रहते हैं, यू.एन.ओ. की विभिन्न गतिविधियों का तो ये जैसे आधार ही बन गया हो। साहित्यकारों ने भी इस पर कम पृष्ठ नहीं रंगे। वही अकेले क्यों, बुद्धिजीवियों के विभिन्न वर्ग इस पर आये दिन गोष्ठी, सेमिनारों का आयोजन करते रहते हैं। इतने सारे हड़कम्प के बावजूद जन साधारण अनजान है, कि आखिर जीवन मूल्य है क्या?

जीवन से सभी परिचित हैं लेकिन उसके मूल्याँकन की चेष्टा कम ही लोग करते हैं। जीवन अकेले शरीर का पर्याप्त नहीं और न ही अकेली प्राण ऊर्जा का। अकेली मानसिक शक्ति भी जीवन की परिभाषा नहीं बन सकती। परन्तु इनमें से किसी को छोड़ दें तो भी जिन्दगी आधी-अधूरी और अपंग-अपाहिज हो जायेगी। जिस आत्मसत्ता का गौरव-गान करते हुए विभिन्न धर्मों के प्रवर्तक एवं धार्मिक, आध्यात्मिक ग्रन्थों के प्रणेता ऋषि-मनीषीगण नहीं अघाते, वह भी अपनी विभूतियों को प्रकट करने के लिए जीवन को तलाशती रहती है। आत्मा की सबसे सफल अभिव्यक्ति इनसानी शरीर में ही सम्भव है इसीलिए इनसानी जीवन का महत्व सबसे अधिक है और सम्भवतः इसी कारण जीवन-मूल्य मानवीय मूल्य का पर्याय बन गए।

इंसानी जिन्दगी में ही हम मूल्यों की तलाश करते हैं। जानवरों की जिन्दगी में भी मूल्यों की तलाश में ऐसा कुछ कर गुजरते हैं, जिसके सामने इंसान बौना लगने लगता है कि शायद ये विचारहीन जानवर भी हमें बहुत कुछ सिखा सकते हैं। फिर भी इंसान-इंसान है और जानवर-जानवर इंसानी क्षमताएँ जानवरों से बहुत बढ़ी-चढ़ी हैं, यदि इन्हें मूल्यवान बनाया जा सके तो केवल मानव समाज ही नहीं बल्कि उसका सान्निध्य पाने वाले पशु-पक्षी भी स्वतः मूल्यवान हो जाएँगे।

अब सवाल यह उठता है कि मनुष्य की जिन्दगी में आखिर सबसे अधिक मूल्य किसका है ? क्या शरीर का ? तो इसके जवाब में कहना इतना ही कि यह सच है कि मानव शरीर विधाता की अनुपम रचना है। शरीर शास्त्री आज भी इसके जोड़ो, संधियों, नस-नाड़ियों शिराओं, धमनियों, दिल, गुर्दे की संरचना को देखकर हतप्रभ होते रहते हैं। लेकिन जहाँ इनमें अनेक विशेषताएँ है वहीं बहुतेरी कमियाँ भी हैं। न तो वह मछली की तरह तैर सकता है और न ही यह मेंढक की तरह पानी और जमीन पर रह सकता है। चिड़ियाँ की तरह न उड़ने की सामर्थ्य है और न गिद्ध और उल्लू की तरह देखने की। हिरन की तरह कुलाचें भरना भी इसके बूते नहीं। हाथी जैसा बल और शेर जैसा फुर्तीलापन भी मनुष्य के अन्दर नहीं है। इतनी सारी कमियों के बावजूद इंसान को शरीर के बल पर मूल्यवान कहना उचित नहीं है।

आदमी की श्रेष्ठता का आधार उसकी प्राणऊर्जा भी नहीं हो सकती। यह ठीक है कि हम प्राणों के सहारे जिन्दा हैं अन्यथा प्राणों के बिना शरीर को निष्प्राण होते कितनी देर लगेगी। इसकी अधिकता ही दीर्घायु होने का राज है। प्राणों की पूँजी खत्म हुई कि जीवन लीला समाप्त हुई। लेकिन इस प्राण सम्पदा के मामले में इनसान कइयों से पीछे है, सिकोया जाइगैष्टिया जैसे पौधे 1000 सालों तक जी लेते हैं। बरगद की उम्र भी आदमी से काफी ज्यादा होती है। जानवरों में हाथी भी आदमी से कम उम्र नहीं पाता और गोल-मटोल कछुआ भी 300 साल से भी ज्यादा जी लेता है। ऐसी दशा में प्राण सम्पदा मानवीय मूल्य नहीं बन सकता है।

रही बात मानवीय बुद्धि की, तो हाँ इसके चर्चे चारों ओर हैं और काफी जोर शोर से हैं। बुद्धि के मामले में इसकी कहीं कोई बराबरी नहीं है, न जानवर ही मुकाबला कर सकते हैं और न पेड़ पौधे। साहित्य-दर्शन-विज्ञान इसी के कौशल हैं। मोहक काव्य रचना, दार्शनिकता के वैचारिक अनुसंधान और विज्ञान की अनुभूतियाँ किसे आकर्षित नहीं करतीं। इसमें भी इनसानी शक्ल ने विज्ञान के क्षेत्र में कुछ ज्यादा ही लाभ कमाया है। यह बात बिजली और कल कारखानों, हवाई जहाजों तक सीमित नहीं रही, इलेक्ट्रानिक्स के नये युग ने तो हर और जैसे चमत्कार कर दिया है। कम्प्यूटर की कारीगरी ने एक नयी दुनिया ही सामने लाकर रख दी है।

लेकिन बौद्धिकता की इसी अनोखी सामर्थ्य ने जिन्दगी को पतन और विनाश के गर्त में धकेलने वाले सरंजाम भी कम नहीं जुटाये। साहित्य की बात ही लें ले, अश्लीलता और कामुकता से भरी छन्द रचना, रोचक, रोमांटिक उपन्यासों की कमी नहीं। सिनेमा और टी.वी. सीरियल का आधार भी तो बुद्धि ही है। इन्हें देखने वाले जानते हैं कि किस तरह ये माध्यम जन जीवन में कुत्सित भावनाओं का जहर घोल रहे हैं। दार्शनिक जो अपनी बुद्धि के संसार पर शिखर पुरुष होने का दम्भ करते हैं उन्होंने इनसानी बुद्धि को भ्रमित करने वाले चक्रव्यूह ही ज्यादा रचे हैं। मनुष्य की कोमल भावनाओं को नष्ट करने, उसके पैरों के नीचे की आस्था व विश्वास की जमीन को खिसका देने में जितना योगदान दार्शनिक का है, उतना किसी का नहीं। विज्ञान की बात ही निराली है, उसने तो सम्मोहन में प्रवीण कुशल इंद्रजाल की तरह मनुष्य को कुछ न कुछ दिखाकर उसकी इंसानियत तक छीन ली।

आणविक अस्त्र वैज्ञानिकों की बुद्धि का ही चमत्कार है। इसी चमत्कार से उपजे पर्यावरण प्रदूषण ने मानवीय प्रजाति के सम्मुख अस्तित्व का ही संकट खड़ा रखा है। वैज्ञानिकों की सतह और सहायता से हम भले ही अंतरिक्ष में उड़ना सीख गये हों लेकिन धरती पर जीना अवश्य भूल गये हैं। विज्ञान और वैज्ञानिकता ने सुविधा और सहूलियत के साथ मानवता की छाती पर इतने गहरे जख्म दिये हैं, जिसके दर्द की कसक से वह रह-रहकर तड़पती और सिसकती रहती है। ऐसे में मानवीय बुद्धि की लाख विशेषताओं के बावजूद मानवीय मूल्यों या जीवन मूल्यों का प्रतिमान प्रमाण मानना किसी भी तरह उचित नहीं। सच तो यह है कि जीवन मूल्यों का बेतहाशा पतन हुआ ही मानवीय बुद्धि के कारण है।

तब क्या जीवन का कोई मूल्य नहीं ? उसके मूल्याँकन की बात बेमानी है और इस तरह के प्रयासों का स्वयं ही कोई मूल्य नहीं ? इन सवालों के उत्तर इतना ही कहना है कि, मानव जीवन के अमूल्य और बहुमूल्य है, वह तो मूल्यों के आगार और भण्डार है। लेकिन इसके सारे मूल्य जीवन के केन्द्र से गुजरते हैं। यह केन्द्र ही जीवन का सार है। जीवन में इस सार तत्व को संवेदना कह सकते हैं। यह शाश्वत जीवन मूल्य है। इसी का सहारा पाकर जीवन मूल्य अंकुरित होते हैं, इसी का रस पाकर पुष्पित पल्लवित एवं अभिवर्धित होते हैं।

संवेदना का मतलब है - समान वेदना। किसी की पीड़ा को देखकर हम तड़प उठे। हमारा चिंतन उसके दुख के निवारण के लिए सक्रिय हो उठे। हमारे हाथों-पाँवों में उसकी सेवा के लिए अकुलाहट भर जाये यही संवेदना है। संवेदना जब सक्रिय होती है तो अस्तित्व की सारी शक्तियों को एक सूत्र में पिरोकर इच्छित दिशा में अग्रसर कर देती है। कर्म और चिंतन अपने आप भावनाओं के बड़प्पन में बँध जाते हैं। यदा-कदा पशुओं में भी इसकी झलक मिल जाती है। समय-समय पर समाचार पत्रों में ऐसे समाचार छपते रहते हैं, कुत्ते ने बन्दर की रक्षा की और गाय ने कुतिया के बच्चे को दूध पिलाया। कुत्ते की वफादारी और घोड़े की स्वामी भक्ति भी इसी रूप में है। परन्तु इन प्राणियों में कल्पना एवं विचारशीलता के अभाव में यह संवेदना व्यक्त नहीं हो पाती। ऐसी दशा में इससे जीवन मूल्यों की बहुरंगी फसल सही ढंग से विकसित हो पाती।

संवेदना सहज है और सरस है, लेकिन स्वार्थ और अहं की वृत्तियां इसकी सारी सहजता समाप्त कर देती हैं और सरसता सोख लेती हैं। मजे की बात है कि इन वृत्तियों को पोषण बुद्धि से मिलता है। यही स्वार्थ के पक्ष में तर्क जुटाती है और अहं की प्रतिष्ठा के लिए साधन का इन्तजाम करती है। स्वार्थ और अहं हमारे भाव सरोवर की निर्मलता और उर्वरता को काई की तरह ढके रहते हैं। ऐसे में जीवन मूल्यों के कमल खिलें तो किस तरह। समाधान एक ही है यानि स्वार्थ एवं अहं की वृत्तियों से छुटकारा और इसकी जगह पर उदारता और सहिष्णुता की भाव वृति का विकास।

उदारता और सहिष्णुता के अंकुरित होते ही स्वार्थ और अहं की वृत्तियां अपने आप ही निष्प्राण और निस्तेज होने लगती हैं। इन दोनों को संवेदना का शाश्वत जीवन मूल्य से उपजा प्रारंभिक जीवन मूल्य कह सकते हैं क्योंकि इनके अभाव में स्वार्थ एवं अहं की समाप्ति असंभव है। विचार गम्भीरता से करें तो हम पायेंगे की स्वार्थ का विस्तार आर्थिक उच्छृंखलता, निरंकुश भाव योग का कारण बना हुआ है। अहं के गगनचुम्बी बनने की ललक की वजह से नित नये कुचक्र रचे जाते हैं। अचरज तो तब होता है जब सारे सुख साधनों के बावजूद दूसरों की स्वतंत्रता एवं मर्यादा के हरण के लिए तरह-तरह के मकड़जाल रचे जाते हैं। पर अहं की वृति ही कुछ ऐसी है कि उसे तब तक चैन नहीं मिलता जब तक औरों को नीचा न दिखा ले, दूसरों को अपने आधीन करके दम्भ को पूरा न कर ले।

हिटलर की बर्बरता, मुसोलिनी की तानाशाही एवं नैपोलियन के अभिमान की प्रेरक उनकी अहं वृति ही थी। सिकन्दर का विश्व विजेता बनने का सपना इसी वृति से प्रेरित था। अहं के इस दानव की ही भाँति स्वार्थ की सुरसा का मुँह कम बड़ा नहीं है। भोग जैसे जैसे बढ़ते जाते हैं स्वार्थ की सुरसा का मुँह भी बढ़ता जाता है इसका कोई अंत नहीं। ये दोनों ही विनाश वृत्तियां जीवन मूल्यों की विरोधी हैं। जिस व्यक्ति में, जिस समाज में अथवा जिस किसी राष्ट्र में इनका प्रसार जितना अधिक है वही जीवन मूल्यों के उतने ही अंशों में उतनी कमी आना स्वाभाविक है।

इसी कारण जीवन और समाज को कोई भी व्यवस्था चाहे वह आस्तिक हो अथवा नास्तिक, जीवन मूल्यों को नकार नहीं सकती। धर्म को अफीम की गोली कहने वाला मार्क्स भी जीवन मूल्यों को नकार नहीं सका बल्कि उसने शाश्वत मूल्य संवेदना से प्रेरित होकर ही सर्वहारा वर्ग के लिए ऐसी समाज रचना की कल्पना की, जिससे सबको बराबर का सुख मिल सके। ‘ऋण कृत्वा घृतं पिबेत ’ का सूत्र देने वाले चार्वाक यही बता सके कि जब धरती का भोग पदार्थ सीमित है तो बिना बँटवारा किये खाने वाला सुख पूर्वक कैसे रह सकता है और बाँटना तो संवेदना को अपनाकर ही संभव है। कतिपय विचारहीन लोगों को छोड़ दें तो सुखी और समृद्ध समाज की कल्पना करने वाले हर किसी ने संवेदनशीलता की सराहना की है। ऐसे विचारकों ने जब-जब धर्म की आलोचना की है तो उनका मतलब उन धार्मिक कुरीतियों से रहा है, जो समाज के स्वार्थ और अहं का पर्याय बनी हुई थी। अपने देश के ऋषि कहे जाने वाले विचारकों ने धर्म को शाश्वत जीवन मूल्य कहा है क्योंकि यह संवेदना का ही पर्याय था। राजा रतिदेव की धार्मिक भावनाएँ, भगवतकार शब्दों में कुछ इस तरह से झलकती है

न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्ग नापुनर्भवम्। कामये दुःखतप्तानाँ प्राणिनामात्तिंनाशम्।

अर्थात् हे सर्वेश्वर! मैं स्वर्ग की सद्गति, स्वर्ग, मोक्ष, इस लोक का सुख-वैभव राज्य आदि कुछ नहीं चाहता, चाहता हूँ तो सिर्फ दुखों की आग में जलते हुए प्राणियों के ताप के निवारण की शक्ति।

गोस्वामी तुलसीदास जी अपनी अमरकृति रामचरित्र मानस में कहते हैं - ‘परहित सरिस धरम नहि भाई’। यानि की दूसरों की सेवा भावना से बड़ा कोई धर्म नहीं है। महर्षि व्यास की समस्त रचनाओं का सारभूत अंश बताते हुए एक ऋषि का कथन है, अष्टादश पूराणेषु व्यासस्य वचनं द्वयम्। परोपकाराय पुण्याय, पापाय परपीड़नम्॥ अठारह पुराणों में व्यास की मूल बातें दी हुई है।, परोपकार सबसे बड़ा पुण्य है और दूसरों को पीड़ा देना सबसे बड़ा पाप।

विचारक चाहे पूर्व के हों या पश्चिम के, अतीत के हों या वर्तमान के, सभी का एक ही मत है, जीवन मूल्यों के विकास का अर्थ है शाश्वत जीवन मूल्य।

संवेदना के जीवन के सभी क्षेत्रों में अधिकाधिक अभिव्यक्ति है। चिंतन कर्म और भावना से सभी क्षेत्रों में ज्यादा से ज्यादा संवेदना बिखरे और निखरे। अपने-अपने परिवेश और समाज के अनुरूप नीति बनती है। लेकिन इन नीति नियमों का उद्देश्य यही रहा है मानव को अधिक से अधिक उदार एवं सहिष्णु बनाना। उसमें उन तत्वों को विकसित करना, जिनके द्वारा वह समाज के व्यापक दायरे में सामंजस्य बैठा सके। समाज की सौम्यता व सौजन्यता विकसित कर सके।

हालाँकि नीति नियम की तरह ये बाहरी अनुशासन हैं, जिसे समाज व्यवस्थापक ढंग का भय दिखाकर डरा धमका कर पालन करवाते हैं। यह नियम तोड़ोगे तो ऐसी सजा मिलेगी। शोषण, भ्रष्टाचार, अनीति, अन्याय सभी के खिलाफ कानून है, सजाएँ हैं पर सिलसिला है कि रुकता नहीं है। इसका मतलब सिर्फ इतना है कि कि नीति नियम, संविधानों का अम्बार मानव की स्वार्थ अहं की वृत्तियों का सामयिक दमन तो करता है पर स्वार्थ और भोग की प्रतिष्ठा की चाह, चोरी छिपे उन कामों को करवाती ही रहती है जो नियमों के खिलाफ है। कभी-कभी तो कुछ लोग खुल्लमखुल्ला इन नियमों को तोड़ने का साहस कर बैठते हैं। ऐसी दशा में न

तिकमता के बंधन जीवन मूल्यों के तात्कालिक एवं सामयिक संरक्षण ही हो सकता है, शाश्वत और सर्वकालिक नहीं ।

उसके लिए तो मानव प्रकृति के मर्मज्ञ अध्यात्म की तकनीकों की सलाह देते हैं। उनके अनुसार अध्यात्म मानवीय अस्तित्व की सी टेक्नालॉजी है, जिसके बलबूते वृत्तियाँ परिशोधित की जा सकती हैं। अंतःप्रकृति का रूपान्तरण हो सकता है। इसके साथ ही उन तकनीकों का सहारा लेकर मानव अपने अस्तित्व के केन्द्र तक जा पहुँचता है, जहाँ इसे सृष्टि विस्तार के सारे सूत्र अपने आँतरिक संवेदना से जुड़े दिखते हैं। ऐसी स्थिति में सब ओर उसे अपना ही विस्तार लगता है। सबके स्वार्थ में अपना स्वार्थ और सबकी प्रतिष्ठा में अपनी प्रतिष्ठा समझ में आने लगती है। जब स्वार्थ और अहं की क्षुद्र वृत्तियां ही नष्ट हो गयी हो तो फिर उसका हर कार्य एवं चिंतन जीवन मूल्यों का विकास एवं विस्तार ही करता है।

जिन्होंने भी इस सत्य को जाना एवं पाया वे ही जीवन मूल्यों के संसार में शीर्ष पुरुष बनें। बुद्ध ने इसी बोध को पाकर बहुजन हिताय बहुजन सुखाय की ध्वनि गुँजित की। स्वामी विवेकानन्द को इसी कारण अमेरिका का सुखमय जीवन रास नहीं आया। सुख ऐश्वर्य से भरे पूरे घर में भी वे नंगे फर्श पर पड़े देशवासियों की दयनीय दशा के लिए तड़पते रहे। महात्मा ईसा के द्वारा सूली को स्वीकार किये जाने के पीछे यही रहस्य था। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी इसी भाव से भावित होकर दरिद्र को नारायण के रूप में पूजने लगे थे। दरिद्र नारायण की सेवा ही उनके जीवन का व्रत बन पड़ा है।

इन सभी शीर्ष पुरुषों ने जीवन मूल्यों को किसी विवशता एवं बाध्यता की वजह से से नहीं अपनाया बल्कि उनकी अंतरात्मा से इसकी बहुरंगी छटा झलकने लगी थी। उनका स्वभाव ही कुछ ऐसा हो गया कि उनके अलावा वे कुछ सोच अथवा कह नहीं सकते थे। यदि उन्होंने अपने प्रारम्भिक जीवन में नैतिक अनुशासन और मान्यताओं को अपनाया तो वह कानून या संविधान के डर से नहीं बल्कि इसलिए कि उसमें उनकी आस्था थी। उन्हें इस बात पर विश्वास था कि इन अनुशासनों के दायरे रहकर ही अपनी प्रकृति परिवर्तित एवं रूपान्तरित कर सकते हैं और उन्होंने ऐसा ही किया।

आज यदि जीवन मूल्यों में गिरावट आई है तो इसका मतलब इतनी ही है कि जीवन के प्रति आस्था टूटी है। जीवन लक्ष्य हीन हुआ है। जीवन के अतीत और भविष्य खो गये हैं। ऐसी दशा में वर्तमान में भटकना स्वाभाविक है। अब यदि इस भटकाव को दूर करना है तो बात, बातों से नहीं बनेगी। पाँच सितारा होटलों में होने वाली वक्तृताओं, वातानुकूलित कमरों में चलने वाले बौद्धिक वितण्डावाद से कब किसका कल्याण हुआ है। इनसे तो विलासिता बढ़ती है। सच कहा जाये तो ऐसे लोग स्वयं जीवन मूल्यों से पतित होते हैं।

जीवन मूल्यों का विकास, भाव विकास है, मानवीय संवेदनशीलता का बहुआयामी विकास है। इस विकास का चरम बिन्दु है मोक्ष। एक तरह से यह सर्वोच्च जीवन मूल्य है क्योंकि यहीं इस बिन्दु पर स्वार्थ एवं अहं की वृत्तियों से पूरी तरह से छुटकारा मिलता है। इसके साधन हैं - सहानुभूति, सेवा, सहायता, त्याग, बलिदान, कर्तव्यपरायणता। यथार्थ में इन्हें कितने ही नाम एवं रूप क्यों न दें पर वे उदारता ओर सहिष्णुता के ही अलग-अलग रूप हैं। उदारता ही भामाशाह, जमनालाल बजाज का सृजन करती है। बहुजन हिताय में अपना सर्वस्व दे सकने का साहस इन्हीं से उमगता है। सहिष्णुता के सहारे तप और त्याग के अंतिम छोर को छू पाने में समर्थ हो पाते हैं। राष्ट्र और समाज के लिए बड़े से बड़ा त्याग बलिदान, उदार और सहिष्णु व्यक्ति ही कर पाते हैं।

इस भाव विकास के लिए चाहिए विचार और आदर्श। खोखले विचारों, वक्तृता एवं पुस्तकीय रचना से काम चलने वाला नहीं है। आदर्श व्यक्तित्व के चिंतन से प्रवाहित विचार गंगा ही मानव वृत्तियों का कलुष धो सकने में समर्थ है। त्याग चिरअतीत से हमारे समाज व संस्कृति का मानदण्ड रहा है। इस मानदण्ड पर खरे उतरने वाले मोक्ष परायण व्यक्तियों के जीवन मूल्यों का शिक्षण संभव है। महावीर और महर्षि रमण बिना बोले ही सब कुछ सिखा देते थे जबकि वक्तृताओं की बौद्धिक रचना से प्रायः बोलने वालों की कुटिल अहंवृत्ति को ही पोषण मिलता है। यथार्थ में जिन्हें जीवन मूल्यों में गिरावट की पीड़ा है, कसक है, वे आगे आयें, तोड़ फेंके स्वार्थ और अहं की बेड़ियों को, चाहे वे लोहे की हो या सोने की और प्रामाणित कर दें अपने जीवन से कि वास्तविक जीवन मूल्य क्या है। उनका ही समर्थ संरक्षण एवं सशक्त शिक्षण होगा। यदि ऐसे एक हजार व्यक्तित्व भी आगे आ सके तो अपने देश में जीवन मूल्यों की कोई समस्या न होगी। क्या 10 करोड़ पुत्र पुत्रियों पाली संतानों को पा सकेंगी ? यदि ऐसे त्यागी बलिदानी युवक-युवतियाँ आगे आ सकें तो हम 21वीं सदी में समूचे विश्व में जीवन मूल्यों का शिक्षण एवं संरक्षण कर सकेंगे।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118